प्रकृति का अपमान करते जब नर-नारी
भुवन पर होता है तब अति विपद भारी
नरता जब होता है पशुत्व में परिणत
धरा पर दीखता है मानव छत-विछत
मानवता के नाम पर जब कोई लूटता है
घड़ा विष का तब कुछ यूँ ही फूटता है
गरल न सिर्फ मानव को ही लीलता है
धरा को भी कलंकित कर वह फूलता है
जब मनुज खुद लील लेता धर्म-ग्रन्थ
तब भला क्यूँ चुप रहें दिग-दिगंत
हर ओर भयंकर यूँ ही प्रलय होगा
देव-स्थल का मरघट में विलय होगा
चुपचाप सहेगा मानव जाति ये कोहराम
मुख से तो निकल भी न सकेगा हे राम!
हर ओर व्याप्त विलाप-क्रंदन होगा
कलयुग पर मानवता का रुदन होगा
भुवन पर होता है तब अति विपद भारी
नरता जब होता है पशुत्व में परिणत
धरा पर दीखता है मानव छत-विछत
मानवता के नाम पर जब कोई लूटता है
घड़ा विष का तब कुछ यूँ ही फूटता है
गरल न सिर्फ मानव को ही लीलता है
धरा को भी कलंकित कर वह फूलता है
जब मनुज खुद लील लेता धर्म-ग्रन्थ
तब भला क्यूँ चुप रहें दिग-दिगंत
हर ओर भयंकर यूँ ही प्रलय होगा
देव-स्थल का मरघट में विलय होगा
चुपचाप सहेगा मानव जाति ये कोहराम
मुख से तो निकल भी न सकेगा हे राम!
हर ओर व्याप्त विलाप-क्रंदन होगा
कलयुग पर मानवता का रुदन होगा