Wednesday 26 June 2013

प्रकृति का अपमान

प्रकृति का अपमान करते जब नर-नारी
भुवन पर होता है तब अति विपद भारी
नरता जब होता है पशुत्व में परिणत
धरा पर दीखता है मानव छत-विछत

मानवता के नाम पर जब कोई लूटता है
घड़ा विष का तब कुछ यूँ ही फूटता है
गरल न सिर्फ मानव को ही लीलता है
धरा को भी कलंकित कर वह फूलता है

जब मनुज खुद लील लेता धर्म-ग्रन्थ
तब भला क्यूँ चुप रहें दिग-दिगंत
हर ओर भयंकर यूँ ही प्रलय होगा
देव-स्थल का मरघट में विलय होगा

चुपचाप सहेगा मानव जाति ये कोहराम
मुख से तो निकल भी न सकेगा हे राम!
हर ओर व्याप्त विलाप-क्रंदन होगा
कलयुग पर मानवता का रुदन होगा 

Tuesday 11 June 2013

फेंका गया मुझे

हर बार मेरे ही ज़ख्म में पिरोया गया मुझे
जो कराहा तो फिर से सताया गया मुझे
अपने बदन के टुकड़ों को जो मैंने समेटा
तो फिर से दुगुने टुकड़ों में काटा गया मुझे

हर बार मेरे ही लहू में डुबाया गया मुझे
जो बच के निकला तो तडपाया गया मुझे 
जंग-ए-तख़्त-ए-सियासत में यहाँ  
अपनी ही मिट्टी से मरहूम किया गया मुझे

हर बार निगाह-ए-हिकारत से देखा गया मुझे  
जो नज़र मिलाया तो बेसबब झुकाया गया मुझे 
फरमान हद-ए-निगाह से दूर जाने का दे दिया गया
जो फिर से देखा गया तो नंगा घुमाया गया मुझे

हर बार मेरे ही आग में जलाया गया मुझे
जो बुझ गया तो फिर से सुलगाया गया मुझे 
कब्र-ए-मुक़र्रर की जमीं भी न दी गई "धरम"
जो मर गया तो काट के फेंका गया मुझे

Saturday 8 June 2013

ख्वाब देखा

उजड़े घर में फिर से पुराना ख्वाब देखा
अमावास की रात में मैंने आफताब देखा
धडकता पत्थर फिर से दिल हो चला था
उसके लौटने का मैंने फिर से ख्वाब देखा

डूबने का डर

मुझे उसके जाने का डर लगा रहता है
ख्वाब में भी उसके पर लगा रहता है
वो मुस्कुराये फिर भी न जाने क्यूँ
मुझे अनजाना सा डर लगा रहता है

बातें उसकी मेरे समझ में नहीं आती
इश्क में भी गुरुर-ए-हुस्न नजर आता है
रिश्ता-ए-पाक-ए-मोहब्बत में भी "धरम"
मुझे तो अब डूबने का डर लगा रहता है