Thursday 24 September 2015

क्या नाम दूँ

जो फिर तुमने तोड़ा था उसे मैंने जोड़ दिया
भटकते रिश्ते को मैंने फिर नया मोड़ दिया

रिश्ता कितना मुकम्मल है इसे क्या नाम दूँ
इन बातों पर मैंने तुमसे उलझना छोड़ दिया

दिल को जितना जलना था उतना जल चुका है
दिल में मैंने इश्क़ का दीया जलाना छोड़ दिया

मुफ़लिस के कब्रगाह पर हुस्न नीलाम हो रहा है
"धरम" अब ख़ुदा यहाँ इन्सां बनाना छोड़ दिया 

Wednesday 16 September 2015

चंद शेर

1.
हर कदम पर शिकस्त खाई हर मंज़िल पर मिली मौत
ज़िंदगी! तुमने रास्ता औ" बुलंदी भी बहुत खूब दिखाई

2.
कल तक जो रुस्वा था आज दामन-ए-पाक हो गया
ऐ! सियासत तेरे दर पर इंसानियत हलाक़ हो गया

3.
"धरम" जरा सी बात थी औ" इसके अफ़साने बन गए
जो मैंने खाई शिकस्त तो कितने और दीवाने बन गए

4.
ऐ ज़िंदगी तू मोहब्बत के सिवा हर रंग से गुजरी है
औ" मेरे आशियाने के अलावा तू हर जगह ठहरी है

5.
न तो ग़म-ए-हिज़्र का सवाल था न दर्द-ए-दिल का मलाल था
अब फिर उसे चाहने का "धरम" न तो ख्वाब था न ख्याल था

6.
तुमसे मिला तो जीने का अंदाज़ यूँ बदल गया
जो पहले ख्वाब था अब एक सवाल बन गया 

Monday 7 September 2015

डराया गया मुझे

हर बार किताब-ए-अमन दिखाकर डराया गया मुझे
ज़ख्मों पर अनगिनत ज़ख्म देकर सताया गया मुझे

जो बात मोहब्बत की थी मोहब्बत से सुलह हो जाती
फिर क्यूँ सर-ए-आम आग में ज़िंदा डुबाया गया मुझे

मैं प्यासा मुसाफिर था मुझे गले की प्यास बुझानी थी
छोटी सी जरुरत पर भी घूँट लहू का पिलाया गया मुझे

हाँ! फटे लिबास में ही सही मगर ढँकी तो थी मेरी आबरू
किस जुर्म में बे-आबरू कर सर-ए-आम घुमाया गया मुझे

मैं ज़िंदा था तो सारा ज़माना पैर से ठोकर मारता था "धरम"
औ" मर गया तो कंधे पर उठाकर कब्र में लिटाया गया मुझे 

Friday 4 September 2015

दिशाहीन रिश्ता

दिशाहीन पनपता रिश्ता
एक मजबूत आधार की तलाश में
हर रोज सिसकता है
अँधेरे में तलाशता है राह
मगर किसी अनजाने डर से
सिकुड़कर छुप जाता है
नेपथ्य से आती ध्वनि सुनकर

रिश्ते में उपजे खोखलेपन को
गर्म रेत से भरता है
इस उम्मीद में शायद
कि रिश्ते में कुछ गर्माहट आ जाए
मगर उस रेत की गर्मी से तो
रिश्ते में फफोले आने लगते हैं

रिश्ते में उपजे सन्नाटे से
जब कभी चुप्पी अट्टहास करता है
जहन में उठने लगतीं हैं सुनामी लहरें
बदन काँपने लगता है
अश्क़ और लहू के मिश्रण से
मानसपटल पर एक चेहरा
उभरने लगता है
मुस्कुराते दिल में सुराख करते
एक ओर से दूसरी ओर निकल जाता है

दिशाहीन रिश्ते को जब भी छूना चाहा
चेहरा जल उठा
पाँव फिसला
हाथ कपकपाया
और वक़्त की मार से दिल पर
ज़ख्मों का गाढ़ा निशाँ उग आया  

Tuesday 1 September 2015

रुला देती है

उम्मीद हरेक चेहरे पर दूसरा चेहरा चढ़ा देती है
ख़ुशी देती है और फिर ज़ख्म देकर रुला देती है

न जाने ज़माने में इंसानियत का ये कैसा रोग है
जो इन्सां का दर्द बांटकर उसे और भी बढ़ा देता है

यहाँ तो एक ही ज़ुर्म पर सजा अलग-अलग होती है
ये कैसा इन्साफ है जो बुझी आग को भी हवा देता है

अब मुख़्तसर सी ज़िंदगी में ख़ुदा की बख़्शी दोस्ती भी
एक दोस्त की रुस्वाई पर दूसरे दोस्त को मज़ा देती है