Friday 25 December 2015

इसके पहले भी

हम तो लुट चुके हैं तेरे यारी से पहले भी
और कई ख़ुमारी थी इस ख़ुमारी से पहले भी

इश्क़ में फ़ना हुआ औ" कई बार दिल गया
मेरी जाँ गई थी इस जाँनिसारी से पहले भी

लब खुले तेरी चर्चा चली औ" सीना भर आया
हुआ था इश्क़ इस ज़िक्र-ए-यारी से पहले भी

अदब की महफ़िल थी औ" करम बरस रहा था
और भी पाई थी शोहरत इस ज़रदारी से पहले भी

किसी का ज़ख्म भरा औ" कुछ बीमार हुए "धरम"
और भी अदाएं थी तुझमें इस अदाकारी से पहले भी



Thursday 12 November 2015

खंड-खंड

काल यह प्रचंड है हर मस्तक खंड-खंड है
दुर्ग जो अभेद्य था वहाँ बह रहा अब मुंड है  

Monday 9 November 2015

कोई बात न होती है

अब न तो ख्वाब में मुलाकात ही होती है
औ" पड़ जाए सामने तो बात न होती है

ख्यालों की दुनिया से निकल गया हूँ मैं
ज़िंदगी में अब कभी चांदनी रात न होती है

मैं जब से लुटा हूँ बस तन्हा ही जी रहा हूँ
मुफ़लिस के साथ कभी बारात न होती है

ऐ! मौला ज़िंदगी के बोझ से दब गया हूँ मैं
आह! भरूँ तो उसमे भी जज़्बात न होती है

मैं जहाँ रहता हूँ वहां तो हर कोई मतलबी है
"धरम" मेरी किसी से कोई बात न होती है

Saturday 3 October 2015

ज़माने से नेकी कर

तुम्हें ग़र खुद पर यकीं है तो औरों पर भी यकीं कर
तू दिल से निकाल दे रंजिश औ" ज़माने से नेकी कर

इंसान ग़र खुश हो किसी से तो ख़ुदा भी मुस्कुरा देता है
कर के दीदार-ए-नज़र तुम सारे ज़माने को ख़ुशी कर

गहरे ज़ख्म का जायका हर किसी के नसीब में नहीं होता
ये नसीब तुम्हें ख़ुदा ने बख़्शा है तू इसे जी औ" मस्ती कर

न हो सके कोई तुझ से छोटा औ" न तुम रहो किसी से बड़ा
करना हो तो ज़माने में तुम "धरम" ऐसी अपनी हस्ती कर 

Friday 2 October 2015

गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का अनर्गल प्रलाप

गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का अनर्गल प्रलाप
खुद देकर ज़ख्म करते घड़ियाली विलाप

आरक्षण राग का तुम तो खूब करते अलाप
मुफ़लिस तो अब भी कर ही रहे हैं बाप-बाप

सरकारी तंत्रों को खाकर तुम लेते भी नहीं डकार
पैसा मुफलिसों का खाकर खुद ही करते हो पुकार
न चलेगा ये अत्याचार! न चलेगा ये अत्याचार!

जो कोई गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देते करके व्यापार
दो साधुबाद उन लोगों को मत करो उनपर प्रहार
क्यों हो जाते हो तुम उसे भी लील लेने को तैयार
जब लील लोगे तुम इसे भी तब उठेगा हाहाकार

क्यों तुम्हारा हर नीत अब हो रहा यहाँ विफल
क्यों हो रहे बुद्धिजीबी हर कदम पर असफल
जब परोसोगे हर थाली में तुम यहाँ विष-फल
तो कैसे उगेगा वह वृक्ष जो जनेगा अमृत-फल

हैं प्रार्थना तुमसे अब मत ज़ुल्म कर शिक्षा पर
बना ऐसा तंत्र कि दीपक ज्ञान का जले हर घर
न हो हर किसी के घर में कभी भी अँधेरा प्रखर

Thursday 24 September 2015

क्या नाम दूँ

जो फिर तुमने तोड़ा था उसे मैंने जोड़ दिया
भटकते रिश्ते को मैंने फिर नया मोड़ दिया

रिश्ता कितना मुकम्मल है इसे क्या नाम दूँ
इन बातों पर मैंने तुमसे उलझना छोड़ दिया

दिल को जितना जलना था उतना जल चुका है
दिल में मैंने इश्क़ का दीया जलाना छोड़ दिया

मुफ़लिस के कब्रगाह पर हुस्न नीलाम हो रहा है
"धरम" अब ख़ुदा यहाँ इन्सां बनाना छोड़ दिया 

Wednesday 16 September 2015

चंद शेर

1.
हर कदम पर शिकस्त खाई हर मंज़िल पर मिली मौत
ज़िंदगी! तुमने रास्ता औ" बुलंदी भी बहुत खूब दिखाई

2.
कल तक जो रुस्वा था आज दामन-ए-पाक हो गया
ऐ! सियासत तेरे दर पर इंसानियत हलाक़ हो गया

3.
"धरम" जरा सी बात थी औ" इसके अफ़साने बन गए
जो मैंने खाई शिकस्त तो कितने और दीवाने बन गए

4.
ऐ ज़िंदगी तू मोहब्बत के सिवा हर रंग से गुजरी है
औ" मेरे आशियाने के अलावा तू हर जगह ठहरी है

5.
न तो ग़म-ए-हिज़्र का सवाल था न दर्द-ए-दिल का मलाल था
अब फिर उसे चाहने का "धरम" न तो ख्वाब था न ख्याल था

6.
तुमसे मिला तो जीने का अंदाज़ यूँ बदल गया
जो पहले ख्वाब था अब एक सवाल बन गया 

Monday 7 September 2015

डराया गया मुझे

हर बार किताब-ए-अमन दिखाकर डराया गया मुझे
ज़ख्मों पर अनगिनत ज़ख्म देकर सताया गया मुझे

जो बात मोहब्बत की थी मोहब्बत से सुलह हो जाती
फिर क्यूँ सर-ए-आम आग में ज़िंदा डुबाया गया मुझे

मैं प्यासा मुसाफिर था मुझे गले की प्यास बुझानी थी
छोटी सी जरुरत पर भी घूँट लहू का पिलाया गया मुझे

हाँ! फटे लिबास में ही सही मगर ढँकी तो थी मेरी आबरू
किस जुर्म में बे-आबरू कर सर-ए-आम घुमाया गया मुझे

मैं ज़िंदा था तो सारा ज़माना पैर से ठोकर मारता था "धरम"
औ" मर गया तो कंधे पर उठाकर कब्र में लिटाया गया मुझे 

Friday 4 September 2015

दिशाहीन रिश्ता

दिशाहीन पनपता रिश्ता
एक मजबूत आधार की तलाश में
हर रोज सिसकता है
अँधेरे में तलाशता है राह
मगर किसी अनजाने डर से
सिकुड़कर छुप जाता है
नेपथ्य से आती ध्वनि सुनकर

रिश्ते में उपजे खोखलेपन को
गर्म रेत से भरता है
इस उम्मीद में शायद
कि रिश्ते में कुछ गर्माहट आ जाए
मगर उस रेत की गर्मी से तो
रिश्ते में फफोले आने लगते हैं

रिश्ते में उपजे सन्नाटे से
जब कभी चुप्पी अट्टहास करता है
जहन में उठने लगतीं हैं सुनामी लहरें
बदन काँपने लगता है
अश्क़ और लहू के मिश्रण से
मानसपटल पर एक चेहरा
उभरने लगता है
मुस्कुराते दिल में सुराख करते
एक ओर से दूसरी ओर निकल जाता है

दिशाहीन रिश्ते को जब भी छूना चाहा
चेहरा जल उठा
पाँव फिसला
हाथ कपकपाया
और वक़्त की मार से दिल पर
ज़ख्मों का गाढ़ा निशाँ उग आया  

Tuesday 1 September 2015

रुला देती है

उम्मीद हरेक चेहरे पर दूसरा चेहरा चढ़ा देती है
ख़ुशी देती है और फिर ज़ख्म देकर रुला देती है

न जाने ज़माने में इंसानियत का ये कैसा रोग है
जो इन्सां का दर्द बांटकर उसे और भी बढ़ा देता है

यहाँ तो एक ही ज़ुर्म पर सजा अलग-अलग होती है
ये कैसा इन्साफ है जो बुझी आग को भी हवा देता है

अब मुख़्तसर सी ज़िंदगी में ख़ुदा की बख़्शी दोस्ती भी
एक दोस्त की रुस्वाई पर दूसरे दोस्त को मज़ा देती है

Monday 17 August 2015

दूसरा बेचारा ही नहीं

वो डूबने के डर से दरिया-ए-इश्क़ में उतरा ही नहीं
जो समंदर उसके घर आया तो वो भी ठहरा ही नहीं

मोहब्बत में जीत से ज्यादा शिकस्त ख़ुशी देती है
मगर उस बेवफा को कोई शिकस्त गंवारा ही नहीं

उसके इंतज़ार में नज़र बिछा दी जवानी भी गुज़ार दी  
मगर उसके तरफ से तो अब तक कोई इशारा ही नहीं

"धरम" दिल का राख सीने पर मलकर घूमता है दर-बदर
ज़माने में अब तो उसके जैसा कोई दूसरा बेचारा ही नहीं 

Thursday 13 August 2015

रिश्ते को जलाएँ

चलो आज रिश्ते को जलाएँ
ताप लें
दिल की ठिठुरन को ख़त्म करें
साँसें गर्म निकलेंगी

जब से तुमने तौला है
मेरे जज़्बातों को
तुम हल्का महसूस कर रही हो
और मैं भारी

कितने अनकहे शब्दों के ज़ख्म
मेरे बदन पर अब भी है
टीस मारते हैं
मैं कपड़ों से ज़ख्म छुपाता हूँ

अपने चिरकाल ख़ामोशी से पहले
मैं एकबार जोर से चीखा था
गले में खून उतर आया था
छींटें तुम्हारे बदन पर भी पड़े थे

मेरे नज़्म को तुमने गाड़ दिया था
अपने घर के एक कोने में
अब देखो वहां एक पेड़ उग आया है
जिसपर जज़्बात के फल खिलते हैं
जब भी स्नेह की पत्तियां झड़ जातीं है
मैं अपने लहू से सींच देता हूँ
नई पत्तियां उग आती हैं

Sunday 9 August 2015

क्यूँ नहीं लेता

वो ग़र दरिया है तो बहकर इधर क्यूँ नहीं आता  
औ" यदि कतरा है तो सूख ही क्यूँ नहीं जाता

हम कब से लगाए बैठे हैं एक उम्मीद मिलन की
वो सब ओर तो जाता है मेरी ओर क्यूँ नहीं आता

तेरी जवानी गई तो महफ़िल-ए-रौनक भी चली गई
ये बुझे हुस्न का भूत है अब उतर ही क्यूँ नहीं जाता

ज़हर ज़िंदगी का उतर गया औ" जिस्म ठंढा भी हो गया
अब मौत मुझे "धरम" अपने आगोश में क्यूँ नहीं लेता 

Monday 3 August 2015

चंद शेर

1.

जब भी डूबा हूँ दरिया-ए-हुस्न में किनारा नहीं मिला
बाँहों से बाहें कई बार मिली मगर सहारा नहीं मिला 

Friday 10 July 2015

तो फिर रिहाई भी हो

मोहब्बत अगर कैद हो तो इससे फिर रिहाई भी हो
ताल्लुक़ात हद से बढ़ जाये तो फिर जुदाई भी हो

कोई जरुरी नहीं ज़िंदगी हमेशा इज़्ज़त से ही गुजरे
खुद को ज़िंदा रखने के लिए थोड़ी जगहंसाई भी हो

इश्क़ का आगाज़ कर अंजाम तक पहुँच ही नहीं पाते
एक ज़ख्म खाने के बाद ज़ख्मों से आशनाई भी हो

बाजार-ए-हुस्न में तुम दामन-ए-पाक लिए फिरते हो
ऐसे जगह में तो "धरम" शहंशाहों की रुस्वाई भी हो 

Friday 3 July 2015

चंद शेर

1.

मेरे टूटे दिल की तस्वीर बनाकर दीवार पर लटका दिया
तुमने अपने बज़्म में मुझे मौत के बाद भी रुस्वा किया

2.

"धरम" आ की मेरे पास अब सिर्फ अन्तिम सांस बाकी है
सारे ज़ख्म मर चुके हैं अब न कोई दूसरी आश बाकी है

3.

हुस्न क्यों आज घबराकर "धरम" इश्क़ की पनाह मांग रहा है
जो कभी सब का प्यारा था वो अब सिर्फ एक निगाह मांग रहा है

4.

एक तो ये बेरंग जवानी और उसपर कितनी याद पुरानी
चुभते हैं तीर ही दिल में जब याद आए वो रुत मस्तानी

5.

जब भी ज़िक्र-ए-इश्क़ होता है दिल उदास होता है
मोहब्बत का एक-एक ज़ख्म दिल के पास होता है

Thursday 11 June 2015

अपना जिस्म माप लो

तुम अपने सारे ख्वाब समेट कर मेरे पहलू में रख लो
औ" मेरे साने पे सर रख कर मुझे बाहों में भर लो

ज़माना जरूर हैरत से देखेगा हम दोनों को मगर
बहुत मुख़्तसर ज़िंदगी है इसे मोहब्बत से जी लो  

ठंढी हवा के थपेड़ों में गर्म साँसों की मिलन होगी
औ" दो जिस्म एक हो जाएँगे ऐसी ज़िंदगी जी लो

ज़माना तो जिस्म का मुरीद है मगर मैंने तुझे चाहा
आ के मेरी जाँ कर आलिंगन एक दूसरे के होंठ पी लो

तुमने हमेशा जिस्म में उतरकर मोहब्बत मापी है "धरम"
आज मेरे मोहब्बत में उतरकर तुम अपना जिस्म माप लो 

Sunday 7 June 2015

अनकहे शब्द औ" मचलते ख्वाब

कुछ अनकहे शब्द
जज़्बात से अब भी दबे हैं
दिल में उफान उठ रहा है
स्वांस का प्रवाह सामान्य नहीं
कदम कभी छोटे तो कभी बड़े
मगर बातें जुबाँ पर नहीं आ रही
बस एक हिचकिचाहट है

कुछ मचलते ख्वाब हैं
कभी समंदर से हिलोरे मारते
कभी आसमाँ में स्वच्छंद उड़ान
कभी घर के दरवाजे पर चुपके से दस्तक देते
बस मुस्कुरा कर रह जाते
नज़र झुकाते चल देते मुझसे दूर
उस मुस्कराहट को मुझे अब पढ़ना नहीं आता
वक़्त ने समझदारी की सारी बारीकियां ख़त्म कर दी
अब ये सारे ख्वाब दिल पर बस बोझ हैं

Thursday 4 June 2015

चंद शेर

ज़हर का घूँट ही मेरे मर्ज़ की बस एक दवा थी
मेरे मोहब्बत की मंज़िल "धरम" बस कज़ा थी 

Wednesday 3 June 2015

अपनी तन्हाई की बातें

तुझसे कैसे कह दूँ खुद अपनी तन्हाई की बातें
डर है कहीं हो न जाए ये मेरी रुस्वाई की बातें

ज़माना अब भी मुझे देखता है गैरों की नज़र से
वफ़ा करता हूँ औ" हो जाती है बेवफाई की बातें 

Monday 25 May 2015

कैसा तकाजा है

ज़ख्म कल भी ताजा था औ" आज भी ताजा है
ऐ मौला मेरे साथ वक़्त का ये कैसा तकाजा है

इतनी बड़ी दुनियाँ है यहाँ रोज हज़ारों मरते हैं
मगर मुझे दिखता हर रोज एक ही जनाज़ा है

Sunday 24 May 2015

कोई इरादा न था

उसके वापस आने का कोई इरादा न था
औ" मेरा भी मिलने का कोई वादा न था

फ़ासला अब दोनों के दिल में हो गया था
उसका दिल साफ़ न था मेरा सादा न था

गैरों ने कहा उसे बिछड़ने का गिला न था
मुझे उससे बिछड़ने का ग़म ज्यादा न था

इश्क़ में सजा दोनों को बराबर की मिली थी
मगर ज़ुर्म 'धरम' दोनों का आधा-आधा न था 

Friday 22 May 2015

चंद शेर

1.

मैं अपने हाथों में अभी ज़हर जा जाम लिए बैठा हूँ
ऐ! मौत ठहर जा मैं गर्दिश-ए-अय्याम लिए बैठा हूँ

2.

ये उसके बेरुखी का जायका है मेरे गले से तो उतरता ही नहीं
दिल अभी पूरी तरह से गला नहीं ज़ख्म पूरा दीखता ही नहीं

3.

माशूक़ का जिस्म जलेगा तो तुम्हारा दिल रौशन होगा
तुम्हारे दिल-ए-रौशन का राज़ ज़माने को बता दी जाये  

4.

तुम मुझे अपने पिन्दार-ए-संग की दुहाई न दे "धरम"
मेरा हिज़्र ही बेहतर है डेरे दर्द-ए-दिल की दवा के लिए

5.

हम कब दो जिस्म एक जान थे हमारे सारे रिश्ते "धरम" बेजान थे
वो बस एक झूठी मोहब्बत थी औ" ज़माने में हम मुफ्त बदनाम थे 

Wednesday 20 May 2015

ज़माने को सुना दी जाए

क्यों न मेरे ज़िंदा जिस्म में आग लगा दी जाए
ग़र इससे बुझे तेरी प्यास तो प्यास बुझा दी जाए

माशूक़ का जिस्म जलेगा तो तुम्हारा दिल रौशन होगा
तुम्हारे दिल-ए-रौशन की खबर ज़माने को बता दी जाए

माशूक़ की मुफलिसी पर उसे बस दरकिनार कर देना
तुम्हारे दरियादिली की कहानी ज़माने को सुना दी जाए

गैरों को ज़लील करना तेरे ज़िंदगी का मकशद हो गया है  
तुम्हारी मोहब्बत के हरेक किस्से ज़माने को सुना दी जाए 

Saturday 16 May 2015

मैं बैठा हूँ

मैं खुद अपने आप में सिमट कर बैठा हूँ
खुद अपने ही दामन से लिपटकर बैठा हूँ

ज़िक्र-ए-इश्क़ का अल्फ़ाज़ भी भारी लगता है
अपने साँसों को गले में अटकाए बैठा हूँ

मेरी मोहब्बत मेरा इश्क़ औ" इतना हुस्न
एक तस्वीर बस दीवार पर लगाये बैठा हूँ  

Friday 15 May 2015

चंद शेर

1.

हक़ीकत के कन्धों पर मेरे ख्वाइशों का जनाज़ा है
और वो कब्रगाह महज चंद कदमों के फासले पर है

2.

मुझे ऐतवार का सिला सिर्फ ज़ख्म से मिला
औ" सुकूँ भी नहीं किसी के बज़्म में मिला

3.

इस कस्ती को अब यहाँ न कोई किनारा नसीब है
भीड़ में तो सब दोस्त हैं मगर कहाँ कोई करीब है

4.

उन टुकड़ों में मिले ज़ख्मों का अंदाज़ बड़ा नायब था
मानो एक ख्वाब के बाद जैसा कोई दूसरा ख्वाब था

5.

अपने सीने में खुद ही आग लगाये बैठे हैं
कैसे लोग हैं खुद को अंदर से जलाये बैठे हैं

Saturday 9 May 2015

तो क्या होता

ग़र ये दर्द न मिला होता तो मेरा क्या होता
यकीं मानिए मेरा हाल कुछ और बुरा होता

ग़र मुझको इश्क़ हो गया होता तो मेरा क्या
यक़ीनन मुझसे वहां का हर सख़्श ख़फ़ा होता

वफ़ा का रोग ग़र उसको हो जाता तो क्या होता
यक़ीनन तब वहां न फिर कोई दूसरा ख़ुदा होता

ग़र बज़्म में उस बेवफा का ज़िक्र होता तो क्या होता
पुराने मय का नशा "धरम " सबको कुछ और चढ़ा होता 

Monday 4 May 2015

ये कहाँ हम पड़ गए

चंद सिक्के जो ख्वाब के थे वो अब कम पड़ गए
सोच के क्या रखा था और ये कहाँ अब हम पड़ गए

मैं जब चला था मेरे साथ एक सैलाब उमड़ आया था
अब कारवाँ बहुत दूर निकल गया है पीछे हम पड़ गए

इन्सां और बुत में मुझे अब फर्क महसूस नहीं होता
मेरे दामन में न जाने ये किस किस के ग़म पड़ गए

मैं इस बात से बेखबर था कि दिल मेरा धड़कता भी है
अब जो टूट गया है तो क्यूँ इसे जोड़ने हम पड़ गए

सिलसिला जब से ख़त्म हुआ दीदार-ए-नज़र का "धरम"
अब तो मुझे मिलने वाले उसके ज़ख्म भी कम पड़ गए


Saturday 2 May 2015

मैंने तुमको थाम लिया

हरेक बार गिरने से पहले मैंने तुमको थाम लिया
खुद अपने सर तेरे सारे गुनाहों का इल्ज़ाम लिया

अकीदत भरे अल्फ़ाज़ से सिर्फ मैंने तेरा नाम लिया
उस बज़्म में तो हरेक ने बस तुमको बदनाम किया

भूली-बिसरी यादों को लिखकर मैंने तुमको पैगाम दिया
एक-एक हर्फ़ को झुठलाकर तुमने मुझपर इल्ज़ाम दिया

तोड़कर मुझसे अपना वादा तुमने यह कैसा काम किया
मेरे ही बज़्म में मोहब्बत को रुस्वा तुमने सरेआम किया

कि झटककर साक़ी के हाथों से जो तुमने मेरा ज़ाम लिया
मुद्दतों बाद जो मिली थी मुझको तुमने वो भी शाम लिया

हैरत है मुझको कि तुमने तन्हाई से डरने का न नाम लिया
हर मोहब्बत को ठुकराकर "धरम" उल्टा बस बदनाम किया  

Friday 24 April 2015

अब हम तुम्हारे यार निकले

अब ढल गई जवानी तो हम तुम्हारे यार निकले
पहले तो हम बस खूबान-ए-दिल आज़ार निकले

अब मेरे ही चेहरे में तेरा वो रू-ए-निगार निकले
पहले तो हम बस बेजां पत्थर के दीवार निकले

पड़ा है वक़्त तो अब हम तुम्हारे ग़मख्वार निकले
पहले तो हम बस तेरे रास्ते का एक ख़ार निकले

अब क्यूँ तुम "धरम" मेरे इश्क़ के बीमार निकले
पहले निकले तो कुटिल मुस्कान की कटार निकले

खूबान-ए-दिल आज़ार : दिल दुखने वाला हासीन
रू-ए-निगार : माशूक़ का चेहरा
ग़मख्वार : हमदर्द
ख़ार : काँटा 

Tuesday 21 April 2015

अब भी बाकी है

उसके जिस्म में थोड़ा ज़हर अब भी बाकी है
हम मुफलिसों पर थोड़ा क़हर अब भी बाकी है

यूँ तो गर्दिश-ए-अय्याम सब कुछ उड़ा ले गया
हमपर उसके ज़ुल्म का सफर अब भी बाकी है

उसके ज़ख्मों से पूरा बदन छलनी हो गया है
उसकी खाक करने वाली नज़र अब भी बाकी है

उसके लगाये आग से मेरी झोपडी तो जल चुकी है
मेरा ज़िंदा जिस्म जलने का मंज़र अब भी बाकी है

यूँ तो उसकी नज़र ने बस्ती हलाल कर दी थी
मगर मुर्दों के जलने का खबर अब भी बाकी है

Thursday 16 April 2015

कभी इठलाया भी करो

मेरे ज़ख्मों को तुम कभी सहलाया भी करो
औ" दुखते मन को कभी बहलाया भी करो

यहाँ हज़ारों बीमार हैं एक तेरे ही इश्क़ में
खुद अपने आप को कभी बतलाया भी करो

ज़माना कहता है कि तुमको मुझसे नफरत है
इस बात को तुम बस कभी झुठलाया भी करो

मैं तन्हा हूँ ज़माना मुझे हिकारत से देखता है
तुम मेरे बाहों में आकर कभी इठलाया भी करो 

Sunday 12 April 2015

चंद शेर

1.

एक बार फिर नए ज़ख्म से वही पुराना रिश्ता निकला
मेरे दोस्त से मेरा फिर वही रक़ीब का वास्ता निकला


2.

मुद्दतों उदास था की एक शाम ख़ुशी मिली
वक़्त की पावंद थी सुबह ही निकल गई

3.

तेरे आरज़ू का क़ाफ़िला तेरे ज़ख्मों का वो सिलसिला
तेरी ज़ुस्तजू ने मुझको फ़क़त दिया है कुछ ऐसा सिला 

Friday 10 April 2015

पुराना ज़ख्म

गुजरे वक़्त का ये कैसा तकाजा है
वो पुराना ज़ख्म अब भी ताजा है

हरेक याद रिश रहा है इस ज़ख्म से
उसकी यादों का ये कैसा खामियाज़ा है

कहाँ किसी महफ़िल में है वो रौनक-ए-हस्ती
बिना उसके तो हरेक अंजुमन अब बेमज़ा है

"धरम" मेरी नज़रों को ये कैसा धोखा हो रहा है
कि जिधर भी देखूं दिखता मेरा ही जनाज़ा है


Saturday 4 April 2015

चंद शेर


1.
अपना ज़ख्म सहलाता हूँ खुद से रुबरू हो जाता हूँ
गर मिले ख़ुशी तो खुद से फ़ासले पर हो जाता हूँ

2.
ये मेरे अपने ज़ख्म हैं ये मुझे ख़ुशी देते हैं
हसीं चेहरे तो अब बस मुझे बेरुखी देते हैं

3.
सितमगर अगर तुझ सा हो तो कोई परहेज नहीं
दिल काट के गिर जाये फिर भी कोई गुरेज नहीं

4.
इस शहर की ये आवो-हवा मेरे तबियत का नहीं है
तो किसी और का प्यार है मेरे किस्मत का नहीं है

5.
यहाँ अंधेर अब भी कायम है मगर चिराग जल रहा है
मुफलिसी पेवस्त है ज़िंदगी में मगर ख्वाब पल रहा है

6.
मेरे हरेक शिकस्त पर उसका अंदाज़-ए-लुत्फ़ गज़ब था
महज़ एक ही जीत उसके सैलाब-ए-गिरिया का सबब था


Wednesday 1 April 2015

ऐसा क्यूँ है

यहाँ हवा में आज इतनी घुटन क्यूँ है
हरेक चेहरे पर एक अजीब शिकन क्यूँ है

किसके मुट्ठी में क़ैद है हम सब की ज़िंदगी
यहाँ आज सब के बदन पर क़फन क्यूँ हैं

किस डर से झुकी है नज़र औ" सिले हैं होंठ  
सीने में खुद अपनी ही आवाज़ दफ़न क्यूँ है

सांस ठंढी पड़ चुकी है लहू भी पानी हो चला है
मगर फिर भी बदन में ये अजीब तपन क्यूँ है

इस बस्ती को तो कितनों ने उजाड़ा है "धरम"
मगर हरेक दाग बस हमारे ही दामन क्यूँ है

Monday 30 March 2015

पूछ लेता हूँ

अब मिल ही गए हो तो हाल पूछ लेता हूँ
तुमसे वो वर्षों पुराना सवाल पूछ लेता हूँ

दोनों जिस्म एक थे सासें तेज चल रही थी
तुमसे वो पुराने इश्क़ का ख्याल पूछ लेता हूँ

दिल की गहराई की अंदाजा तुम्हें तब तो न था
जो ढल गया है हुस्न तो ये मलाल पूछ लेता हूँ 

Friday 27 March 2015

और भी बवाल कर गए

मेरे सवाल पर वो फिर अपना सवाल कर गए
मेरे कटे जिस्म को वो फिर से हलाल कर गए

गर्दिश-ए-दौराँ से थककर बस घर लौटा ही था  
कि वो आकर मुझे तो और भी बेहाल कर गए

यूँ तो मेरा अपना ग़म-ए-ज़ीस्त कुछ कम न था
वो आकर तो मेरा जीना और भी मुहाल कर गए

ज़माने ने तो मुझे सिर्फ ज़ख्म ही दिए थे "धरम"
छिड़ककर नमक उसपर वो और भी बवाल कर गए

Tuesday 17 March 2015

चंद शेर

1.
वो एक खुमारी थी उतर गई अब होश में हूँ
ज़िंदगी तू  दूर चला जा मैं पुराने जोश में हूँ

2.
मुद्दतों बाद उस ख्वाब को नज़र भर देखा भी दिल में उतरा भी
आज सुकूँ लौट कर मेरे पहलू में आया भी सर रखकर सोया भी

3.
ज़माना हँस देता है मेरे हर अक़ीदत के बात पर
मेरे ख्वाइशों को वो रखता है सिर्फ अपने लात पर

जो बुलंदी है तो सब का हाथ होता है मेरे हाथ पर
औ" मुफलिसी में छोड़ देता है खुद अपने हालात पर

Monday 9 March 2015

ऐसा होने लगता है

जब भी कभी ज़ख्म-ए-दिल दुखने लगता है
लब पे आह होती है औ" सीना जलने लगता है

उम्मीद कहाँ है अब कि वो फिर लौट के आए
पौ फटता नहीं कि फिर अँधेरा घिरने लगता है

बेवाक़ मोहब्बत बेआबरू होकर नाचता है यहाँ
एक चिलमन गिरता है तो दूसरा उठने लगता है

मैं फ़क़त दिल का शहज़ादा था मेरी क्या मुराद थी
मुद्रा हर जगह मुफलिसी पर भारी पड़ने लगता है

आंधी में ये उम्मीद का दीपक कब तलक जलेगा
जो हवा के बस एक झोंके से ही बुझने लगता है

Monday 2 March 2015

ज़ख्म बढ़ता भी नहीं घटता भी नहीं

दिल दुखता भी नहीं सुलगता भी नहीं
अश्क़ बहता भी नहीं सूखता भी नहीं

ये कैसा अरमाँ पल रहा है मेरे दिल में
कि ज़ख्म बढ़ता भी नहीं घटता भी नहीं

मेरे नक़ाब-ए-इश्क़ का हश्र कुछ ये हो गया है
कि अब तो ये उतरता भी नहीं चढ़ता भी नहीं

इश्क़ का चिराग इस मोड़ पर आ गया है "धरम"
कि अब तो ये जलता भी नहीं बुझता भी नहीं  

बिफर रहा है

उसके आने की खबर जब से फैली है
हरेक चेहरा इस शहर में संवर रहा है

हुस्न का दरिया मेरे दर पर जो ठहर रहा है
बरसाके खुशबू मौसम भी अब निखर रहा है

सब का चेहरा उसके चेहरे पर टिका हुआ है
हर कोई किसी को पहचानने से मुकर रहा है

कि लुटा के दौलत एक अजनबी पर "धरम"
हरेक शख्स अब तो यहाँ पर बिफर रहा है

Thursday 26 February 2015

हुंकार

करतब करता बोल गया सिंघासन फिर से डोलेगा
जिसको तू मुर्दा समझे है वो अब फिर से बोलेगा

है नाद समय का सुन ले तुम पग अब तो तेरा उखड़ेगा
हर ओर उठेगा हाहाकार विकराल काल मुख खोलेगा  



Wednesday 25 February 2015

बीते अब ज़माना हो गया

मेरी मोहब्बत का किस्सा पुराना हो गया
जो अपना था वो कब का बेगाना हो गया

निगाहें मिलती थी आखों से पी लेता था
इन बातों को बीते अब ज़माना हो गया

इश्क़ दो रूहों का मिलन हुआ करता था कभी  
मोहब्बत का अब तो अलग पैमाना हो गया

जो कभी दिल में झांककर देखा करता था
वो अब तो पैसा देखकर दीवाना हो गया

देकर बाँहों में बाहें जो कभी घूमा करता था
आज मिला तो बस उलटे पांव रवाना हो गया

जहाँ हर रोज प्यार का मौसम हुआ करता था
वो बुलंद ईमारत तो कब का वीराना हो गया

उसके दिल को जब कुरेद कर देखा "धरम"
पता चला वहां तो अब कब्रखाना हो गया 

Monday 23 February 2015

वो तेरा मेरा ख्वाब ...

आओ दोनों मिलकर अपने सपनों को रंग दें
तुम मेरे ख्वाब सजा दो और मैं तेरे सँवार दूँ
लिखकर दिलपर नाम तुम मुझे निखार दो
देकर गलबाहीं मुझे तुम भरपूर प्यार दो

बिना मेरे तुम और बिना तुम मेरे बस शून्य है
अकेले-अकेले में किसी का कोई वज़ूद नहीं है
मिलन सिर्फ दो जिस्मों तक सिमट नहीं सकता
दो रूहों का एकाकार होता है यह अद्भुत मिलन
कितना प्राकृतिक कितना आनंददायक कितना सुन्दर

इस रिश्ते में गिरह का कोई वज़ूद नहीं है
बस प्रेम का लेन-देन है कोई मूल-सूद नहीं है
हाँ मगर ये रिश्ता मुकम्मल तब होगा
जब अपने अक्स में मैं तुम्हारा चेहरा ढूंढ लूंगा

जीवन की सीढ़ी पर कदम साथ-साथ चलेंगे
न कभी तुम आगे होगे न कभी मैं पीछे होऊंगा
मंज़िल पर भी कदम साथ ही पड़ेंगे

तुम्हारी सफलता मुझसे कहाँ भिन्न है
सीढ़ी एक ही है रास्ता भी एक ही है
दूर चमकता सूरज भी तो एक ही है

जो हम साथ है तो मिलकर उठेंगे हाथ चार
मगर उन्नति के पथ पर होंगे सिर्फ एक विचार
मिलकर सहेंगे दृढ कदम कर हर प्रहार
तुम मुझसे कर और मैं तुझसे करूँ यह करार

तेरे जीवन का जो रूखापन है उसे मैं अब पी लेता हूँ
ये बहुत कड़वा स्वाद है मगर फिर भी जी लेता हूँ
इरादा अटल है अब दुखों का समंदर लाँघ ही लूंगा
बांध समंदर पर एकबार फिर बांध ही लूंगा

मेरे सपनो के आँगन में नाचता है तेरा ख्वाब
लुटाता है मुझपर वह खुशियां बेहिसाब
हर रोज मिलने का अंदाज़ होता है नायाब
मगर जब भी मिलता है तो मिलता है बेहिजाब

वो तेरा मेरा ख्वाब ...

Saturday 21 February 2015

सुपुर्द-ए-ख़ाक कर गया

वक़्त दिल में अनगिनत सुराख़ कर गया
इंसानियत के रिश्ते को नापाक कर गया

हरेक अरमाँ को जलाकर राख कर गया
औ" मेरे रूह को सुपुर्द-ए-ख़ाक कर गया

मुझसे दिल भर गया तो इख़्लाक़ कर गया
खुद भी रोया और मुझे भी बेवाक कर गया


Tuesday 17 February 2015

दर्द छुपाए बैठा हूँ

तेरे उम्मीद से ज्यादा मैं दर्द छुपाए बैठा हूँ
खुद अपने सीने में अपना दिल दबाए बैठा हूँ

तुमने जो मेरे जिस्म के कई टुकड़े किये थे
अपने ज़िस्म का वो हरेक टुकड़ा लुटाए बैठा हूँ

तेरे ज़ख्मों से जो लहू का दरिया निकल आया था
वो आखों का लहू तिश्नकामों को पिलाए बैठा हूँ

Saturday 14 February 2015

आहिस्ते से

कब दिल में दस्तक दे गया वो आहिस्ते से
अजनबी शहर में मिला था जिस फ़रिश्ते से

वीरानी अब दूर तक दिल में दिखती नहीं है
पता नहीं कब निकल गई वो किस रस्ते से

पहले कभी मिलता था तो नज़र चुरा लेता था
अब मिलता है तो सलाम करता है गुलदस्ते से

जो आँखें चार हुई तो दिल में उतारा भी गया
मिल गई मोहब्बत की मिल्कियत सस्ते से

ये मेरी मोहब्बत नहीं है तो और क्या है "धरम"
वो जो जा रहा था लौट के आ गया फिर रस्ते से 

Sunday 8 February 2015

खुद एक सवाल हो गए

तेरे इश्क़ में न जाने कितने हलाल हो गए
जो बच गए थे वो ज़िंदगी से बेहाल हो गए

रुस्वाई इस कदर सर चढ़ कर बोलने लगी
पहले ही कदम पर गिरे और निढाल हो गए

तुझको पाने ही तमन्ना बस धरी ही रह गई
हाँ मगर तेरे ज़ख्म से हम मालामाल हो गए

दर औ' दीवार से मेरी सारी तस्वीर हटा दी गई
हम तो अब महज एक भूला सा ख्याल हो गए

अब न तो तुम दोस्त ठहरे न दुश्मनी ही रह गई
तुम ऐसे टूटे कि बेताल्लुक़ात के मिशाल हो गए

ज़माने के रिश्तों से "धरम" इतने बेफिक्र हो गए
कि अब खुद तुम अपने आप में एक सवाल हो गए

Wednesday 4 February 2015

गिला अब भी है

दीवार गिरा दी गई है मगर वो फ़ासला अब भी है
जिस्म मिल रहे हैं मगर दिल में गिला अब भी है

Monday 2 February 2015

चंद शेर

1.

अब खुद पे ज़ुल्म और तुमपे इन्साफ करता हूँ
तेरी मज़बूरी पर मैं अपना खून माफ़ करता हूँ

2.

अब तो हर रोज मरता हूँ और जी भी लेता हूँ
अपने सीने का लहू निकालता हूँ पी भी लेता हूँ

3.

इन्साफ के तराजू पर पलड़ा किसका भारी है
जिसका कद ऊँचा है तराजू उसका आभारी है

4.

तेरे अंदाज़-ए-मोहब्बत के तो हम कायल हो गए
तुमने ज़ख्म दिए भी नहीं औ" हम घायल हो गए

Monday 26 January 2015

तेरा नक्श-ए-दिल

तेरे इश्क़ के जज़्बे को सलाम करता हूँ
मैं आज ये एलान-ए-आवाम करता हूँ

खुद्दारी मुझमे भी जगी है तुमको देखकर
मैं खुद को तेरे हुस्न का ग़ुलाम करता हूँ

मेरे सीने पर तेरा नक्श-ए-दिल अब भी है
बस छूकर उसे मैं याद-ए-तमाम करता हूँ

मुमकिन है वो हमें कभी भुला भी दे "धरम"
मगर मैं ये शेर उसके याद-ए-कलाम करता हूँ



Saturday 24 January 2015

ज़ख्म दिखाया नहीं करते

इसे रहने दो ये पुराना ज़ख्म है इसे कुरेदा नहीं करते
दिल को टुकड़ों में बिखेरकर फिर से जोड़ा नहीं करते

तेरे दरिया-ए-हुस्न से मैं हर बार तिश्नकाम लौटा हूँ
उसकी नुमाइश करके मेरी प्यास बढ़ाया नहीं करते

फूल में काँटे पिरोने का इल्म तुमने बहुत खूब सीखा है
बस चुभोकर सीने में कील दूसरों को तड़पाया नहीं करते

अपने सीने के लहू का तुम भरे बाज़ार मोल-भाव करते हो
हम तो वो हैं "धरम" जो अपना ज़ख्म दिखाया नहीं करते

Saturday 17 January 2015

कितने मिटे

कई पगड़ी झुके और कई सर भी कटे
एक तेरे इश्क़ में न जाने कितने मिटे

तेरे आने की खबर से जो ये शहर सजे
न जाने कितने दरख़्त अपनी जमीं से कटे 

Thursday 15 January 2015

ज़िंदगी की मुश्किलें

ज़िंदगी से शिकस्त भी खाया है ज़माने ने सिखाया भी है
गैरों से जो नामुमकिन था उसे अपनों ने दिखाया भी है

ज़िंदगी की तमाम शोहरतें अपने हाथों से मिटाया भी है
कोरे कागज़ पर गुमनामी खुद किस्मत ने लिखाया भी है

गैरों की सरजमीं पर इश्क़ का मकाँ मैंने बनाया भी है
मेरे हरेक रक़ीब ने तो उसका एक-एक ईंट लुटाया भी है

ताउम्र प्यासा रखकर बुढ़ापे में खून का घूँट पिलाया भी है
ज़िंदगी के हरेक लम्हे को कुरेदकर उसने मुझे रुलाया भी है

अपने मुहब्बत की याद में मैंने उसका एक बुत लगाया भी है
ज़माने के नज़र से अपने ही बुत को खुद उसने चुराया भी है

पत्थर से दिल में मैंने "धरम" जज़्बात भरा रिश्ता उगाया भी है
उसने रिश्ते को दफनाकर ज़िंदगी की मुश्किलों को बताया भी है 

Wednesday 7 January 2015

हो जाने दो

बांह पसारो मुझे अपने आगोश में ले लो
दो मुट्ठी लम्हा तुम मुझे मदहोश के दे दो

धड़कन को धड़कन से मिलकर जवाँ होने दो
मोहब्बत को यूँ हीं ख़ामोशी से बयाँ होने दो

किसे पता है जवानी की कब्र कब सज जाए
मगर अभी जो हो रहा है उसे यूँ हो जाने दो

इतने पत्थर अपने सीने में छुपाकर रखे हो
कुछ को तो अब पिघल कर निकल जाने दो

इतने जज़्बातों को तुम दफ़न कर के रखे हो
जो उसमे से कुछ निकले तो निकल जाने दो

बहती हवा की ऊँगली पकड़ो और संग हो चलो
अगर इससे छूटता है ये जहाँ तो छूट जाने दो

Sunday 4 January 2015

कब्र सजाना बाकी है

दिल जल चुका है अब जिस्म जलना बाकी है
मेरे अरमानों का कुछ और मचलना बाकी है

वो पत्थर अभी पूरी तरह से गिरा नहीं है मुझपर
सर कुचला गया है अब जिस्म कुचलना बाकी है

मेरे आँख के लहू का दरिया है जो तेरे शहर तक फैला है  
गैर तो इससे निकल चुके हैं तुम्हारा निकलना बाकी है

तेरी वो दरियादिली और मेरा ये ज़ख्म-ए-दिल "धरम"
महफ़िल कई बार सज चुकी है अब कब्र सजाना बाकी है

चंद शेर

1.

चीरकर अपना सीना वो लम्हा निकाल फेंकूँ
कि अब तो मैं सुकूँ पाऊँ ज़िंदगी आसाँ बनाऊँ

2.

उसका सितम मुझपर करम बनकर बरस पड़ा
मुझे अब यकीं है पत्थर में कोई ख़ुदा बसता है

3.

हवस यूँ ही बे-पर्दा होकर नाचता है सड़क पर
इश्क़ परदे में जवाँ है इज्ज़त से रहता भी है