Friday 23 November 2018

बे-वफ़ा औ" बे-ईमान बनकर मिलेंगे

कभी तो हम  यार थे  मगर अब जो मिलेंगे तो अनजान बनकर मिलेंगे
एक ही  ज़िस्म में क्यूँ न रहें  मगर अलग-अलग  जान  बनकर मिलेंगे

न कभी  मैं तेरे पंख लगाकर उड़ूँ  न कभी तुम ही  मेरे ज़िस्म में उतरना
आमने सामने  भी दोनों अब  तो अलग-अलग  पहचान  बनकर मिलेंगे

न तुम मुझे  कभी आँखों से पिलाना  न मैं कभी तेरे रूह  को महसूस करूँ 
ग़र अकेले में भी मिलेंगे  तो दोनों बदन की  साँसें बेजान  बनकर मिलेंगे

महज़ रिश्ता के मरने से  सिर्फ नजदीकी ही घटती है फ़ासला नहीं बढ़ता 
अब जो हम दोनों मिलेंगे 'धरम' तो बे-वफ़ा औ" बे-ईमान बनकर मिलेंगे 

Monday 12 November 2018

चंद शेर

1.
उससे हर मुलाक़ात के बाद ख़ाक सहरा का उड़ाना पड़ता है
कि क्या कहें 'धरम' दिल लगाने के बाद दिल जलाना पड़ता है

2.
वहाँ अब आग जल रही है जहाँ से पहले कभी दरिया निकलता था
वहाँ अब सिर्फ खाई है "धरम" जहाँ पहले कभी दिल फिसलता था

3.
कहाँ  कभी नींद आई "धरम" जो उसके  उड़ने का एहसास हो
कोई रिश्ता कभी पनपा ही नहीं तो कैसे कोई दिल के पास हो

4.
चिराग़-ए-दिल से अब कोई रौशनी नहीं होती सिर्फ़ धुआँ निकलता है
ज़िन्दगी ऐसे मुक़ाम पर है "धरम" जो ना तो गुज़रता है न ठहरता है

5.
मुझमें अब कहाँ  कोई रहा "धरम" जो  मुझको जानता हो
वह शख़्स अब तो ज़िंदा भी नहीं जो मुझको पहचानता हो

6.
कि बाद उसके एक बार फिर से ज़िंदगी की एक शुरुवात करनी है
मौत में पेवस्त एक ज़िंदगी से "धरम" फिर से मुलाक़ात करनी है

7.
ग़र बारिश न बची हो "धरम" तो अब आग ही बरसे
बदन की यह प्यास बुझने को अब तो और न तरसे

अपना आक़ा भूल गया

जो जल के  फिर से बुझा  तो बुझने  का  सलीका भूल गया
रौशनी के  दर पर  उपजा अँधेरा  अपना  ईलाका भूल गया

जिसको तराशा  इन्सां बनाया  तालीम दी आसमाँ दिखाया
आज महज़  एक ही बुलंदी  पाई वो  अपना आक़ा भूल गया

दिल-ए-समंदर में  जब भी  हलचल हुई तासीर रूह तक हुई
निगल कर  रूह को  सैलाब ख़ुद अपना ही  ख़ाका भूल गया

दिल मोम था तपिश अपनी थी साथ ज़माना था तो यूँ हुआ 
मोम ख़ुद से  तपकर "धरम" पिघलने  का तरीका भूल गया

Thursday 1 November 2018

चंद शेर

1.
अपनी प्यास का अंदाजा लगाये बिना वह दरिया में उतर गया
दरिया के बहाव में बहकर 'धरम' फिर न जाने वह किधर गया

2.
मेरे दिल में लगी आग 'धरम' किसी दश्त-ए-आग से कम तो न थी
वह आग सबकुछ जला गई दिल में उपजे एक सन्नाटे को छोड़कर

3.
सन्नाटा जब भी जलता है तो न राख़ बनता है न ही ग़ुबार उड़ता है
सिर्फ साँसें सुलगती हैं "धरम" दिल में एक अलग निगार बनता है

4.
ख़ुद अपनी ही लगाई आग को "धरम" क्यूँ बुझाने लगा
वो फिर से मुझे बे-वक़्त मौत की नींद क्यूँ सुलाने लगा

5.
एक ऐसा दिया जले दिल के अंदर "धरम" जिसकी रौशनी से बहार हो
क़रम ऐसा बरसे की दामन भर जाए खुशियों से औ" पूरा हर क़रार हो