Monday 17 August 2015

दूसरा बेचारा ही नहीं

वो डूबने के डर से दरिया-ए-इश्क़ में उतरा ही नहीं
जो समंदर उसके घर आया तो वो भी ठहरा ही नहीं

मोहब्बत में जीत से ज्यादा शिकस्त ख़ुशी देती है
मगर उस बेवफा को कोई शिकस्त गंवारा ही नहीं

उसके इंतज़ार में नज़र बिछा दी जवानी भी गुज़ार दी  
मगर उसके तरफ से तो अब तक कोई इशारा ही नहीं

"धरम" दिल का राख सीने पर मलकर घूमता है दर-बदर
ज़माने में अब तो उसके जैसा कोई दूसरा बेचारा ही नहीं 

Thursday 13 August 2015

रिश्ते को जलाएँ

चलो आज रिश्ते को जलाएँ
ताप लें
दिल की ठिठुरन को ख़त्म करें
साँसें गर्म निकलेंगी

जब से तुमने तौला है
मेरे जज़्बातों को
तुम हल्का महसूस कर रही हो
और मैं भारी

कितने अनकहे शब्दों के ज़ख्म
मेरे बदन पर अब भी है
टीस मारते हैं
मैं कपड़ों से ज़ख्म छुपाता हूँ

अपने चिरकाल ख़ामोशी से पहले
मैं एकबार जोर से चीखा था
गले में खून उतर आया था
छींटें तुम्हारे बदन पर भी पड़े थे

मेरे नज़्म को तुमने गाड़ दिया था
अपने घर के एक कोने में
अब देखो वहां एक पेड़ उग आया है
जिसपर जज़्बात के फल खिलते हैं
जब भी स्नेह की पत्तियां झड़ जातीं है
मैं अपने लहू से सींच देता हूँ
नई पत्तियां उग आती हैं

Sunday 9 August 2015

क्यूँ नहीं लेता

वो ग़र दरिया है तो बहकर इधर क्यूँ नहीं आता  
औ" यदि कतरा है तो सूख ही क्यूँ नहीं जाता

हम कब से लगाए बैठे हैं एक उम्मीद मिलन की
वो सब ओर तो जाता है मेरी ओर क्यूँ नहीं आता

तेरी जवानी गई तो महफ़िल-ए-रौनक भी चली गई
ये बुझे हुस्न का भूत है अब उतर ही क्यूँ नहीं जाता

ज़हर ज़िंदगी का उतर गया औ" जिस्म ठंढा भी हो गया
अब मौत मुझे "धरम" अपने आगोश में क्यूँ नहीं लेता 

Monday 3 August 2015

चंद शेर

1.

जब भी डूबा हूँ दरिया-ए-हुस्न में किनारा नहीं मिला
बाँहों से बाहें कई बार मिली मगर सहारा नहीं मिला