Tuesday 23 April 2024

पहचान अब इल्ज़ाम से होने लगी

हर बात की शुरुआत  यहाँ अंजाम से होने लगी
हर शख़्स की पहचान अब इल्ज़ाम से होने लगी
 
ज़माने में ख़ुलूस-ए-दिल से कहाँ कोई यारी रही 
कि मक्कारों में दोस्ती अब आराम से होने लगी 

क़लम की बात पर पहले  पूरी सियाही गिर गई 
फिर क़लम तोड़ी गई ये चर्चा शाम से होने लगी 

जो तख़्त की हक़ीक़त को बे-आबरू होते देखा  
फिर दिल में नफ़रत हर एहतिराम से होने लगी

वो सुनहरी शाम देखा  फिर फ़िज़ा का रंग देखा   
इसके बाद में घुटन बहार-ए-तमाम से होने लगी
    
तौर-ए-महफ़िल पर 'धरम' तब्सिरा होने के बाद   
हर शायरी की शुरुआत फिर जाम से होने लगी

Tuesday 9 April 2024

कोई निबाह न था

महज़ ख़्वाब का क़त्ल था कोई गुनाह न था  
आँखों के सामने लाश थी कोई गवाह न था 

उम्मीद के उतरते-उतरते रात चढ़ आई थी
लौ को बुझना था कोई जश्न-ए-सियाह न था 

रिश्ते की हक़ीक़त सूखे हुए गुलाब की थी  
हर वस्ल एक आग़ोश था कोई पनाह न था
 
दिल और दिमाग महज़ जिस्म के हिस्से थे   
दोनों को साथ रहना था कोई निबाह न था

ज़मीं सरकने लगी क़दम लड़खड़ाने लगा
अब और सितम ढाने का  कोई राह न था

उम्र भर ख़ुद से फ़ासले पर रहना "धरम"       
एक ख़्वाहिश ही थी  कोई इकराह न था 

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इकराह : मजबूरी, बेचारगी

Thursday 7 March 2024

अब दर्द कहाँ होता है

वो वक़्त अब कहीं नहीं जिसमें ख़याल जवाँ होता है  
दिल ज़ख़्म-ज़ख़्म तो है मगर अब दर्द कहाँ होता है

कमरे में यूँ ही बैठे रहे ख़ामोशी से कुछ गुफ़्तगू की 
कोई सवाल जवाब नहीं मगर एक इम्तिहाँ होता है

एक ही क़ातिल एक ही ख़ंजर एक ही तौर-ए-क़त्ल     
फिर भी हरेक क़त्ल का कोई अलग निशाँ होता है
 
ये कैसी महफ़िल है यहाँ हर क़िरदार बर्फ़-नशीं है
कोई लफ्ज़ निकले तो मंज़र शो'ला-फ़िशाँ होता है

सफ़र में निकले तो मील के पत्थर से रहनुमाई ली
ये ख़बर न थी की रहबर ख़ुद यहाँ गुमरहाँ होता है

उससे गुफ़्तगू की हक़ीक़त "धरम" क्या बयाँ करूँ  
आग़ाज़ जैसा भी हो अंजाम शोर-ए-फ़ुग़ाँ होता है 
      


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शो'ला-फ़िशाँ : आग उगलने वाला
गुमरहाँ : जो अपना रास्ता खो दिया, विकृत व्यक्ति
शोर-ए-फ़ुग़ाँ : विलाप, मातम

Friday 23 February 2024

इश्क़ में शह-मात के पहले

कि मंज़र ऐसा कभी न था इस मुलाक़ात के पहले 
चेहरे पर कोई निशाँ न था  तिरे इस घात के पहले
 
रात को कुछ पता नहीं सुब्ह भी पूरी बे-ख़बर रही
किस शु'ऊर से बुझाई थी आग उस रात के पहले

कि ख़ंजर के नोक पर  हाथ बढ़ाया  दिल मिलाया
अजब तौर-तरीक़ा है  इश्क़ में शह-मात के पहले

रहमत भी बरसती है  तो कोई दाग  छोड़ जाती है    
क़त्ल होते हैं अरमाँ कश्फ़-ओ-करामात के पहले

यह दुनियाँ कैसी  यहाँ कौन ख़ुदा  यहाँ दीन कैसा     
कि घूँट लहू का पीना पड़ता है ज़ियारात के पहले

यह ख़याल किसका है "धरम" ये बातें किसकी हैं  
आँखों में क्यूँ उतर जाता है लहू जज़्बात के पहले    



'अलामत: निशान, चिह्न, छाप
कश्फ़-ओ-करामात: चमत्कार
ज़ियारात: किसी पवित्र स्थान या वस्तु या व्यक्ति को देखने की क्रिया   
जज़्बात : भावनाएँ, ख़यालात, विचार, एहसासात

Friday 2 February 2024

क़लम शाम-ओ-सहर देखे

ऐ! मौला आँखें फिर से  कभी न ये मंज़र देखे 
कि एक अदना सफ़ीने में डूबता समंदर देखे

सहरा से लिपटी ज़मीं आग से लिपटा आसमाँ 
ग़र ख़्वाब भी कुछ देखे तो सिर्फ़ बवंडर देखे 

कि सितम के धागे से बनाए रहमत की चादर 
ओढ़ाकर उसे क्या ख़ूब हर ज़ुल्म-परवर देखे

ये बुलंदी किसकी रहमत है ये ने'मत कैसी है     
पाकर जिसे ख़ुद को वहाँ  ख़ाक-बर-सर देखे

ये कैसे अहल-ए-दानिश हैं ये ता'लीम कैसी है 
लहू उगलता हुआ क़लम शाम-ओ-सहर देखे   

हद-ए-नज़र फैली कैसी तहज़ीब-ए-तमाशा है         
हाथों में "धरम" ख़ंजर लिए 'इज्ज़-गुस्तर देखे  
 
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ज़ुल्म-परवर : अत्याचारी
ने'मत : सम्मान का पद या पदवी
ख़ाक-बर-सर : निराश्रित, बेसहारा
'इज्ज़-गुस्तर : विनती करने वाला 

Sunday 28 January 2024

कभी आतिश-ए-'इश्क़-ए-बला हो न सका

अपने वुजूद का कोई मुकम्मल फ़ैसला हो न सका 
बेचैनी ऐसी थी कि इश्क़ कभी मश्ग़ला हो न सका

नज़ारा हर ख़्वाब के क़त्ल का नज़रों में घूमता रहा 
ज़ेहन में कभी आतिश-ए-'इश्क़-ए-बला हो न सका 

सितम को शबाब हासिल था  गर्दन बस झुकी रही   
औ" ज़ुबान से कभी भी  कोई क़ल्क़ला हो न सका

मुसलसल ख़्वाब ख़याल नज़र सिर्फ़ जलजला रहा  
किसी और फ़र्ज़ के लिए सीने में ख़ला हो न सका

संग को तराशना रूह देना सीने में महफ़ूज़ रखना 
ऐसा वाक़ि'आ है कि इससे कभी भला हो न सका

तिजारत के सारे इल्म-ओ-फ़न बस नाकाम ही रहे 
मोहब्बत कभी "धरम" ख़ुश-मु'आमला हो न सका  


 

मश्ग़ला : शौक़
क़ल्क़ला : बोलना
जलजला : कष्टदायक
ख़ला : ख़ाली जगह
ख़ुश-मु'आमला : लेन देन में अच्छा 

Sunday 14 January 2024

रिश्ते की रा'नाई गई

ये कैसी तपन थी जिसे आग ही से बुझाई गई  
किसकी वफ़ा थी जो सर-ए-'आम लुटाई गई

ज़िंदगी महज कोई नाटक खेल तमाशा जैसा   
बस एक पर्दा गिरा कि पूरी जल्वा-नुमाई गई
 
कि हाल-ए-दिल बयाँ करे भी तो किससे करे
मुलाक़ात जैसी भी हो हमेशा दिलरुबाई गई 
    
रिश्ता ख़ामोशी का था लफ़्ज़ बस इशारा था  
जब भी कोई गुफ़्तगू हुई मानो पा-बजाई गई
 
वो किसका रास्ता था वो किसकी मंज़िल थी 
फ़तह होते ही उस मंज़िल की आशनाई गई
  
ख़ुशी ने तबीयत से जब भी कोई रिश्ता बुना  
चंद कदम में ही 'धरम' रिश्ते की रा'नाई गई
   
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जल्वा-नुमाई : अपने-आप को दिखाना
दिलरुबाई : माशूक़ाना अंदाज़
पा-बजाई : भरपाई
आशनाई : परिचय
रा'नाई : सुंदरता, सौंदर्य