हर बात की शुरुआत यहाँ अंजाम से होने लगी
हर शख़्स की पहचान अब इल्ज़ाम से होने लगी
हर शख़्स की पहचान अब इल्ज़ाम से होने लगी
ज़माने में ख़ुलूस-ए-दिल से कहाँ कोई यारी रही
कि मक्कारों में दोस्ती अब आराम से होने लगी
क़लम की बात पर पहले पूरी सियाही गिर गई
फिर क़लम तोड़ी गई ये चर्चा शाम से होने लगी
जो तख़्त की हक़ीक़त को बे-आबरू होते देखा
फिर दिल में नफ़रत हर एहतिराम से होने लगी
वो सुनहरी शाम देखा फिर फ़िज़ा का रंग देखा
इसके बाद में घुटन बहार-ए-तमाम से होने लगी
तौर-ए-महफ़िल पर 'धरम' तब्सिरा होने के बाद
हर शायरी की शुरुआत फिर जाम से होने लगी