Tuesday 7 May 2019

अब तक न हुआ

कि जब तक  शबाब-ए-हुस्न था  ज़िक्र-ए-इश्क़  तब तक न हुआ
एक आग  सुलगती  रही बदन में रूह  शादाब अब तक न हुआ

जब यार पर  ऐतबार न  किया मज़ार-ए-यार पर सज़दा न किया
ज़माने में  हद-ए-निगाह  तक  कोई भी  अपना अब तक न हुआ

दरम्यां दोनों  रूहों के न  सिर्फ दीवार उठाई  गई  बुलंद भी हुई
बाद दीवार  गिरा  दी गई  मगर हर्ष-ए-विसाल  अब तक न हुआ

हर जंग-ए-ज़िंदगी में न सिर्फ  शिकस्त खाई मिट्टीपलीत भी हुआ
मौत तो क्या  ज़िंदगी के साथ  चलने का साहस अब तक न हुआ

ज़िंदगी के हर आग से आग के रिश्ते को 'धरम' पानी करता रहा 
हाँ मगर उस रिश्ते के पानी को छूने का साहस अब तक न हुआ