Sunday 31 December 2023

चाँदनी फिर मचल जाएगी

पता न था बज़्म में बात ऐसी भी चल जाएगी  
मायूसी  किसके दर पर पहले-पहल जाएगी
 
ख़ुशी का दामन अब और कितना थामना है 
थोड़ी देर और ठहर की शक्ल बदल जाएगी 

उन्हें गुमाँ है की बुलंदी उनके क़दमों तले है  
यकीं मान वो ज़मीं क़दमों से निकल जाएगी
 
जो रात आज आई है कल फिर वही आएगी
एक ख़बर थी कि चाँदनी फिर मचल जाएगी 

जो वादा था की अब ये मुलाक़ात आख़िरी है 
किसे ख़बर थी कि वो बात फिर टल जाएगी 

दो नज़रों का चिराग़ था रौशनी शबाब पर थी 
यक़ीं न था वो कि बुझने से पहले ढल जाएगी

दुआ की कुछ बात मुँह से निकल गई 'धरम' 
ये ख़याल न था की ज़ुबाँ ऐसे फिसल जाएगी     

Tuesday 26 December 2023

लफ़्ज़ कभी बे-लिबास न हुआ

तबी'अत आबरू में रही  चेहरा भी उदास न हुआ
तल्ख़ियाँ के दौर में लफ़्ज़ कभी बे-लिबास न हुआ

क़ब्र सीने में था मगर जब्र से महफ़ूज़ न रख सका    
दिल में छुपाया था  मगर पुख़्ता इहतिरास न हुआ
 
महज़ वक़्त का तक़ाज़ा था  एक रिश्ता पैदा हुआ  
उम्र भर साथ रहे मगर कभी रम्ज़-शनास न हुआ

उम्र को ता-उम्र तराशना  हमेशा आईना दिखाना  
बाद इस इल्म के भी कभी ज़माना-शनास न हुआ

कि हुस्न जब ढ़लान पर पहुँचा तो अंजुमन में कोई 
इश्क़ की बात न चली मख़्बूत-उल-हवास न हुआ 

कि न तो कोई ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न ही कोई दीन-दारी
कभी ख़ुद की नज़र का भी "धरम" हिरास न हुआ

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इहतिरास: सुरक्षा
रम्ज़-शनास: इशारा समझने वाला 
बद-हवास: तंग 
ज़माना-शनास: समय के अनुकूल काम करनेवाला
मख़्बूत-उल-हवास: जिसके होश-ओ-हवास जाते रहे हों, दीवाना
दीन-दारी: धार्मिकता
हिरास: डर, ख़ौफ़

Wednesday 22 November 2023

हर रंग छुड़ाता रहा

कभी तन्हाई जलाती रही कभी शोर सताता रहा 
कि मंज़र कोई भी हो  दिल हमेशा  दुखाता रहा
   
वो धुआँ कहाँ से उठा  क्यूँ उठा  कुछ पता नहीं
मगर हाँ धुआँ में तैरता  कोई चेहरा छुपाता रहा 

वो बर्क़ न थी हिज़्र के  आबरू एक कहानी थी
राख ज़मीं से उड़ा औ" आसमाँ में समाता रहा

नींद का न आना हरेक ख़्वाब का क़त्ल ही था
फिर मुर्दा आँखें बंद कर ख़ुद को सुलाता रहा

नसीब में था  एक हथेली आसमाँ  चंद सितारे   
फिर वो त'अल्लुक़ उम्र-भर क़र्ज़ चुकाता रहा

हाथों पर चेहरे का हर रंग उभरता रहा "धरम" 
फिर बड़े इल्म-ओ-फ़न से हर रंग छुड़ाता रहा 

Friday 10 November 2023

चेहरा बद-हवास लिए

वो जहाँ में घूमता है ये कैसी वफ़ा की प्यास लिए 
हर शख़्स खड़ा है  चेहरे पर  सादा क़िर्तास लिए
 
न तो कहीं ज़मीं अपनी   न ही कोई 'अर्श अपना
कहाँ निकले किधर जाए  वह चेहरा उदास लिए 

है साफ़ आसमाँ औ" कहीं धूप भी कहीं छाँह भी 
जैसे  निकला हो ख़ुर्शीद   चेहरा बद-हवास लिए

अब अब्र भी बरसे तो लगे कि कोई आग हो जैसे
कि हर रोज़ चिढ़ाती है ज़िंदगी यही एहसास लिए

जब आँखें बंद हुई  तब  कोई ख़्वाब सँवरने लगा 
लगा की कोई बुला रहा हो चेहरा ना-शनास लिए 

हद-ए-नज़र तक "धरम" फैली ये कैसी फ़िज़ा है 
क़तरा दरिया समंदर  सब खड़े है इलफ़ास लिए   
   
 


क़िर्तास: काग़ज़
'अर्श: आकाश, आसमान 
ख़ुर्शीद: सूरज 
बद-हवास: तंग 
अब्र: बादल 
ना-शनास: अजनबी 
इलफ़ास: दरिद्रता, ग़रीबी  

Wednesday 8 November 2023

दिख रहा सीने के आज़ार भी

कुछ रास्ते की ढलान थी  कुछ था तिरा रफ़्तार भी
उस सफ़र में मुसलसल बदलता रहा किरदार भी 

हरेक पैमाना कह रहा  यहाँ अब  कोई वफ़ा नहीं 
इस बज़्म में बैठे हैं  कई बेवफ़ाई के ख़तावार भी 

यूँ तो मौत की पनाह में कभी शक्ल मुरझाई नहीं         
मगर अब चेहरे पर दिख रहा सीने के आज़ार भी 

पहले दिल को लगा की धड़कन ख़ून-बार हो जैसे        
फिर कलेजे को खलने लगा साँसों के अज़हार भी 
   
एक चेहरा नूरानी था ख़ुर्शीद पेशानी पर रौशन था
साथ इसके मौज़ूद था वहाँ  महताब फुज़ूँ-कार भी

तिरा होना जैसे पलकों का  आँखों से रिश्ता बुनना 
क्या की "धरम" छुप के भी रहना औ" नुमूदार भी  



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ख़तावार : जिसपर अपराध सिद्ध हो चुका हो 
ख़ून-बार: ख़ून बरसाने वाला
अज़हार: दीपक जलाना, चिराग़ रौशन करना
फुज़ूँ-कार: उन्नति देने वाला, बढ़ाने वाला, प्रोत्साहक  
नुमूदार: सामने आना

Tuesday 10 October 2023

मगर सालिमन नहीं

तेरी महफ़िल में अब वो 'इल्म-ओ-फ़न नहीं 
नुमाइश-ए-फूल तो है मगर कोई चमन नहीं 

जो मिलाया हाथ तो ताल्लुक़ थम सा गया है 
है तो इश्क़ दोनों तरफ मगर सालिमन नहीं 

कि ज़मीं भी लिपट गई  'अर्श भी समा गया     
उसके तौर-ए-इश्क़ हैं कोई सेहर-फ़न नहीं 

जिसकी कमी से वो शाम एक सुब्ह सी हुई
एक झुलसी हुई नज़र है कोई चितवन नहीं   

उन शर्तों पर मौत तो आसाँ थी ज़िंदगी नहीं 
हर रोज़ ये वाक़ि'आ है कोई साबिक़न नहीं 

आँखों से आँखें यूँ मिली वक़्त भी ठहर गया 
वो दिलकश तो लगा  मगर तबी'अतन नहीं 

अब "धरम" को इस दुनियाँ में खोजना नहीं 
मिले तो एक फ़रेब है कोई हक़ीक़तन नहीं 

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'इल्म-ओ-फ़न: ज्ञान और कला  
चमन: फूलों का बगीचा 
सालिमन: पूरे तौर पर, पूर्णतया
सेहर-फ़न: जादूगरी/तांत्रिक
चितवन: किसी की ओर प्रेमपूर्वक या स्नेहपूर्वक देखने की अवस्था
साबिक़न: पहली दफ़ा
तबी'अतन: मन से
हक़ीक़तन: वातस्व में
 

Monday 25 September 2023

बज़्म बे-नूर नहीं था

दिल से निकला तो था  मगर दूर नहीं था
अलग रहता तो था मगर महजूर नहीं था

बुनियाद इश्क़ की अश्क पर टिकी रही 
अश्क बहता तो था मगर मौफ़ूर नहीं था
 
कुछ भी ख़याल नहीं कि आँखें क्यूँ झुकीं
ये कि दोनों अब  साबिक़-दस्तूर नहीं था

या तो जज़्बात या जुनूँ या अश्क या लहू 
कुछ तो जलता रहा बज़्म बे-नूर नहीं था

ख़्वाब का दरिया औ" ख़याल की कश्ती   
उस सफ़र में कौन था  जो रंजूर नहीं था 

मसअला-ए-दिल है  बस हूँक उठती रहे    
"धरम" ये मुआमला किसे मंज़ूर नहीं था
 

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महजूर: बिछड़ा हुआ
मौफ़ूर: असीमित
साबिक़-दस्तूर: पहले की तरह
बे-नूर: प्रकाश रहित
रंजूर: ग़मगीन
 

Saturday 9 September 2023

कोई बाग़बाँ नहीं दीखता

सितारों के पहले भी  कोई जहाँ नहीं दीखता 
किसी से भी मिलूँ  ये दिल  जवाँ नहीं दीखता
 
ज़ेहन में यूँ आग लगी सहरा भी राख हो गया
दिल में दर्द का अब कोई निशाँ नहीं दीखता

वादों की जो बात चली हर नज़र झुकने लगी
सितम का एक इल्म है  ये कहाँ नहीं दीखता 

इश्क़ दरिया से था मगर हासिल क़तरा हुआ      
अब रिश्ते में कोई ताब-ओ-तवाँ नहीं दीखता 

वो लहू से पैदा हुआ उसे अश्क़ बहा ले गया
कि आँखों में कोई राज़-ए-निहाँ नहीं दीखता

कैसा जश्न-ए-उल्फ़त है  हर चेहरा मायूस है 
बाग़ तो है "धरम" कोई बाग़बाँ नहीं दीखता 



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ताब-ओ-तवाँ: शक्ति, जोर, बल, क़ुव्वत, ताक़त
राज़-ए-निहाँ: वो राज़ जो ज़ाहिर न हुआ हो

Sunday 30 July 2023

कोई माज़ी-शर्ती नहीं

ऐ! आशिक़ी तिरे दम से अब ये ज़िंदगी गुज़रती नहीं 
कि क्यूँ कभी ज़ेहन से वो पैमाना-कशी उतरती नहीं 

सिर्फ़ होठों से ही नहीं कहा आँखों से भी बयाँ किया  
कि ये शक्ल  अब उसके दिल में कभी ठहरती नहीं

तसव्वुर को भी अपने हद का हमेशा यूँ अंदाज़ा रहा 
ख़याल में भी उसकी सूरत  अब कभी उभरती नहीं 

कुछ तो दिन की तपिश तो कुछ वक़्त की आवारगी 
शाम अब किसी भी रात के लिए कभी सँवरती नहीं 

ज़िंदगी हर रोज  एक वरक़ तजुर्बा का जोड़ देती है  
अब यदि साँसें टूटती भी हैं तो  कभी बिखरती नहीं 

वो कैसा इश्क़ था  मोहब्बत के कितने सारे ख़त थे   
हर वरक़ पलटा 'धरम' कहीं कोई माज़ी-शर्ती नहीं 
 

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माज़ी-शर्ती: जिस भूतकाल में शर्त पायी जाय

Monday 26 June 2023

योग

आत्मा का परमात्मा से  मिलन कराता है योग
देता है अलौकिक सुखों को भोगने का संयोग
 
रखता है मन स्वच्छ   तन को करता है निरोग
बुद्धि हमेशा रहे स्थिर भले मिले ही कोई सोग

अपनी इच्छा मन के बस में बिकट है यह रोग 
आत्म संयम वरदान योग का रहते मुक्त लोग 

बड़ा सहज है मन का गिरना मिले जब बिरोग 
देता है बल योग बिरोग में सम्भले उससे लोग

तन के भोगी के लिए सहज नहीं मन का भोग 
योग निरत जन मन का भी  करता है उपभोग

योगी जन के तन से मन का नहीं रहता वियोग   
तन को मन का खूब मिलता रहता है सहयोग 


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सोग : मृतशोक, मातम, मुसीबत, ग़म, रंज
बिरोग : दुःख, मुसीबत, सदमा, जुदाई

Monday 12 June 2023

सारे रंग शहाब के थे

कुछ दवा नींद की थी कुछ दुआ ख़्वाब के थे 
फिर जो खुली आँख तो सारे रंग शहाब के थे

बाज़ार में  ख़ुद को नीलाम करते भी तो कैसे 
हर कोई जानता था शौक़ उसके नवाब के थे

वो जो दिल का नग़्मा था साँसों की ख़ुशबू थी    
सीने में पैवस्त सारे ख़ंजर उसी सिहाब के थे
 
कुछ ख़ता ता'लीमी कुछ हम-ज़ुबानी की थी  
फिर ये क्यूँ ही कहना जुर्म सारे शबाब के थे

हाथों की लकीरें अब पेशानी पर उभर आए
साथ तिरे गुज़रे वक़्त  जज़्बा-ए-बे-ताब के थे
 
हथेली पर चाँद रखना आँखें मिलाना  चूमना 
उल्फ़त के सारे फ़ैसले "धरम" शिताब के थे   
    
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शहाब : गहरा लाल (सुर्ख़) रंग
सिहाब : साथी, मित्र
शबाब : उठती जवानी, तरूणाई, युवाकाल
जज़्बा-ए-बे-ताब : अधीर भावना
शिताब : शीघ्रता किया हुआ
 

Monday 8 May 2023

हमेशा पलटकर आईना रखा

वार जब भी किया  निशाना हमेशा सीना रखा 
मोहब्बत में  'अदावत का 'अजब क़रीना रखा
  
नशा अमीरी  का था क़ातिल का  इल्म भी था      
ग़ुरूर ऐसा की हमेशा पलटकर आईना रखा

जो अपनी मुफ़्लिसी का त'आरुफ़ बयाँ किया            
पहले अपनी पेशानी पर ग़ैरों का पसीना रखा
 
न तो दरिया में उतरने का हुनर न ही आश्नाई  
वो आवारगी ऐसी की पलटकर सफ़ीना रखा

जब से इश्क़ किया कई क़ब्र दफ़्न हैं सीने में   
दिल-ए-क़ब्रिस्ताँ में उलफ़त का दफ़ीना रखा

पूरे बदन पर सिर्फ़ दोस्तों के ख़ंजर के निशाँ 
'धरम' ख़ुद पास अपने ये कैसा ख़ज़ीना रखा 




क़रीना : ढंग, तौर तरीक़ा 
'अदावत : दुश्मनी, वैर, शत्रुता, द्वेष  
सफ़ीना : नौका, नाव, कश्ती, पानी का जहाज़
दफ़ीना : धरती में गड़ा ख़ज़ाना
ख़ज़ीना : खजाना / किसी पदार्थ की बहुतायत मात्रा 

Friday 5 May 2023

ग़ैरों का लहू आज़माना है

सितम का शक्ल जो भी हो  फ़क़त देखते जाना है
तौर-ए-वफ़ा यह है  कि हर ज़ुल्म पर मुस्कुराना है 

जब ख़याल यह है कि कोई रास्ता निकल आना है  
तब बात अपनी कहकर  क्यूँ फ़िर दिल दुखाना है
  
काग़ज़ क़लम रौशनाई का एक 'अजब ज़माना है 
यहाँ ख़ुद की क़लम में  ग़ैरों का लहू आज़माना है 

दीवानों की एक बस्ती है या हिज़्र का अफ़्साना है     
जो भी दीवाना है ख़ुद अपने ही रूह से बेगाना है  

ये एक रूहानी रिश्ता है बड़े अदब से निभाना है  
जिस्म से पहले रूह मर गया अब क्या सुनाना है 

ये महफ़िल हुक्मरानों की है  यहाँ ऐसा फ़साना है   
बतौर-ए-हुनर 'धरम' यहाँ तौर-ए-क़त्ल दिखाना है 

Tuesday 2 May 2023

क़रीब अपने बुलाते रहा

तल्ख़ियाँ कुछ कम न थीं फिर भी नज़र मिलाते रहा
दोनों हद्द-ए-अदब में रहे  दोनों का दिल दुखाते रहा

यूँ एक भी लम्हा साथ उसके कभी बसर हो न सका  
नज़र  ख़्वाब  दिल दिमाग़ सब जिस पर  लुटाते रहा
 
न दोस्त न रक़ीब न साथ उसके अपना चेहरा ही था    
आईने में ख़ुद के शक्ल को क़रीब अपने बुलाते रहा

एक बेचैनी सी छाई रही आँखों में नींद भी आई नहीं    
वक़्त से लिपटा तो न जाने कौन किसको सुलाते रहा

धूप चाँदनी चिराग़  सब से दिल को कुछ बेचैनी रही      
फ़िर ख़ुद अपने परछाँई में जिस्म अपना छुपाते रहा 
   
फ़ैसला-ए-जुदाई भी था  मिलने का एक वादा भी था 
दोनों ही महज़ फ़रेब था "धरम" रात भर सताते रहा   

Thursday 27 April 2023

राह में शजर आया है

दरिया के बीच में किनारा उभर आया है 
थोड़ा सा पानी भी बहकर  इधर आया है 

चेहरा बेरंग था साँसें भी तेज चल रही थी  
सीने का ज़ख्म आईने को नज़र आया है
 
साँसों से निकलकर सीने में दफ़्न था जो 
क्यूँ वह चेहरा चौखट पर दीगर आया है 

रास्ते ज़िंदगी के यूँ  आसाँ तो न थे मगर 
जिधर भी निकला राह में शजर आया है

कैसा दिल-ए-बाग़ है वो बाग़बाँ कैसा है     
फूल खिलते ही  ज़ेहन में शरर आया है 

कि रिश्ता मुकम्मल  हो भी  तो कैसे हो  
हाथ थामते ही  दामन में  ज़रर आया है

बात उसके आने की चली ही थी 'धरम'
सब खोजने लगे की वो किधर आया है
 
 

दीगर : पुनः
ज़ेहन : मन
शरर : अग्निकण
ज़रर : तकलीफ़

Wednesday 19 April 2023

एडिओं तले कुचलता रहा

आँखों में लहू उतरा ही नहीं सिर्फ़ रगों में उबलता रहा  
ज़िंदगी तिरे तपन से  यह जिस्म मुसलसल जलता रहा

नज़र जिधर भी पहुंची सिर्फ़ दो ही नज़ारा मिलता रहा
कहीं तो पानी जमने लगा कहीं तो पत्थर पिघलता रहा 

पहले साँस ने सीने को आग़ोश में लेकर सुकूँ पहनाया
फिर वो साँस औ" सीने का रिश्ता उम्र भर छलता रहा

जब तलवे भर ज़मीं भी न थी सिर्फ़ एडिओं चलता रहा 
तब भी मगर हर चुनौती को एडिओं तले कुचलता रहा

गर्दिश को हासिल-ए-बुलंदी थी वक़्त भी ढ़लान पर था
तब रूह से एक जिस्म निकलकर ग़ुर्बत निगलता रहा 

बात कम सुनने लगा फिर थोड़ी और कम कहने लगा    
फिर हर बात पर ही जाने क्यूँ 'धरम' मन बहलता रहा 


गर्दिश : संकट
ग़ुर्बत : ग़रीबी

Saturday 8 April 2023

ख़ुद को सुलाना पड़ा मुझे

आँखें सिर्फ़ एक बार मिली फिर नज़र झुकाना पड़ा मुझे 
फिर ख़ुद को अपनी रूह में ख़ुद ही में समाना पड़ा मुझे
 
कैसी इश्क़ की बीमारी थी जाने कहाँ तुझ में खो गया था  
ख़ुद अपनी ही महफ़िल में  ख़ुद ही को बुलाना पड़ा मुझे 

उसको यक़ीं-ए-इश्क़ दिलाना  कुछ यूँ आसाँ तो नहीं था 
दिल दिमाग़ तसव्वुर ख़्वाब  सब कुछ दिखाना पड़ा मुझे

कभी रास्ते का भरम रहा  कभी रहबर की मक्कारी रही 
ऐ! मंज़िल-ए-मक़्सूद तुझे हर सफ़र में भुलाना पड़ा मुझे

आँखों में कभी ख़ून न उतरा बदन में कभी आग न लगी 
ता-उम्र कुछ इस तरह से उसका क़र्ज़ चुकाना पड़ा मुझे   
  
जब भी ख़ुद से गुफ़्तगू हुई तो वक़्त ने कभी दस्तक न दी 
फिर बिना नींद के ही "धरम" ख़ुद को सुलाना पड़ा मुझे 


 
मक़्सूद : ख्वाहिश
मक्कारी : फ़रेब
दस्तक : खटखटाना

Tuesday 4 April 2023

दिल कितना दुखाया रहा

आँखों में हमेशा वो कुछ इस तरह समाया रहा  
वो नहीं रहा तो कभी अक्स तो कभी साया रहा

मुड़कर देखना आसान न था बिछड़ने के बाद  
रुख़्सत के बाद भी वो हाथ अपना बढ़ाया रहा
  
ख़्वाब में मिलने का एक अहद किया था कभी 
वो आँखें बंद करके नज़र अपनी बिछाया रहा
 
वा'दा-ख़िलाफ़ी के बाद एक घाव उभर आता   
वो सीने पर हाथ रखकर ज़ख़्म दफ़नाया रहा

वो क़ातिल भी था मसीहा भी था  ख़ुदा भी था 
जब गले लगाया तो दिल कितना दुखाया रहा
  
साथ चला तो एक भीड़ थी कोई कारवाँ न था  
हाथ थाम कर भी 'धरम' हर कोई पराया रहा 

Friday 24 March 2023

आँखों को ज़हराब लगता है

तिरा तुझ सा भी होना  महज़ एक ख़्वाब लगता है
लफ़्ज़-ए-मोहब्बत भी मुसल्लह-इंक़लाब लगता है

हर हुजूम बस एक बहता दरिया है  गुज़र जाता है 
यहाँ न कोई दुश्मन  न ही कोई अहबाब लगता है

क्यूँ दिल ने एक रिश्ता  दिमाग़ से बनाना चाहा था 
जब दोनों एक दूजे को  हमेशा बे-नक़ाब लगता है

कभी हाथ  बढ़ाया ही नहीं  दिल मिलाया  ही नहीं
कैसा शख़्स है  वो फिर भी  एक सिहाब लगता है 
  
एक वरक़ का एक ख़त औ"  सिर्फ़ एक ही लफ़्ज़
माज़ी मौजूदा मुस्तक़बिल सबका जवाब लगता है

'धरम' कोई भी सितम अब नज़र बयां नहीं करता 
अश्क़ हो या हो लहू  आँखों को ज़हराब लगता है 


मुसल्लह-इंक़लाब : ऐसा परिवर्तन जो हथियार बंद लड़ाई के द्वारा आए
अहबाब : मित्र
सोहराब : शक्तिशाली  
दूजे : दूसरे
सिहाब : साथी, मित्र
माज़ी : गुज़रा हुआ
मौजूदा : वर्तमान
मुस्तक़बिल : आने वाला 
ज़हराब : विष घुला हुआ पानी

Wednesday 15 March 2023

चेहरों का दस्ता रखा

दरिया में जब भी उतरा  किनारे से वाबस्ता रखा
मौजों से दिल भी लगाया साँस भी आहिस्ता रखा

जिसे सितम कहा था  वो वक़्त का एक करम था 
ख़ार के जिल्द में ब-तौर ख़त एक गुलदस्ता रखा

इबादत भी किया  मगर कभी कोई ख़ुदा न रखा 
औ" ज़िंदगी की राह में हर कदम बरजस्ता रखा

सिर्फ़ नाम याद रहा चेहरा ख़याल आया ही नहीं
आईने ने भी अक्स हमेशा चेहरों का दस्ता रखा

मोहब्बत में क़त्ल बाक़ी और क़त्ल से अलग था 
ज़िबह के बाद भी  सिर को धड़ से पैवस्ता रखा 

अजब तौर-ए-इश्क़ था सनम था की ज़माना था 
दिल को दिमाग़ से 'धरम' मुसलसल बस्ता रखा      
 

वाबस्ता : आबद्ध (जुड़ाव)
आहिस्ता : धीरे-धीरे
गुलदस्ता : फूलों का गुच्छा  
बरजस्ता : बिना सोचे 
दस्ता : समूह
पैवस्ता : जुड़ा हुआ
बस्ता : बंधा हुआ 

Monday 13 March 2023

कैसा तरीक़ा ईजाद करता है

दरवाज़ा कदमों की आहट से यह याद करता है 
हर रोज़ एक शख़्स यहाँ  क्यूँ फ़रियाद करता है

वो शख़्स तो एक समंदर भी है  एक प्यास भी है 
रोज़ अश्क़ों से उजड़ा गुलशन आबाद करता है

जब चेहरा परदे में रहा दिल सीने के बाहर रहा   
ये दिल ज़माने पर  यूँ इस तरह बेदाद करता है

ख़यालों की दुनियाँ है वो ख़्वाबों का आशिक़ है      
वो शख़्स ख़ुद अपना भी कहाँ मफ़ाद करता है

एक कैसी शाम हुई  दिन फिर कभी न निकला 
ये कैसा इश्क़ है क्यूँ इस तरह रूदाद करता है 

आँखों में लहू उतारता है रगों में पानी बहाता है
'धरम' सुकूँ का ये कैसा तरीक़ा ईजाद करता है 


फ़रियाद : न्याय-याचना
आबाद : ख़ुशहाल
बेदाद : ज़ुल्म
मफ़ाद : भलाई
रूदाद : हाल/कहानी
ईजाद : अविष्कार

Tuesday 7 March 2023

ग़ुर्बत-ए-ग़ुरूर तो नहीं था

सितारों का जहाँ  बहुत दूर तो नहीं था 
ये दिल कभी इतना मजबूर तो नहीं था
 
मैकशी में शरीक होना आँखों से पीना
ये कोई  मयकदा-ए-शऊर तो नहीं था

ग़म में डूबा रहना ग़म की बातें करना 
ये ज़िक्र एक जश्न-ए-सूरूर तो नहीं था 

जाम उठाकर बिना पिये ही  रख देना 
ये गुस्ताख़ी शौक़-ए-हुज़ूर तो नहीं था 

हाथ उठाना औ" कोई दुआ न माँगना
ये ब-तौर-ए-ग़ुर्बत-ए-ग़ुरूर तो नहीं था 
 
हर बात "धरम" दिल पे ही लगती थी       
सीने में दिल  कोई नासूर तो नहीं था 


 
मैकशी : मद्यपान
शऊर : काम करने का ढंग 
सुरूर : मस्ती, हल्का सा नशा
गुस्ताख़ी : अशिष्टता
ब-तौर : के समान
ग़ुर्बत : ग़रीबी
ग़ुरूर : अभिमान
नासूर : एक प्रकार का घाव जो हमेशा रिस्ता रहता है

Sunday 5 March 2023

कभी दूर जाया नहीं जा सकता

कि ये ग़म महज़ एक शाम में  भुलाया नहीं जा सकता  
दिल को यूँ  किसी भी आग में जलाया नहीं जा सकता

अपनी गुस्ताख़ी अपना इंसाफ़ औ"अपनी ही मुंसिफ़ी   
कैसे कहें  ख़ुद पर कभी हाथ उठाया नहीं जा सकता 

ये कभी ना ख़त्म होने वाला सफ़र-ए-दश्त-ए-तारीक़ी
कैसे कह दें  कोई और कदम बढ़ाया नहीं जा सकता

ये तौर-ए-महफ़िल की  बोलने के लिए मजबूर करना
औ" ये हुक्म कि वापस फिर बिठाया नहीं जा सकता

बहार को ये वसूक़ की  रंग-ए-फ़िज़ा क़ायम ही रहेगा 
ख़िज़ाँ को ये मालूम और रंग  उड़ाया नहीं जा सकता

कुछ तो यूँ ही दिल के क़रीबी की ख़ुश-फ़हमी 'धरम'   
एक और ये भरम की कभी दूर जाया नहीं जा सकता 

Sunday 26 February 2023

ईजाद करना पड़ता है

ख़ुद से भी मिलने के लिए कभी फ़रियाद करना पड़ता है 
तन्हा वक़्त काटने के लिए  क्या क्या याद करना पड़ता है

ख़ुद के क़िरदार से यूँ आसाँ नहीं  ख़ुद को  अलग करना  
अपने रूह को  अपने जिस्म से  आज़ाद करना पड़ता है 

ग़म हर दिल में यूँ ही पनाह नहीं लेता सुकूँ से नहीं रहता  
ग़म को पनाह देने के लिए दिल को साद करना पड़ता है 

ख़्वाब में जीना रंज-ओ-ग़म को पीना कुछ आसाँ तो नहीं  
ये हुनर पाने के लिए कितना कुछ बर्बाद करना पड़ता है

कि बाद एक मर्तबा के दूसरे रुतबे की ख़्वाहिश नहीं हो   
इसके लिए  ख़ुद को ख़ुद ही से  फ़साद करना पड़ता है 
  
एक शक्ल दिखानी पड़ती है एक चेहरा छुपाना पड़ता है 
ख़ुद का ही चेहरा 'धरम' ख़ुद को ईजाद करना पड़ता है 

Thursday 23 February 2023

ओढ़ता है कफ़न की तरह

आसाँ नहीं होता जीना एक बिरहमन की तरह  
हर लिबास को जो ओढ़ता है कफ़न की तरह
 
एक चेहरा एक नाम एक शख़्सियत एक काम 
यह ज़मीं आसमाँ है  जिसके नशेमन की तरह
  
ख़ुशी-ग़म आबरू-बेआबरू औ" ज़िंदगी-मौत  
सब साथ रखता है एक मुर्ग़-ए-चमन की तरह

एक नज़र साँसों को चैन दिल को सुकूँ देता है 
औ" ज़बाँ पर आता है वो एक सुख़न की तरह

मुलाक़ात का वक़्त तन्हा होता है गुज़र जाता है  
ख़याल में रहता है वो  अनमोल रतन की तरह 

कि बाद एक मंज़िल के दूसरी मंज़िल "धरम"  
मुसलसल चलता रहता है वो ज़मन की तरह    


नशेमन : निवास स्थल
मुर्ग़-ए-चमन : बाग़ की चिड़िया
सुख़न : शायरी
ज़मन : वक़्त

Monday 20 February 2023

कोई उड़ान न दे सका

इंसाफ़ का तराजू भी कोई इनाम-ए-ईमान न दे सका  
'उरूज हासिल तो हुआ मगर कोई उड़ान न दे सका

ख़ुद से मिला तो चेहरे पर अदब ने ऐसा दस्तक़ दिया    
हादिसों का सिलसिला भी शक्ल-ए-वीरान न दे सका

वो जाना पहचाना अश्क भी जानी पहचानी आँखें भी    
ख़याल में शक्ल उभरा मगर कोई पहचान न दे सका 
 
हर्फ़ से हर्फ़ का जुड़ना औ" फ़ासला रूहों का बढ़ना 
एक भी मुलाक़ात कोई एहसास-ए-अंजान न दे सका 

कि अपने क़त्ल के बाद भी वो मुंसिफ़ तख़्त-नशीं था 
कैसा शख़्स था जो ताज को कोई अरमान न दे सका 

उजड़ा शजर दूर तक वो सन्नाटा बादल में छुपा चाँद     
एक भी लम्हा "धरम" वो ख़ुद को सुनसान न दे सका 

Monday 13 February 2023

अपने चेहरे पर ख़ुशी बहाल करे

जो तुम थक चुके हो तो मंज़िल भी क्यूँ तिरा ख़याल करे
ग़र ख़याल करे भी तो फिर बची ज़िंदगी का ज़वाल करे

बीच का कोई रास्ता नहीं या साथ होना या तो मर जाना
इश्क़ अजीब है  क़रीब जाने का  कोई कैसे मजाल करे 
 
वफ़ाई का न कोई किरदार न कोई चेहरा नज़र आता है 
ये ऐसा मंज़र है ग़र कोई देखे तो आँखों का कलाल करे

मज़लूमों का कोई क़ाफ़िला जब भी तख़्त-नशीं से मिले    
क्या हुक्म है  हर कोई अपने चेहरे पर ख़ुशी बहाल करे

ये उनकी रहम-दिली की मौत इतनी आसान नसीब हुई 
औ" ये हुक्म भी की हर मुर्दा तौर-ए-क़त्ल का जलाल करे
 
अजीब प्यास है  ये गले से चढ़ती है  आँखों से उतरती है   
ख़्वाहिश-ए-लहू-ए-दरिया है 'धरम' कोई क्या सवाल करे  



ज़वाल - पतन
कलाल - किसी अंग या संवेदना का शुन्य हो जाना 
जलाल - महत्ता 

Wednesday 1 February 2023

बात अपनी कहने लगा

कि लहू जब भी ज़मीं पर उतरा रौशनाई बनकर बहने लगा    
फिर ज़माना उसमें कलम भिंगोकर बात अपनी कहने लगा
  
सिर्फ़ नज़रों का ही धोख़ा न था थोड़ी ख़ता साँसों की भी थी 
क़ाबिल-ए-क़त्ल-ए-रुस्वाई यार बनकर साथ अब रहने लगा 

कोई रिश्ते की बुलंदी न थी बस बीच का कोई वाक़ि'आ था 
बस नज़र मिलाकर मुस्कुराया  फिर हर सितम सहने लगा

वादे फ़िज़ाओं में घुलकर हवा को 'अजब इशारा करने लगे   
साँसों में आते-जाते वादों के जोर से कलेजा फिर ढ़हने लगा

चिंगारी चराग़-ए-दिल ने दी जिससे एक आग बदन में लगी    
फिर न जाने क्यूँ 'धरम' जिस्म के बदले दिल ही दहने लगा 

Monday 30 January 2023

कभी न फिर दाख़िला होगा

ख़्वाब में सिर्फ़ मक़्तल ख़याल में कर्बला होगा    
ऐ! मौला कैसे फिर  इंसानियत का भला होगा 

पहले भी जिनका ऐसा एक मिज़ाज रहा होगा 
उन्हौंने हाथ अपना कुछ कम नहीं मला होगा 

वह उजाला  सिर्फ़ चराग़-ए-रौशनी की न थी  
उस वक़्त दिल भी कुछ कम नहीं जला होगा

कैसी ख़ामोशी थी सन्नाटा न था एक शोर था
ग़ुर्बत में होंठ भी  कुछ कम नहीं सिला होगा 
     
हर गुस्ताख़ी के बाद  ख़ुद से फिर वही वादा  
मुस्तक़बिल में फिर कभी न कोई गिला होगा

हाथ बढ़ाया दिल मिलाया कुछ ज़ुबान भी दी 
टूटने का अब फिर वहाँ एक सिलसिला होगा 

'धरम' साँसों का कलेजे से क्यूँ ऐसा वादा कि 
ख़ुद का ख़ुद में कभी न फिर दाख़िला होगा 

Friday 20 January 2023

जिस्म से हमेशा मरदूद रहा

कभी हमशक्ल बनकर कभी साया बनकर मौजूद रहा 
ख़ुद अपने उरूज-ओ-ज़वाल में कब अपना वुजूद रहा

कि क्यूँ कोई भी साँस  सीने में कभी पूरी न उतर सकी  
वक़्त को कलेजे से न लिपटने का हमेशा एक ज़ूद रहा  

कि इस दिल की बे-क़रारी को चैन कभी आए भी कैसे  
जब ये दिल ख़ुद अपने भी जिस्म से हमेशा मरदूद रहा

आईने ने शक्ल पहचाना भी औ" नज़र भी मिलाए रखा     
मगर दरमियाँ आईने और चेहरे के गुफ़्तुगू मस्दूद रहा  

न तो कभी दिखाई दिया न ही किसी को महसूस हुआ  
फिर भी एक मुंसिफ़ की हुक्मरानी में  वो मशहूद रहा  
 
वो शख़्स कौन था जिसने अपनी साँसें मेरे कलेजे में दी   
औ" जिस्म में उतरकर भी 'धरम' ता-उम्र मफ़क़ूद रहा


वुजूद - अस्तित्व
ज़ूद - जल्दी
मरदूद - बहिष्कृत
मस्दूद - रुका हुआ
मशहूद - जो उपस्थित किया गया हो
मफ़क़ूद - अज्ञात

Friday 6 January 2023

कुछ यूँ साँसों ने भी बोल दिया

तख़्त ने फ़रियादी के लहू को जब फ़िज़ा में घोल दिया
ज़माने ने उसके लहू को भी  पानी के मोल-तोल दिया  

कब वफ़ा की क़सम में बंधे एक चराग़ की लौ में जले  
कब तिरे दिल ने  मेरे दिल को  बराबर का मोल दिया 

वफ़ा-ए-इश्क़ को आँखों में उतारा सीने में दफ़्न किया  
फिर क्यूँ ज़माने के सामने  अपना कलेजा  खोल दिया   

वो वफ़ा की बात हुई एक चराग़-ए-वफ़ा जलाया गया  
फिर हर वफ़ा की राह में वीरान कोई एक जोल दिया

जब भी ज़बाँ ख़ामोश रही  तब चेहरा बस जलता रहा     
कुछ तो नज़रों ने कहा कुछ यूँ साँसों ने भी बोल दिया 
 
कि "धरम" तेरी बातें तेरी नज़र तिरा चेहरा तिरा जादू 
ख़ुदा ने पूरी काइनात को ये भरम ख़ूब अनमोल दिया