Monday 25 December 2017

खुद को भटकते दर-बदर देखना है

मुझे अब तो अगले वक़्त का आलम औ" सफर देखना है 
गुजरे वक़्त में जो पाया इल्म अब उसका असर देखना है

खड़ा रहूँगा चट्टान के मानिंद या उड़ जाऊँगा ग़ुबार बनकर
अपने कद-औ-कामत औ" गैरों के फूँक का असर देखना है

उठना चलना गिर जाना फिर उठना ऐसी ही मेरी फितरत है
वक़्त तू फिर बरस कि मुझे तो और खून-ए-जिग़र देखना है

पैरों तले ज़मीं खिसकना सर के ऊपर से आसमाँ निकलना
कि कितने और ज़हाँ में खुद को भटकते दर-बदर देखना है

सिर्फ चंद मौतें थोड़ी ज़मीं निगल लेना थोड़ा ज़हर उगल देना 
ऐ! समंदर मुझे तेरी उफ़ान का कुछ और भी क़हर देखना है

घूंट ज़हर का पीना औ" पचा लेना जिस ज़हाँ में मयस्सर नहीं
मुझे तो ऐसे ही किसी ज़हाँ में "धरम" अपना गुज़र देखना है

Saturday 16 December 2017

चंद शेर

1.
महज़ एक ही ज़िंदगी में कितने और ज़िंदगी निकल जाते हैं
आँखें बंद ही रह जाती हैं "धरम" ख़्वाब सारे निकल जाते हैं 

2.
जब कभी "धरम" ख़्वाब में क़ातिल के शक्ल में मसीहा आए
मेरी बाहों में तेरी बाहें आए तस्सबुर में सिर्फ तेरा चेहरा आए

3.
कि जहाँ कुछ भी नहीं होता वहां मेरा ज़माना होता है
वहां के हरेक सन्नाटे से "धरम" मेरा फ़साना होता है 

4.
ऐ! मौत तुझे मुक़म्मल होने के लिए अभी कई और बुलंदी छूनी है
कि ऐसी मौत मरने की चाहत "धरम" ज़माने को तुझसे दुगुनी है 

Saturday 9 December 2017

सारे अरमाँ हलाक़ हो गए

कि जिनसे उम्मीद-ए-लुत्फ़ थी अब वही ख़ाक हो गए
बस एक उसके जाने से मेरे सारे अरमाँ हलाक़ हो गए

कि ख़ुद बिखर के टूटे भी औ" टूट के फिर बिखर भी गए
खुद को क्या सिलें क्या छोड़ें जब खुद ही से चाक हो गए

कि फिर से जल उठने रौशन होने की उम्मीद ही बुझ गई
जब से हम हवा के महज़ एक ही झोकें के ख़ुराक़ हो गए

कि ये आप को मुबारक़ हो ये आप ही के दामन-ए-पाक़ हैं   
आपके पहलू में आकर हाय! मेरे सारे इरादे नापाक़ हो गए

कि न तो कोई ग़म ठहरता है न कोई ख़ुशी ही ठहरती है
क्यूँ कर मेरे दामन में "धरम" इतने सारे सुराख़ हो गए 

Saturday 2 December 2017

चंद शेर

1.
ऐसा कर के मैंने "धरम" पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी
जब भी हिस्से में ख़ुशी आई मैंने ठोकर मार दी

2.
यहाँ अब न तो पैरों तले ज़मीं है न ही सर के ऊपर आसमाँ
कि "धरम" अब तुम निकलो यहाँ से ढूंढो कोई दूसरा जहाँ

3.
कि तुम्हारे दर्द-ए-दिल पर "धरम" सिर्फ तुम्हारा ही हक़ नहीं था
वो मेरी भी किताब-ए-ज़िंदगी का जलता हुआ आखिरी वरक़ था

4.
बिना ज़ुर्म के सजा न हो औ" न ही हो कोई सजा-ए-माफ़
सब को मिलनी चाहिए "धरम" अब यहाँ एक सा इन्साफ

5.
हर रोज सुबह से शाम तलक "धरम" अँधेरे की ही चाहत है
हम ख़ुद को क्या बताएँ कि क्यूँ दिल इस तरह से आहत है

6.
कि मैं ग़ुबार था "धरम" मुझे बस फूंक के उड़ा दिया गया 
औ" छिड़क के पानी बचा-खुचा वज़ूद भी मिटा दिया गया

Thursday 23 November 2017

चंद शेर

1.
अपने रूह का जनाज़ा खुद अपने ही कंधे पर ढोता हूँ
मैं ऐसा सख़्श हूँ "धरम" खुद ही से खुद को खोता हूँ

2.
जब भी वक़्त को पकड़ा "धरम" ज़िंदगी रेत की तरह हाथ से निकल गई
किस्मत थोड़ी ही सी फिसली हाँ! ज़िंदगी उसके साथ और भी फिसल गई

3.
अपने अंदर के किस आग को जलने दूँ 'धरम' किस आग को बुझाऊँ
ऐ! वक़्त ये तेरी कैसी मार है कि मैं खुद अपने को भी न समझा पाऊँ

4.
वो तारा अभी पूरा टूटा नहीं 'धरम' तुझे खुद उसे तोड़ना होगा
कि अभी तो बस थोड़ा ही चले हो तुझे अभी और चलना होगा

5.
कि एक प्यास अभी और बुझानी है एक प्यास अभी और लगानी है     
ज़िंदगी एक ऐसा दरिया है "धरम" जिसकी हर वक़्त यही कहानी है

Sunday 19 November 2017

एक दरिया सुकूँ का हो

एक दरिया सुकूँ का हो
और मैं उसमें बह जाऊँ
किनारा बीच और फिर किनारा
इस एहसास से परे
ज़िंदगी के कुछ लम्हों का सफर
ऐसा भी हो
कि दरिया पार भी कर जाऊँ
और पता भी न चले

कोई हलचल नहीं न ही कोई शोर
एक समान चाल एक लय एक ही रंग
होश-ओ-हवास खोकर
पहलू में सर रखूं
चिर निद्रा की चादर ओढूँ
खुद को खो जाऊँ सो जाऊँ

Tuesday 24 October 2017

ज़िंदगी के फ़ासले पर मेरी पज़ीराई है

ऐ! ज़िंदगी तू कितने हिस्सों में कट-कट कर मेरे पास आई है
ये बता ऐसा क्यूँ है कि जो भी कोई मेरे क़रीब है वो हरजाई है 

ख़्वाब का पुलिंदा हर रात मेरे सिरहाने आकर लौट जाता है
ये बात क्या है कि मेरे आखों में कभी नींद क्यूँ नहीं आई है

मेरी रूह मेरी साँसें औ" मेरा पूरा ज़िस्म ये सब तुम्हारे ही हैं 
ऐ! मेरी मोहब्बत कि बाद इसके तू क्यूँ ख़ुद ही से शरमाई है

मैं कहाँ हूँ इसपर क्या कहूँ तुझसे कि वो बस एक ही बात है
मैं जहाँ हूँ वहाँ से पूरी ज़िंदगी के फ़ासले पर मेरी पज़ीराई है

ये तेरी हुस्न-ए-सल्तनत है यहाँ तो हर कोई तेरा ग़ुलाम है
कि बाद इसके भी क्यूँ तेरे दिल में अब भी सिर्फ तन्हाई है 

कि 'धरम' इस ज़िंदगी के बारे में मुझे और कहना ही क्या है 
मैं उसे देखूं या कि उसके अक्स को दिखती सिर्फ बेवफ़ाई है

Friday 20 October 2017

चंद शेर

1.
तेरे दर पर आए तो बेजार हुए क्या कहें कि हम किस तरह तार-तार हुए
खुद अपने ही हाथ से तराशे संग "धरम" अपने ही सीने के आर-पार हुए

2.
जब खो ही गया हूँ तो फिर खुद ही से अपना पता क्या पूछना
कि रखकर सामने आईना 'धरम' खुद ही से ख़ता क्या पूछना

3.
कि तेरी बज़्म-ए-उल्फ़त अब मेरे शरीक-ए-क़ाबिल न रहा
वहां जो मैं न रहा 'धरम' तो कोई भी मेरे मुक़ाबिल न रहा 

4.
"धरम" निकले थे इस ख़्याल से कि जाना बहुत है दूर
अब मंज़िल ही चल के आ गई इसमें मेरा क्या क़ुसूर

5.
इरादा मेरे क़त्ल का था "धरम" मगर बात वफ़ा की आ गई
कि बाद इसके ऐ! ज़ुल्फ़ तू खुद में सिमटी भी शर्मा भी गई 

Thursday 12 October 2017

खिलौना खुद अपने किरदार का

तुम ख़ुद भी पूरा कब आई थी
बस एक किरदार आता था तुझमें
जो झटके से
अपने पसंद का खिलौना लेकर
कुछ दिन खेलता था
फिर किरदार बदला खिलौना भी बदल गया

ये नया किरदार पुराने खिलौने पसंद नहीं करता
बंद कर देना चाहता है अलमारी में उसे
ऐसी अलमारी जिसमें कांच की कोई दीवार न हो
खिलौने की शक़्ल दिखाई न पड़े
उसकी छटपटाहट महसूस न हो

अलमारी में अब बंद हैं कई खिलौने
तुम्हारा किरदार अब बदलने में वक़्त नहीं लेता
अलमारी से पुराने खिलौने भी कभी निकालता है
जरुरत के वक़्त एक बार मुस्कुराता है
खिलौना भी हँस देता है
पर उसे पता है कि अगला वक़्त क्या गुज़रेगा
मगर वक़्त जो भी है गुज़र जाता है

कभी एक खिलौने ने तुम्हारे किसी किरदार को
अपने अंदर पनाह दी थी
उसकी परछाहीं अब भी बंद हैं अलमारी में
तुम्हें वो दिखाई नहीं देगी
कि अब तुम्हारा फिर से किरदार बदल गया है

हाँ इतने खिलौने से खेलते-खेलते
अब तुम खुद अपने किरदार के हाथ का
एक खिलौना बन गई हो
शायद तुम्हें मालूम हो या न हो
हाँ मगर अब एक खिलौना हो तुम
खुद अपने ही किरदार का

क्या जानें कुछ कहना चाहते हैं

शायद कोई शाख़ टूटा होगा वहां
दरख़्तों के रोने की आवाज़ आ रही थी
ये आवाज़ हर कोई सुन नहीं सकता
ये बुलंद नहीं होती
बस एक सिसकी होती है निकल जाती है

दरख़्तों के अश्क़
आखों में ही सूख जाते हैं
चेहरे पर उगी झुर्रियों तक नहीं पहुंचते

कराह की आवाज़
हलक़ से ऊपर तक नहीं आती
होंठ बस काँप के रह जाते हैं
क्या जानें कुछ कहना चाहते हैं 

Monday 9 October 2017

चंद शेर

1.
हमारे दरम्यां बात यदि छोटी सी थी तो बन ही क्यूँ न गई
औ" यदि वो बात अना की थी 'धरम' तो ठन ही क्यूँ न गई

2.
किस आरज़ू से बात रखूं "धरम" कि हर आरज़ू पे जी घबराता है
कि सामने तुम हो या तुम्हारा अक्स ये दिल समझ नहीं पाता है

3.
नहीं था चाहना तुमको टूटकर कि यूँ बिखरना मुझे गंवारा नहीं
अंजाम तो यही होना था "धरम" तुम मेरे नहीं मैं तुम्हारा नहीं

4.
उसकी अदाओं में बारूद है "धरम" वो बोलती है तो बम फटते हैं
औ" हमारी फितरत तो यही है कि बड़ी ख़ामोशी से हम कटते हैं

5.
कौन रुख़्सत हुआ है यहाँ से 'धरम' किसकी सारी यादें मिट गई हैं
कि अभी जो फैलीं थी चार-ओ-सू बस एक झटके में सिमट गई हैं

6.
पुराना ख़्वाब था 'धरम' खुली आखों में ही भर आया
कि गुज़रे लम्हों का ज़ख्म देखो फिर से उभर आया 

Sunday 1 October 2017

जान से मारा नहीं मुझे

तुमने भी कभी शौक से पुकारा नहीं मुझे
औ" यूँ ही कहीं भी जाना गँवारा नहीं मुझे

तुम क्यों ही पूछते हो मेरे उदासी का सबब
जब तुमने कभी रूककर सँवारा नहीं मुझे

ज़माना तो चाहता था की मैं ज़िंदा ही रहूं
पर तुमने भी क्यूँ  जान से मारा नहीं मुझे

ज़माने के बिसात पर मैं तो एक मोहरा ही था
क्या कहें की किस किस ने उतारा नहीं मुझे

वफ़ा तुम्हारे नाम की जलन आँख की रही
ऐसे आग से करना कोई किनारा नहीं मुझे

कि इसबार गिर के मैं तो खुद से ही उठा हूँ
"धरम" चाहिए अब कोई सहारा नहीं मुझे 

Friday 22 September 2017

चंद शेर

1.
जिस जहाँ के तुम खरीददार थे वहाँ तो हम बिक न सके
किसी और दूसरे ज़हाँ में 'धरम' मुझे बिकना गँवारा नहीं

2.
आज जरा हौशले से सुनो मुझे 'धरम' कि हाँ महज़ एक चीख ही हूँ मैं
मैं भूला नहीं हूँ कि तेरे दामन को मिला एक अनचाही भीख ही हूँ मैं

3.
कि ख़ुद मेरे ही घर में "धरम" कितनी वीरानी लगी मुझे
जब सोचने लगा तो तेरी सारी बातें आसमानी लगी मुझे

4.
कोई और वादा नहीं चाहिए तेरे इस वादा-ए-सुखन के बाद
कि अब कोई जहाँ नहीं चाहिए "धरम" इस कफ़न के बाद

5.
बाद तेरे नाम के "धरम" मैंने जो भी लिखा वो इबादत है
कि ये कुछ और नहीं हर हर्फ़ में लिपटी तेरी मोहब्बत है

Thursday 21 September 2017

हर होंठ गुनगुनाने लगे मुझे

कि जो खुली किताब तो हर होंठ गुनगुनाने लगे मुझे
एक के बाद एक मेरे सारे दुश्मन अपनाने लगे मुझे

कि बात हवा के रुख़ की थी तो मैं भी साथ हो लिया
बाद इसके न जाने क्यूँकर लोग समझाने लगे मुझे

कि सिवा एक मेरे इश्क़ के तू किसी और की मुरीद नहीं
तेरी महफ़िल में इस बात पर लोग झुठलाने लगे मुझे

कि बाद तेरे जाने के भी वहाँ महफ़िल-ए-जॉ बाकी थी
न जाने क्यूँ लोग मुझको रोककर ये बतलाने लगे मुझे

उस मोहब्बत की कीमत 'धरम' मैं अब और क्या बताऊँ
तन्हाई से लिपटकर रोने में भी कितने हर्ज़ाने लगे मुझे

Thursday 14 September 2017

चंद शेर

1.
कि जब वक़्त ने तोड़ी थी चुप्पी मेरे दिल में सिर्फ तन्हाई थी
मोहब्बत में मैं वहां रुक गया "धरम" बाद जिसके रुस्वाई थी

2.
अपने ज़ख्म-ए-दिल का 'धरम' ये मंज़र तो देखो
किस अंदाज़ से सीने में चुभा है ये खंज़र तो देखो

3.
कि किस ख़्याल को दिल में रखूं किसको निकाल दूँ
जी तो करता है 'धरम' कि खुद अपना दिल हलाल दूँ

4.
ज़ख्मों को अभी और सर होना है कि और भी दुखते-जिगर होना है
जो ख्वाब कभी देखा ना था 'धरम' हक़ीक़त ही उसका क़हर होना है

Friday 1 September 2017

चंद शेर

1.
खुद से खुद ही रूठे 'धरम' फिर खुद मना भी लिए
कि खुद ही अपना दिल बुझाये औ" जला भी लिए

2.
वक़्त बदला फ़ासला बढ़ा औ" बूढ़ी हो गई राह तकती आखें
क्या कहें "धरम" ज़माने में किस-किस को भुलाना पड़ता है

3.
हर किसी को 'धरम' आसमाँ से इस ज़मीं पर आना पड़ता है
कि ख़ुद ही अपना दिल निकालकर उसे दफ़नाना पड़ता है

4.
तेरे बज़्म में रुस्वा होने के बाद ही 'धरम' मुझे सुकूँ मिलता है
क्या कहें कि मौत के बाद ही ज़िंदगी जीने का जुनूँ मिलता है

Thursday 31 August 2017

अतीत का रिश्ता

अतीत एक भोगा हुआ सत्य होता है जिसे भुला पाना मुझ जिसे लोगों के लिए बहुत कठिन है| मुझे तो अतीत का भोगा हुआ दुःख भी भविष्य में आने वाले किसी भी सुख के कल्पना से ज्यादा आनंद देता है| तुमको अभी मैं अपना वर्तमान तो नहीं कह सकता हाँ मेरा एक अतीत जरूर हो तुम| एक ऐसा अतीत जिसमें मुझे सुख और दुःख दोनों की अनुभूति हुई| तुम्हारे साथ बिताये हुए सुख के पल यदि रोमांचित करते हैं तो दुःख के पल भी आनंद ही देते हैं| इस पर मैं एक शेर कुछ इस तरह कहना चाहता हूँ:

                                        तेरे पहलू में जो बीते मेरे पल हैं मेरे लिए अनमोल
                                       ये लो तेरे सामने राज दिया मैं अपने दिल का खोल

तुम भविष्य के तरफ जिस अंदाज़ से देखती हो मैं ठीक उसी अंदाज़ में अतीत की तरफ देखता हूँ| मेरी नज़र में मेरे अतीत की शुरुवात और तुम्हारे भविष्य का अंतविंदु एक ही है| तो फिर हमारे जिस्म के दरम्याँ वर्तमान में इतनी दूरी क्यूँ है? हमारे रूह के दरम्याँ इतना सन्नाटा क्यूँ है? हमारे साँसों के दरम्याँ इतनी ठंढी क्यूँ है? तुम से रुख़्सत के वक़्त मैंने अतीत से जुड़े रिश्ते का एक धागा बुना था| उस धागे के एक सिरे को मैं अब भी पकड़ा हूँ और दूसरा सिरा तेरे इंतज़ार में अब भी सज़दे में झुका है| ग़र तुम भूल गई वो वाक़्या तो लो मैं तुम्हें याद दिला देता हूँ

                       मैंने तो तुझसे रुख़्सत के वक़्त अतीत को वर्तमान से जोड़ना चाहा था
                        मगर पता नहीं क्यूँ तुम्हारे दिल में मेरे लिए सिर्फ फैला सन्नाटा था

तुम्हारे लिए अतीत से वर्तमान में आकर भविष्य में झांकना, खो जाना बहुत आसान प्रतीत होता है| क्या अतीत का प्रेम ऐसे मर सकता है? यदि हाँ तो वो प्रेम नहीं महज एक छलावा है| और यदि नहीं तो क्यूँ तुम्हारे आखों के अश्क़ सूख गए? लब ख़ामोश हो गए? जिस्म रूह विहीन हो गए? संवेदनाओं में कोई कराह नहीं? आवाज़ में कोई आह नहीं? इशारों में कोई आहट नहीं? मौन में कोई चीत्कार नहीं? सन्नाटे में कोई शोर नहीं? तुम्हें यकीं न हो तो न हो मगर मैं तुम्हारे रूह को हर वक़्त ढूंढता हूँ:

                                       तेरे रूह की खोज में मैं खुद ही कहीं खो रहा हूँ            
                                     ये लो तुम्हारे ही बनाये कब्र में अब मैं सो रहा हूँ    

तुम्हारे सुनहरे भविष्य की सबसे छोटी कूद भी अतीत के सबसे ऊँची दीवार से भी ऊँची होती है| इसलिए कोई भी अतीत तुम्हारे भविष्य का रोड़ा नहीं बन सकता| तुमने अतीत की कई ऐसी दीवारें लाँघी हैं| खूब इल्म है तुमको ऐसे कूदने का|

                               लाँघो हर प्रेम की दीवार कि तेरे लिए तो हैं आसमाँ हज़ार
                              तुम क्यूँ कर याद करो उस अतीत को जो रिश्ता था बीमार
                               बाहों की वो कैची होती थी और होती थीं अपनी आँखें चार
                               जब प्रेम ही था झूठा तो अब क्यूँकर इसपर करना विचार

मुझे अब भी मेरा हर अतीत प्यारा है| तुम भी याद करो, अपने सीने में अपना दिल रखो, रूह को स्पर्श करो, शायद कुछ याद आ जाए| हाँ जब भी तुम ऐसा करना, अपनी आखें बंद रखना| खुली आखों से तुम्हें अतीत में तो सिर्फ ग़ुबार ही दिखता है| उस अतीत को याद कर तुम्हारी स्मृति में ये शेर:

                            क्यूँ मैं अब भी अतीत के झूले में झूल रहा हूँ इसका मुझे पता नहीं
                           किसी अतीत का इतना व्यसन भी किसी के लिए होता अच्छा नहीं

Tuesday 29 August 2017

उसका रूह और ज़िस्म

धीरे-धीरे मुझे ये यकीं हो चला था की उसका रूह अब उसके ज़िस्म से अलग हो चुका है| रूह के बगैर ज़िस्म महज़ एक पत्थर है सिर्फ पत्थर| ये बात ज़्यादा पुरानी नहीं है| मैंने ख़ुद उसके भटकते रूह को उसके ज़िस्म में पूरी सिद्दत से पिरोया था| एक स्नेह भरा स्पर्श उसके पूरे ज़िस्म में सिहरन पैदा कर देता था| वह मूक सिहरन संवेदनाओं के सारे रंग समेटे इशारे में मुझे यह कहती थी कि ये लो मैं तुझे अब आईना दिखा रही हूँ, मेरे ज़िस्म में पिरोए इस रूह में तुम ख़ुद अपनी शक़्ल देखो| मैं भी मुस्कुरा देता था और बात इशारों में ही पूरी हो जाती थी| हम दोनों के बीच रूह से सिंचित संवेदना एक-दूसरे के लिए एक प्रश्न भी था एक उत्तर भी|

उसके रूह से मेरे रूह ने अनगिनत संवाद किए जो मेरे मानसपटल में अब भी क़ैद हैं| तब मुझे पूरा यकीं था की ये दो रूह सिर्फ इसलिए अलग हैं की ये दो अलग-अलग ज़िस्म से ताल्लुक़ रखते हैं| जब दोनों ज़िस्म का एकाकार हुआ तो यह निर्णय कर पाना मुश्किल हो गया कि किस रूह का ताल्लुक़ किस ज़िस्म से है| उसके बाद मेरा यकीं उस विश्वास को प्राप्त हुआ जहाँ यह निर्णय कर पाना बिल्कुल ही कठिन हो गया कि ख़ुद मैं किस ज़िस्म से ताल्लुक़ रखता हूँ| मैं ख़ुद को दोनों ज़िस्म में एक ही सा पाता था| मैंने तब ख़ुद पढ़ा था उसके रूह में उपजे ढेर सारे यक्ष प्रश्न : की अब बताओ कि ये रिश्ता क्या है? यदि ये शुरुवात है तो इसका अंत क्या है? और यदि यही अंत है तो शुरू कहाँ से हुआ था, क्यूँ हुआ था, किसने किया था, किसलिए किया था, कब किया था? इस रिश्ते रूपी डोर को मैं जिस नाम से पकड़ी हूँ क्या तुम भी इसे वही समझते हो या कुछ और? मेरा मौन रुपी अभिव्यक्ति ऐसे जटिल प्रश्नों का उत्तर बिल्कुल नहीं था| मगर मैंने इशारे की अभिव्यक्ति से उसके सारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया था| उसको यह उत्तर पसंद नहीं था क्यूंकि उसको उत्तर में मुझसे कुछ शब्द चाहिए थे जो मैं कह नहीं सकता था| क्यूंकि मेरे लब कभी भी आज़ाद न थे| मेरे मौन को उसकी चीख़ जिसमे इतने सारे प्रश्न छुपे थे तोड़ नहीं पाता था| उसके बाद धीरे-धीरे उसके रूह ने मुझसे प्रश्न करना बंद कर दिया था| इशारे की अभिव्यक्ति और बोली की अविव्यक्ति में क्या इतना फ़र्क होता है? क्या मेरा इशारा उत्तरहीन था? नहीं, बिल्कुल नहीं|

फिर क्या था रूह अलग हुए| उसके जिस भटकते रूह को मैंने उसके ज़िस्म में पिरोया था उसमें फिर कभी मुझे अपनी शक़्ल दिखाई नहीं देता था| जब भी झांकता पता नहीं क्यूँ कुछ धुंध सा नज़र आता था जहाँ रूह और ज़िस्म दोनों अलग-अलग जगह तैर रहे होते थे| मैं उसके बाद भी झांकता रहा, झांकता रहा बस धुंध ही था हाँ मगर उसके भटकते रूह को कोई और ज़िस्म मिल गया था जिस ज़िस्म के सहारे ये ख़ुद अपना ज़िस्म तौल लेती थी| मेरे लिए अब भी वहां धुंध है सिर्फ धुंध| मगर हाँ! अब यक़ीनन उसका रूह उसके ज़िस्म से अलग हो गया है|

Sunday 27 August 2017

चंद शेर

1.
किस ख़्याल से दिल खुश होगा चेहरे पर निखार आएगा
अब पता नहीं 'धरम' कि कैसे मुझे खुद पर प्यार आएगा

2.
खुद से खुद ही रूठे "धरम" फिर खुद मना भी लिए
कि खुद ही अपना दिल बुझाये औ" जला भी लिए

3.
ऐ! ज़िंदगी अब जो हम इस दौर से निकलेंगे तो कहाँ जाएंगे
अब तू ही बता "धरम" कि ग़म के अलावा और क्या खाएंगे

4.
मेरी फ़ितरत में "धरम" कभी दूसरों का दिल दुखाना नहीं है
आपको तालीम हासिल है आप जाएंगे दिल दुखाकर जाएंगे

5.
'धरम' क्यूँ ये चीख सुनाई नहीं देती क्यूँ ये ज़ख्म दिखाई नहीं देता
क्यूँ कोई ख़्वाब सुनाया नहीं जाता क्यूँ कोई गीत गाया नहीं जाता

6.
संवेदनाओं को घूंट के सहारे हलक़ से नीचे उतारना पड़ता है
क्यूँकर हरेक एहसास के बाद 'धरम' मेरा गला सूख जाता है

Friday 18 August 2017

चंद शेर

1.
कि उम्मीद से ऊँची मेरे ख़्वाब की मंज़िल न थी हाँ! मगर रास्ता लम्बा जरूर था
मैं भी क्या करता "धरम" खुद ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने के लिए मज़बूर था

2.
कि तेरे लिए 'धरम' महज़ एक ही ज़ाम के लायक था मैं
और क्या कहें कि सिर्क एक ही सलाम के लायक था मैं

3.
कैसे कह दूँ "धरम" कि चिराग हर शख़्स के दिल में जलता होगा
ग़र जलता भी होगा तो जरूरी नहीं कि हर पत्थर पिघलता होगा

4.
ऐ! ज़िंदगी ग़र तुझे कब्र भी कहूं तो दो गज़ ज़मीं देनी होगी
कि इतनी ज़मीं भी "धरम" मुझे किसी और से ही लेनी होगी

5.
कि वो कैसा ख़्वाब था 'धरम' ऊपर ज़मीँ थी नीचे आसमाँ था
गुज़रा ज़माना था झूठी मोहब्बत थी औ" उजड़ा आशियाँ था

6.
हर बार प्रमाणित करने का दाईत्व 'धरम' मेरा रहता है
कि मैं ऐसा दीपक हूँ जिसके तले हमेशा अँधेरा रहता है

7.
कि नुमाइंदे हुस्न के कितने आए "धरम" कितने चले भी गए
तू बता हुस्न कहाँ किसी के पहलू में देर तलक ज़िंदा रहता है

8.
बाद तेरे न कभी मेरी ज़ुबाँ खुली न किसी पर प्यार आया
दिल में उदासी छाई "धरम" हर गुलसन पर ग़ुबार आया

9.
महज़ एक ही सैलाब आया औ" हम दरिया-ए-दर्द में डूब गए
और बहुत सितम होना है 'धरम' क्यूँकर पहले में ही ऊब गए

Thursday 10 August 2017

असर ढूँढ़ता है

क्यूँ यहाँ परिंदा खुद अपना पर ढूँढ़ता है
जो मेरे साथ है वो भी हमसफ़र ढूँढ़ता है

कल तो मेरे लुटने की ख़बर मिल गई थी
अब ये बता की तू कौन सी ख़बर ढूँढ़ता है

कि यही है तेरे बुलंदी औ" मेरे ग़र्क की मंज़िल
अब तू ये बता कि यहाँ कौन सा डगर ढूँढ़ता है

तेरे बाहों की ठंढक में हर दिल पत्थर हो जाता है
हर कोई तेरे पहलू में आकर दूसरा बसर ढूँढ़ता है

जो मिली है तुझको "धरम" तेरे कर्मों का फल ही है
इसमें तू क्यूँ किसी बद-दुवा का कोई असर ढूँढ़ता है

Monday 7 August 2017

चंद शेर

1.
तुम तो मुफ़लिस हो तुम्हारे हौसले को बुलंदी नसीब नहीं
उसे जाने दे ज़िद न कर 'धरम' कि वो अब तेरे क़रीब नहीं

2.
ख्वाईश की सीढ़ी चाहत की मंज़िल औ" बाद उसके खुला आसमाँ
"धरम" बुलंदी वालों को क्यूँ कर वहां से दिखता है दोज़ख ये ज़हाँ

3.
मेरे घऱ के दर-ओ-दीवार भी "धरम" अब मुझसे उकताने लगे हैं
कि जिनके कल हम अज़ीज़ थे आज वो भी चेहरा छुपाने लगे हैं

4.
क्यूँ ये गुनाह-ए-अज़ीम "धरम" मेरे ही हाथों होना था
कि जिससे खुदा ने मिलाया था उसे खुद ही खोना था

5.
जो ठहर के गुज़री है "धरम" वो तेरी याद नहीं हो सकती
कि जो बात मुझको ख़ुशी दे वो तेरी बात नहीं हो सकती

6.
वहां हम क्यूँ उम्मीद रखते हैं दिल से दिल मिलाने का
जहाँ से कोई भी रास्ता "धरम" नहीं जाता मयख़ाने का

7.
हम उल्फ़त के सौदागर हैं हमें तुझ जैसे हुस्न-ए-बेपर्दा से क्या
तू तो एक बीमारी है "धरम" तुझे इस ज़हाँ के दीनदारी से क्या

8.
थोड़े आँवलें दिल में भी हैं "धरम" थोड़ी जलने की बू पाँव तले भी है
कि थोड़ी ज़मीं आसमाँ से ऊपर भी है थोड़ा आसमाँ ज़मीं तले भी है

9.
कि कुछ ज़ख्म दिखाई नहीं देते तो कुछ दर्द सुनाया नहीं जाता
मैं तो अब वो गीत हूँ "धरम" जिसे कभी गुनगुनाया नहीं जाता



Thursday 3 August 2017

चंद शेर

1.
वो कौन सी दीवार थी "धरम" न जाने कब गिरा दी गई
कि मारे शर्म से अपने काँधे से अपनी गर्दन हटा दी गई

2.
मैं तुमसे जितना मिला उससे ज़्यादा और किसी से क्या मिलता
कि ख़ुशी तेरे दामन में आती थी "धरम" और चेहरा मेरा खिलता

3.
वो था मेरा ज़ुर्म-ए-उल्फ़त मुझको मिली है ये सज़ा-ए-मोहब्बत
जो लिखा था वो कुछ और था "धरम" अब यही है तेरी किस्मत

4.
तेर हर अगला ज़ख्म "धरम" पिछले सारे ज़ख्मों पर भारी होता है
कि ऐ! ढलता हुस्न अब ये बता तुझपर कौन सा नशा तारी होता है

5.
गुज़रे वक़्त की मिशाल है कि जो तुझसे मिला वो बेहाल है
मैं तुझसे बच कैसे गया "धरम" ये तेरे लिए एक सवाल है 

Friday 28 July 2017

खुद ही इससे भरमाता हूँ

कहाँ से लिखना शुरू करूँ खुद में ही उलझ जाता हूँ
कि तेरे प्रत्येक मुलाक़ात को मैं हमेशा पूरा पाता हूँ

तेरे साथ बिताए वक़्त को मैं हर रोज गुनगुनाता हूँ
ये कैसा आज़ार है कि तेरी बातें तुझको ही सुनाता हूँ

अब रूठकर क्या हासिल होगा ये समझ नहीं पाता हूँ
औ" ग़र करूँ तेरी तारीफ़ तो भी मैं तुझको न भाता हूँ

उतार दूँ क़र्ज़ तुम्हारा लो मैं खुद को तुझपर लुटाता हूँ
ये लो मेरी गर्दन कि अब मैं तुझसे शिकस्त ही खाता हूँ

दोनों के बीच के फासले को "धरम" कम नहीं कर पाता हूँ
तुम हक़ीक़त हो या कल्पना मैं खुद ही इससे भरमाता हूँ 

Thursday 27 July 2017

किस तरह से ये हौशला रखा

क्यूँ कर हमेशा तुमने दो कदम का फ़ासला रखा
पहलू में आने-जाने का लगातार सिलसिला रखा

कभी मिलने पर असीम ख़ुशी कभी तो सिर्फ बेरुख़ी
कि कैसे तुमने बनाकर मुझे महज़ एक मामला रखा  

कि जिस बात पर हँसे ठीक उसी बात पर रो भी दिए
कैसे अपने मिजाज़ में इस तरह का तबादला रखा

मेरे हर हुनर पे तेरी आखों का एक बूँद पानी भारी था
कि अपने अश्क़ को मेरे लिए बनाकर जलजला रखा

कि तेरी सासें मेरा जिस्म औ" मेरी सासें तेरा जिस्म
बाद इसके भी तुमने इश्क़ का कोई और मरहला रखा

कि इश्क़ का क़त्ल करके हुस्न के बुलंदी तक पहुंचे
किस तरह से "धरम" तुमने खुद में ये हौशला रखा 

Sunday 23 July 2017

और क्या अंजाम लिखूँ

कि अब मुझे तुम ही बता कैसे तुझे सलाम लिखूँ
तेरे दिल के किस कोने में खुद अपना नाम लिखूँ

कि अपनी ज़ुल्फ़ों में लपेटो मुझे बाहों में थाम लो
इसके अलावा अपने लिए और क्या कलाम लिखूँ

कि हो बाहों में बाहें औ" रहे सदा अपनी आखें चार
तू ही बता कि इस रिश्ते का और क्या आयाम लिखूँ

कि कभी कोई कश्मकश न हो औ" न हो कोई इल्ज़ाम
तेरे लिए मैं अपनी तरफ से हमेशा यही पैगाम लिखूँ

कि मैं मरुँ तो तेरी बाहों में औ" तू मरो तो मेरे सीने पर
इस रिश्ते का "धरम" मैं अब और क्या अंजाम लिखूँ 

Thursday 20 July 2017

क्या रहा होगा क्या न रहा होगा

दिल पत्थर का ही क्यूँ न हो मगर उसमें रास्ता रहा होगा
यहाँ ऐसा कौन है जिसका दर्द से कभी वास्ता न रहा होगा

कि ख़ुमारी में झूमे औ" जब उतरी ख़ुमारी तो फूटकर रोए
कैसे कहें कि ऐसे शख़्स का किसी से कोई रिश्ता न रहा होगा

अभी हँसे अभी ही रो भी दिए कि ग़म-ए-मोहब्बत भी अजीब है
ऐ! इश्क़ तुझसे जुड़ने से बिछड़ने का सफर सस्ता न रहा होगा

वफ़ा की बात पर न जाने क्यूँ हमेशा दोनों में तक़रार ही हुई
कि उसका हुस्न कभी भी इसके इश्क़ पर हल्का न रहा होगा

कि आग औ" पानी की बारिश देखकर ज़माना घर लौट गया
हम बस सोचते रहे "धरम" कि क्या रहा होगा क्या न रहा होगा

Sunday 16 July 2017

चंद शेर

1.
जब भी मैंने तुमको याद किया अपने आप को पूरा पाया
औ" ग़र भूला तुझको "धरम" तो खुद को ही अधूरा पाया

2.
कौन सा रंग भरूँ कितना ज़ख्म रखूं कैसा गीत गाऊँ
"धरम" मुझे अब तू ही बता की कैसे तुझे क़रीब पाऊँ

3.
मुझको मुझ ही से खरीदकर मुझको ही बेचा गया
खुद अपने ही दर पर "धरम" नीलाम हो गया हूँ मैं

4.
अब बस एक बार आओ "धरम" तुम मिलो मुझसे बे-सबब ही सही
मत रखो कोई तहजीब-ए-मुलाक़ात मिलो मुझसे बे-अदब ही सही

5.
अभी ख़्याल आय था तेरा फिर उसी अदा से हिचकोले खाते हुए
सांस ठहरी थी जिस्म ठंढा था "धरम" तुम चली दिल दुखाते हुए

6.
कि बाद इस सफर के 'धरम' ज़ीस्त में कोई फ़िज़ा बाकी नहीं रहेगी
न ही कोई मंज़िल-ए-मक़सूद रहेगी औ" न ही कोई आशियाँ रहेगा

7.
तेरे दिल के हरेक ठिकाने का "धरम" मुझको खबर रहता है
तेरी याद दिल में रहती है कुछ बोलूं तो जुबां पे असर रहता है

8.
ऐसा क़रम बरसा ऐ मौला! कि किसी का क़द किसी के कम न रहे
औ" इस ज़माने में "धरम" किसी के दिल में कोई भी ग़म न रहे

Sunday 18 June 2017

अपना घर जला दिया था

तेरे पहलू में आने से पहले मैंने अपना घर जला दिया था
ऐ! ज़िंदगी तुझे पाने के लिए मैंने सब कुछ भुला दिया था

कि ढ़लते हुस्न की तरह ही तेरे भी लौटने की नाउम्मीदी
ना कुछ हुआ तो तूने रुख़्सत के वक़्त कील चुभा दिया था

अब यहाँ से मैं किसके पहलू में जाऊँ किसका दीदार करूँ
मैंने तो अपने हर रिश्ते को बहुत पहले ही दफ़ना दिया था

मेरे इश्क़ औ" तेरे हुस्न को कुछ भी तो मुकम्मल ना हुआ  
तूने मुझे तो बस सर-ए-आम एक तमाशा ही बना दिया था

ग़र खोल दूँ जुबाँ तो रुस्वाई चुप रहूं तो उम्र भर की तन्हाई
खुद अपने ही पहलू में तूने मुझे ये किस तरह गँवा दिया था

ज़िंदगी अब तुम क्यूँ आओ मेरे ख़्वाब में ही हक़ीक़त में ही
मैंने भी तुझे 'धरम' दिल-ओ-जां-ओ-ज़िस्म से हटा दिया था

Friday 9 June 2017

चंद शेर

1.
कि उसका ख़्याल आने से पहले उसकी हर याद मिटा दो
अपनी बची-खुची ज़िंदगी "धरम" तुम इस तरह मिटा दो

2.
कहीं चैन न मिला सुकूँ भी ख़ुद "धरम" दम साध कर बैठा है
अब लिपट जाओ अपनी तन्हाई से तू क्यों अकेले लेटा है

3.
कि मेरी महफ़िल में होना भी औ" तन्हा भी रहना
तेरी बेदिली पर "धरम" मुझे अब और क्या कहना

4.
'धरम' ये जो कलम की चीख़ है वो दिल की पुकार भी है
मैं ऐसा शख़्स हूँ जो चलता भी हूँ और मेरा मज़ार भी है 

कहाँ कुछ दिखता सुहाना होगा

तेरे आंसुओं के एक-एक बूँद का हिसाब अब मुझे चुकाना होगा
मैं चाहे कितनी भी बार मरुँ कि बाद उसके एक बार जीना होगा

कि जो बात अदा से शुरू हुई थी वो कज़ा पर जाकर ख़त्म हुई
ऐ! मौत तुझको ख़ुद तेरी इस बेरूख़ी पर एक बार मरना होगा

अपने लहू के रंग में हमने दामन के हरेक दाग को छुपा दिया
कि तेरे इंसाफ के लिए मुझे ज़माने को हर दाग दिखाना होगा

ग़र तेरी नज़रों में गिरने से पहले मुझे अपने आप को बचाना है
तो तुझसे रुख़्सत के वक़्त मुझे ख़ुद अपना चेहरा छुपाना होगा

ये कैसे कह दूँ कि तेरा नाम सुनकर अब दिल मेरा नहीं भरता
हाँ! अफसोस मगर यह है ख़ुद मुझे ही तुमको ये बताना होगा

अच्छा है तुम अपनी उड़ान उड़ो औ" मैं अपने लिए ज़मीं तलाशूँ
कि आसमाँ से ज़मीं पर "धरम" कहाँ कुछ दिखता सुहाना होगा

Wednesday 7 June 2017

तन्हाई लिपटती है

तन्हाई लिपटती है मुझसे मेरे बिस्तर पर
कोई शर्म नहीं उसको कोई हया भी नहीं
न वो रंग बदलती है औ" न ही चेहरा
उसके बदन की ख़ुश्बू आठो प्रहर एक सी है

उसका स्पर्श अतीत भी है और भविष्य भी
उसे कितना भी काटो कटती नहीं है
बांटो तो फिर बस बढ़ने लगती है
मानो ये कह रही हो की मुझे मत छेड़ो
मुझे अपने अंदाज़ में रहने दो जीने दो
तुम मुझसे और मैं तुझसे अलग तो नहीं
तुम्हारे और मेरे दरम्याँ कोई दूरी तो नहीं

अब तक मैं ही तुझसे लिपटती आई हूँ
अब तुम भी मुझसे लिपटो
मेरा आलिंगन करो
यकीं मानो मैं तुझको धोखा नहीं दूंगी
मैं तुम्हारे दिल का वो हिस्सा हूँ
जो हमेशा तुम्हारे साथ रहता है

Thursday 1 June 2017

श्रम करो कठिन

परीक्षा परिणाम गड़बड़ाया तो लगे अब चिल्लाने
कि खुद अपनी ही करनी पर अब लगे छात्र भरमाने

कि अब लगे छात्र भरमाने की गलती है यह किसकी
हंगामा करें जहाँ तहाँ और सर फोड़े जिसका तिसका

फोड़ के सर जिसका तिसका से अब नहीं बनेगी बात
ग़र सुधरना है तो खुद से मारो अपने सीने पर लात

मारे अपने सीने पर लात तो दिखेगी खुद की गलती
कि कठिन समय में कभी मत मढ़ो दूसरों पर गलती

मत मढ़ो दूसरों पर गलती तब ही बन पाओगे पक्का
अहो! नहीं तो रह जाओगे बाबू तुम जीवन भर कच्चा

जीवन भर रहना है कच्चा या छूना है तुमको आसमान
कि चाहिए तुमको हाथ में लाठी या उत्थान हेतु सामान

उत्थान हेतु पकड़ो तुम दोनों हाथ से विद्वानों के पैर
और गहो चरण उनकी नहीं तो अब न रहेगी तेरी खैर

न रहेगी खैर कि सरकार बस वहां अलापेगी अपनी राग
इस राक्षश पेट के खातिर वतन से पड़ना सकता है भाग

पड़ना सकता है भाग यदि तुम नहीं बने मंत्री का भड़वा
सत्य यही है बाबू चाहे लगे तुमको यह कितना भी कड़वा 

हाँ कड़वा है यह भी सत्य कि शिक्षकों के गुणवत्ता के नाम
बहाल हुए है कई नर-पिशाच सरकार से पाते भी हैं ईनाम

कि पाते भी हैं ईनाम मगर तुम उन पर अपना मत दो ध्यान
खोजो निज भविष्य तो मिलेंगे गुदड़ी में भी गुरु कोई महान

यदि मिलें गुरु कोई महान तो बाबू बस बन जाएगा तेरा काम
और श्रम करो कठिन ध्यान में रखकर अपने पूर्वजों के नाम

आओ अब सब मिलकर बोलें "जय श्री राम जय श्री राम"

Saturday 27 May 2017

हँस के टाल देता है

कि दरिया अनगिनत छोटे तरंगो को हँस के टाल देता है
कतरा एक छोटे तरंग से ही अपने आप को उबाल लेता है

कि कहीं तो भरी महफ़िल में भी कई चेहरा उदास रहता है
कहीं तो लोग हिज़्र में भी ढेर सारी खुशियाँ निकाल लेता है

कि एक तो मतलबी दुनियाँ औ" उसपर ये दौर-ए-इलज़ाम
अहा! ऐसे में भी कुछ लोग खुद अपनी गर्दन हलाल लेता है

कि कहीं तो वक़्त कुछ तारीख़ी ज़ख्मों को बखूबी भर देता है
कहीं तो वक़्त कुछ पुराने ज़ख्मों पर भी इस्तेहार डाल लेता है

कि कुछ लोग यहाँ तो गैरों के धक्का-मुक्की से भी गिर जाते हैं
कुछ तो "धरम" अपनो के धक्के पर भी खुद को सँभाल लेता है 

चंद शेर

1.
ग़र ज़माने के नज़रिया में "धरम" मेरा दो चेहरा है
तो लो मेरे नज़रिया में ज़माने का भी दस चेहरा है

2.
मेरे गिरेबाँ में ज़माने वालो तुम यूँ ही मत झाँकों
कालिख़ वाला चेहरा "धरम" खुद अपना भी ताको

3.
ये तेरी ही तो ख़ुदाई है जो मुझसे वसूली जाती पाई-पाई है
कि मुझको लूटे ज़माना "धरम" औ" सज़ा मैंने ही पाई है

4.
मेरे महफ़िल में "धरम" अब तेरा आना कम होता है
कि ये बात तो अच्छी है मगर देखकर ग़म होता है

5.
जो भी बची खुची बातें हैं "धरम" सिर्फ बेमानी है
न सीने में धड़कता दिल है न आखों में पानी है

6.
बुझते बुझते जल उठा "धरम" मन में फिर से भाव
हाँ! मगर इस भाव में था संवेदना का घोर अभाव

7.
मुझे कोई रौशनी मयस्सर नहीं "धरम" मेरा सूरज ही खुद अँधेरे में है
जिधर भी देखूं सिर्फ अंधकार है कि मेरा मुक़द्दर ही डूबता सवेरे में है

8.
मुँह पर पूरी पुती है कालिख़ फिर भी गाते रहते अपने उसूल
कि बात अगर नहीं माने तो "धरम" सीने में चुभा देते है शूल

9.
छद्म भिखारी बनकर लूटते औ" गाते अपना गुणगान
कि कौड़ी के भाव यहाँ "धरम" अब बिक रहा सम्मान

10.
कि एक लाठी के सामने सब ज्ञान है तेज बिहीन
अहो! "धरम" अब यहाँ कौन है ज्ञानी से भी दीन

11.
अजब खेल देखो ज़माने का यहाँ सब कुछ चल रहा है उल्टा
कि चरित्र प्रमाण पत्र "धरम" अब तो यहाँ बाँट रही है कुलटा

Friday 26 May 2017

रूह के आकार का आंकलन

तुम्हारा रूह विहीन भौतिक उपस्थिति
मेरे लिए बस एक भ्रम ही है तुम्हारे होने का
हाँ! तुम मेरे होने या न होने के भ्रम से
बहुत पहले ही निकल चुकी हो
यह मानकर कि मेरे रूह में
अब तुम्हारे रूचि का कुछ भी नहीं

मेरे रूह के प्रति तुम्हारा यह दर्शन सतही है
तुमने हमेशा मेरे रूह में उगे हुए
ऊंचाई के परछाँही को देखा हैं
सतह पर परछाँही दिखाई देती है
तुम्हें ये परछाँही देखने में
कोई मस्सकत नहीं करनी पड़ी
ऊंचाई का अक़्स सिर्फ धोखा है
प्रकाश के ख़त्म होने के साथ
वह विलीन हो जाता है

रूह के अंदर घुसकर देखना जरूरी होता है
संवेदनाएं तैरती हैं यहाँ
ढेर सारा आकार लेकर
कुछ रूह में बने गड्ढों में अटक जाती हैं
और कुछ ऊंचाई के पीछे छुप जाती हैं
ऐसी सारी संवेदनायें बाहर दिखाई नहीं देती
और न ही इनका अक़्स सतह पर दिखाई देता है
इन्हें महसूस करने के लिए
तुझे अपने रूह को मेरे रूह में उतरना पड़ता
यह एक कठिन काम है
खासकर उनके लिए
जो रूह को जिस्म से हमेशा कमतर आंकते हैं
और रूह के आभाषी आकर को देखकर
अपने रूचि की चींज़े खोजते हैं

रूह के अंदर गड्ढों में फंसी
वैसी ढेर सारी संवेदनाओं का चीत्कार
सतह तक नहीं पहुंच पाती
और ऊंचाई के पीछे फंसी संवेदनाएं
अपने होने का एहसास नहीं करा सकती
खासकर उन्हें
जो सतह को ही पूर्ण सत्य मानते हैं

तेरे रूह के आकार का आंकलन करना
मुझसे तो कदापि संभव नहीं
हाँ! मगर मेरे रूह का आभाषी आकार
अब तुमको मुबारक़ हो

Thursday 25 May 2017

पथिक हो तुम

पथिक हो तुम
और मैं तो बस एक पड़ाव था
तुम्हारे जीवन काल के रास्ते का
शायद बीच का ही कोई हिस्सा कह लो तुम
मैं अपने से पिछले पड़ाव को जानता हूँ
जहाँ तुम कभी ठहरी थी ठंढी सांस ली थी
और साथ में ज़िंदगी के चंद यादगार लम्हें भी

पथिक हो तुम
एक ही पड़ाव पर पूरी ज़िंदगी बिताना
तुम्हारे रूचि का नहीं
हाँ! तुम्हारे लिए
जीवन के यात्रा में बदलाव जरूर है
तुम्हारे कदम आगे बढ़े
अब तुम अगले पड़ाव पर थी
और तुम्हारा वो पड़ाव मैं था
मैंने स्वागत किया तुम्हारा
हाँ! मगर जब भी
पिछले पड़ाव का ख़्याल आता था
मेरा मन दुखता था
मुझे ऐसा लगता था की मैंने
पिछले पड़ाव से उसका पथिक छीन लिया
ये ज़द्दोज़हद मुझे बहुत दिनों तक कौंधता रहा
मगर मैं भी तो एक पड़ाव ही था
एक पड़ाव दूसरे पड़ाव से पथिक कैसे छीन सकता है
पड़ाव स्थिर है और पथिक चलायमान
यह बात मुझे तस्सली देती थी
बाद इसके
हाँ ख़ुशी इस बात की थी
की मेरे पड़ाव पर एक पथिक का
चंद दिनों के लिए ठहराव था

पथिक हो तुम
तुझमे बदलाव को भाफने इल्म है
और बाद चंद दिनों के
तुमने खुद मुझमें बदलाव देखा था
तुम्हारे लिए मुझ पड़ाव पर के
सारे फूल सुगंध विहीन हो गए थे
सारे दरख्ते छाहँ विहीन हो गए थे
सारे पक्षी सुर विहीन हो गए थे
निर्मल जल अब पीने लायक नहीं था
बूढ़े दरख़्तों के फल सड़ने लगे थे
इतने बदलाव महशूस करने के बाद
तुमने मुझ पड़ाव का त्याग कर
और कदम अगले पड़ाव के लिए बढ़ा दिया

पथिक हो तुम
तुझमे पड़ाव के दर्द को महशूस करने की आदत नहीं
पड़ाव का दर्द तुम्हारे जीवन के गति को रोक देगा
और तुम हमेशा "कुछ नया" का अनुभव नहीं कर पाओगी

पथिक हो तुम
मैं तुम्हारे अगले पड़ाव को पहचानता हूँ
आत्मविश्वास के साथ यह नहीं कह सकता
की उसको अच्छी तरह से जानता हूँ
हाँ मगर वह पड़ाव तुम्हें अभी आनंद जरूर देगा
निश्चित ही तुम "कुछ नया" का अनुभव कर पाओगी
मुझे पता है पथिक स्वभावबस चलायमान होता है
जिस दिन मेरे से अगले पड़ाव पर तुमको
मुझ जैसा पड़ाव का ही अनुभव होने लगेगा
तुम्हारे कदम फिर से उसके अगले पड़ाव की ओर चल पड़ेंगे
तुम्हारे ज़िंदगी का रास्ता बहुत लम्बा है
और इसमें ढेर सारे पड़ाव भी आएंगे
तुम स्वभावबस एक के बाद एक पड़ाव को
पीछे छोड़ते हुए अपने जीवन में आगे बढ़ते जाओगी

हाँ! वास्तव में एक पथिक हो तुम 

Friday 19 May 2017

खूब हुआ बकवास

कि शूली पर यहाँ झूलते हैं माई के लाल
औ" खादी में हैं छुपे एक से एक दलाल

कि एक से एक दलाल करते हैं ता ता थैया
जहाँ भी देखो हैं इन्हीं के बाप या तो भैया

कि बाप हो या भैया हैं पकडे सबके ये रोटी
कहते कि चाहिये रोटी तो देना होगा बोटी

कि देना होगा बोटी नहीं तो ना गलेगी दाल
तेरे लिए तो है यहाँ अब सूखा और अकाल

कि सूखा और अकाल ग़ज़ब है इनकी माया
जनता भी लगी सोचने क्यूँ इससे भरमाया

कि क्यूँ इससे भरमाया अब नहीं सुनेंगे इसकी
चाहे बन जाये सरकार यहाँ अब जिसकी तिसकी

कि जिसकी तिसकी झोली में भी भरा हुआ है सांप
अपनी जनता सोचकर इस पर जाती है अब काँप

कहत कवि धरम हुआ खूब विकाश पर हास-परिहास
सब चलें अब अपने काम पर कि खूब हुआ बकवास

Thursday 18 May 2017

होंठ भी सिला बैठे

ज़िक्र-ए-यार पर फिर से हम भी हाँ में हाँ मिला बैठे
कि तेरे हरेक शिकवा को हम फिर से यूँ ही भुला बैठे

मेरे ख़्वाब से जो ऊँची है वो तेरे पैरों के तले भी नहीं
कि हम भी क्या सोचकर ये ज़मीं-आसमाँ मिला बैठे

अतीत में गए तो फिर हम वर्तमान में आ ही न सके
कि खुद को हम अपने ही आखों के पानी से जला बैठे

"धरम" हमने ज़िंदगी से इस तरह किनारा कर लिया
कि खुद ही अपनी जुबां काटी औ" होंठ भी सिला बैठे

Sunday 14 May 2017

अब माला लगे हैं जपने

निकले जो लुटिया डूबने को उनसे कैसे हो सत्कर्म
की पीटते हैं ढोल अपने नाम का करके सारे कुकर्म

कर के सारे कुकर्म भरी भीड़ में सब से आँख लड़ाये
लिए हैं स्वप्न मन में की जनता को भी खूब ये भाये

की जनता को भी खूब भाये सब उलटी सीधी इसकी
लगे हैं लोग कहने की क्या खूब पीते हैं ये व्हिस्की

उतरा नशा जब आशव का करने लगे सबको प्रणाम
अनायाश ही उनके मुख से भी फूट गया जय श्री राम

फूट गया जय श्री राम की अब लगे हैं माथा वो टेकने
उतारकर सर से टोपी "धरम" अब माला लगे हैं जपने 

Thursday 4 May 2017

किशोरावस्था में घुड़कना

तुमने थोड़ा सा वक़्त दिया था मुझे
खुद में पनपने को
मैं तब बस उस रिश्ते में
घुड़कना सीख ही रहा था
कभी तेरा सहारा मिलता
तो उसे थामकर
छन भर खड़ा हो पाता था
हाँ! मगर फिर गिरने के बाद
कराह नहीं निकलती थी दिल दुखता नहीं था
कुछ उम्मीद थी मन में

थोड़ा वक़्त और गुज़रा था तेरे साथ
मैं बिना सहारे
थोड़ी थरथराहट के साथ खड़ा हो पाता था
बाद उसके तेरे सहारे
मेरे पैर ज़मीं पर टिकने लगे थे

मुझे अब भी याद है
मैंने बिना चलने का अभ्यास किए
तेरे साथ सीधा दौड़ा ही गया था
मगर उस दौड़ के बाद
बुनियाद हिलने लगी थी

ये कहाँ पता था
की दौड़ने के पहले चलना आना चाहिए
वो पहली दौड़ ही आखिरी दौड़ हो गई
औ" बाद उसके
उस रिश्ते में घुड़कना भी मुमकिन न रहा

किशोरावस्था में किसी का घुड़कना
खड़ा होना और फिर एकदम से दौड़ पड़ना
बाल्यावस्था में घुड़कने खड़ा होने और फिर
एकदम से दौड़ने पड़ने से बिलकुल अलग होता है


Monday 1 May 2017

आधा दर्द पूरी ज़िंदगी

आओ
अपने-अपने जज़्बातों को
अब आधा-आधा बाँट लेते हैं
आधा तुम मुझमें जीना
आधा मैं तुझमें जीयूँगा

मैं अपनी संवेदनाओं को तुझमें देखूंगा
और तुम मुझमें देखना

आधे मेरे सपने तुम जीना
आधा तुम्हारा मैं जी लूंगा

फिर जीवन के चक्र में
बाकी का आधा तुम मुझको दे देना
और अपना पुराना आधा मुझसे ले लेना

यही क्रम मैं भी तुम्हारे लिए दुहराऊंगा
दोनों की पूरी ज़िंदगी मुकम्मल होगी
और इस तरह हम दोनों
एक दूसरे को पूरी तरह जी लेंगे

न मैं कभी अस्तित्व विहीन होऊँगा
औ" न तुम होगी

हाँ! मगर यह एक मिशाल होगा
आधा दर्द और पूरी ज़िंदगी का


Monday 24 April 2017

वो अँधेरे में आ गया

जो तुमने डाल दी रौशनी तो वो अँधेरे में आ गया
कि उजड़े हुए गुलसन पर एक और क़हर ढा गया

दिल जला ज़िस्म भी जला औ" राख़ हो गई सारी यादें
कि उस गर्दिश-ए-अय्याम को उसका चेहरा भा गया

जो दो रूहों की पैदाईश थी उसे दो ज़िस्म ने मार डाला
कि रूह का इस तरह मिटना सब के ज़हन में छा गया

मुर्दा जिस लाठी पर अपना ज़िस्म तौल लेता था 'धरम'
कि ज़माना उस सहारे को बस सेहत के लिए खा गया

Thursday 20 April 2017

चंद शेर

1.
इस ज़िंदगी में अब इससे बढ़कर और क्या जीना होगा
कि खुद अपने ही सीने का लहू "धरम" अब पीना होगा

2.
हरेक सिक्के का "धरम" एक ही पहलू यहाँ देखा जाता है
दूसरे पहलू पर हर रोज कुछ और धूल डाल दिया जाता है

3.
जो दरिया नहीं छलका तो मैं भी प्यासा लौट गया
कि मेरे ग़ुरूर पर 'धरम' कोई भी प्यास भारी न था

4.
क्या मुलाक़ात का बहाना लिखूं मोहब्बत का कौन सा अफ़साना लिखूं
तुम कहते हो "धरम" कुछ लिखने तो मैं अब तुमको ही ज़माना लिखूं

Friday 7 April 2017

चंद शेर

1.
ख़्वाब सारे आसमाँ से भी ऊँचे औ" हक़ीक़त सारे ज़मीं के अंदर
बस जिस्म ही है ज़मीं पर "धरम" यहाँ दिखते सारे उजड़े मंज़र

2.
मुझपर रहम अब और न कर ज़िंदगी तू मेरी हर राह में कील चुभा
जलाना है "धरम" तो पूरा जिस्म जला आग सिर्फ दिल में न लगा

3.
वो टूट कर बिखरा तो ज़मीं पर अपने होने का कई निशां छोड़ गया
मैं जो अकड़कर खड़ा रहा "धरम" तो नक्श-ए-पाँ भी न छोड़ पाया

4.
जब भी तुम्हें सराहा तो तेरा जी भर के दीदार भी किया
नज़र मिलाया भी "धरम" सीने के आर-पार भी किया

5.
इस उम्मीद में हैं की मोहब्बत का अंतिम पत्थर भी न खाली जाये
कि बिना दिया जलाये 'धरम' ज़िंदगी के ये आख़िरी दिवाली न जाये

6.
यहाँ ख़्यालों में जल रहा है हरेक लम्हा "धरम" अब पिघल रहा है
मैंने देखा था तो रंग कोई और था अब कोई और रंग निकल रहा है

7.
कभी रूह ज़िस्म के अंदर थी कभी जां ज़िस्म के बाहर था
जब डूबा था तो आशिक़ था जब निकला तब वो शायर था

8.
मुझे संभाला था ठोकरों ने औ" पत्थरों ने दिखाया था रास्ता
ज़माने के नेकी से 'धरम' अब तू ही बता मेरा क्या है वास्ता

9.
बाद तेरे हरेक लब पर 'धरम' मेरा नाम आता है
फिर झुकती हैं सारी नज़रें और तूफ़ान आता है 

Monday 3 April 2017

आँखें

कि रात भर कोई भी ख़्वाब देखने से डराती हैं आँखें
औ" दिन भर हर हक़ीकत से नज़रें चुराती हैं आँखें

न जाने कैसे-कैसे अंदाज़ में ये दिल दुखाती हैं आँखें
औ" होकर नम न जाने किस-किस को बुलाती हैं आँखें

कहीं मिलाकर नज़र से नज़र प्यास बुझाती हैं आँखें
औ" कहीं पशेमाँ होकर भी क्या खूब पिलाती हैं आँखें

तेरे बज़्म में न जाने कितने रंग दिखाती हैं आँखें
कि किसी को हँसाती तो किसी को रुलाती हैं आँखें

सारे ग़मों से रिश्ता कुछ इस क़दर निभाती हैं आँखें
कि पीकर पूरा समंदर 'धरम' हर दर्द छुपाती हैं आँखें

Monday 13 March 2017

चंद शेर

1.

जो मैंने दिखाया ज़ख्म तो एक और ज़ख्म मुझे मिल गया
तेरे इस करम पर "धरम" मेरे दुश्मन का सर भी झुक गया

2.
जब भी अपने क़द-ओ-कामत का "धरम" ख़याल आता है
वो दिल दुखने वाली अपनी हर बात पर मलाल आता है

3.
एक तो पतझड़ औ" उसपर आँधी का आलम
सूखे हुए पत्तों को तो "धरम" खो ही जाना है

4.
"धरम" मिट्टी का शेर काठ का राजा कागज़ का घोड़ा
ज़िन्दगी के इस शतरंज के खेल को कब तुमने छोड़ा

5.
अब ज़िन्दगी की महज़ एक और चाल बाद उसके शह और मात
'धरम' कर लो कितना भी आरज़ू-औ-मिन्नत मगर न बनेगी बात

6.
तेरा इश्क़ 'धरम' शुरूर से खुमारी तक आ गया
ये तबियत बुलंदी से अब बीमारी तक आ गया

7.
बाद तेरे मरने के 'धरम' मुझमे अब मैं पूरा ज़िंदा हूँ
है सीने में धुआं होठों पर ज़ाम अब मैं पूरा रिंदा हूँ

8.
मेरे चेहरे पर मेरा अपना ही चेहरा निखरना बाकी है
ग़ुलाम के बाद "धरम" बादशाह का उभरना बाकी है

9.
किसे सराहूं किसको छोड़ दूं है यह बड़ा मुश्किल काम
चुप रहूँ "धरम" तो हासिल न होगा कभी कोई मुक़ाम

10.
मिट्टी के मोल भी "धरम"हम बिक नहीं सके
ख़ाक के सामने भी हम कभी टिक नहीं सके

11.
किस मिट्टी को खोजता उड़कर तू आकाश
अँधेरे में है ढूंढता "धरम" कौन सा प्रकाश

12
खालीपन के बीच 'धरम' एक और खालीपन का एहसास
मानो उठे नज़र जब ऊपर तो कहीं दिखता नहीं आकाश  


Friday 3 March 2017

मैं चाहता हूँ

सच्चाई से रु-ब-रु हूँ मगर ग़फलत में रहना चाहता हूँ
ऐ! हुस्न इस बुढ़ापे में भी मैं तेरे साथ बहना चाहता हूँ  

जो कल की बात भी आपने उसपर गौर नहीं फ़रमाया
उसी मसले में मैं आज कुछ और भी कहना चाहता हूँ

वो शान से उठा हुआ सर औ" कितने सल्तनत का ताज़
अपने काँधे पर सर का बोझ अब नहीं सहना चाहता हूँ

ऐसा कोई जहाँ न चाहिए की रुकूँ तो गिरने का डर रहे
ऐ! ज़मीं अब मैं ता-उम्र तुमसे लिपटकर रहना चाहता हूँ

उसका जूता इसका सर औ" फिर हर ओर क़त्ल-ऐ-आम
तेरे इस जहाँ से "धरम" अब तो मैं बस चलना चाहता हूँ



Thursday 2 February 2017

ऐसा कोई भी न खिलौना आए

खुद अपने बदन के ज़ख्म पर अब न रोना आए
न रात न नींद और न ही वो ख़्वाब सलोना आए

ये फूल जिसके दामन के हैं उन्हें ही मुबारक हो
ऐसे फूल मुझे तो अपने गले में न पिरोना आए

ग़र मोहब्बत है तो बात आर या पार की होगी
मुझे तो इश्क़ में किसी को भी न डुबोना आए

कि यारों का खंज़र यार का ही सीना वाह रे दुनियाँ
मुझे तो दुश्मन को भी न कोई कील चुभोना आए

काठ की दुल्हन मिट्टी का घोडा या कागज़ का हाथी
मेरे दामन में "धरम" ऐसा कोई भी न खिलौना आए

Thursday 19 January 2017

मंज़िल-ए-मक़सूद के आगे भी

ज़हन्नुम के हक़ीकत का अंदाज़ा घर बैठे लगाने लगे हैं
की ठंढे पानी से लोग अब यहाँ मोम पिघलाने लगे हैं

बज़्म-ए-उल्फ़त में लोग खूब रंज-ओ-ग़म गाने लगे हैं
की जो निकले थे नेकी को वो यहाँ रंजिश पकाने लगे हैं

बात एक छोटी सी थी मगर क़त्ल-ए-आम कुछ यूँ बरपा
की यहाँ लोगों के साथ अब जानवर भी चिल्लाने लगे हैं

बात सिर्फ एक कदम लड़खड़ाने की थी नतीजा यूँ हुआ
की ना-उम्मीदी जहन में अब हर ओर से आने लगे हैं

वक़्त कदम-कदम पर तबज्जो भी खूब बदल देता है
की कई नए क़रीब आए कई पुराने दूर जाने लगे हैं

इन्सां ख्वाइशों के उलझन में कुछ यूँ फंस गए हैं "धरम"
की मंज़िल-ए-मक़सूद के आगे भी कदम बढ़ाने लगे हैं 

Thursday 12 January 2017

चंद शेर

1.
तेरे बज़्म में "धरम" मुझे कुछ इस तरह सजा दी गई
की मैं बोलने लगा तो शम्मा-ए-महफ़िल बुझा दी गई

2.
ऐ! ज़िन्दगी तू रेत का महल फिर न बना
अपने मुक़्क़र्र कब्र में रह हाथ-पैर न बढ़ा

3.
किसी और का दर्द "धरम" अपने सीने में उतार लिया
ऐ! मौत मैंने फिर तुझसे अपनी ज़िन्दगी उधार लिया

4.
जिसे समझ था उल्फत "धरम" हक़ीकत में वो एक ख्वाब था
तेरे बज़्म में आना बस उसका चुकाना एक पुराना हिसाब था

5.
जब भी मंज़िल की ओर चला "धरम" फ़ासला और बढ़ता ही गया
की मुक़द्दर ज़मीं पर रेंगता रहा औ" हौसला हवा में उड़ता ही गया


6.
हस्र-ए-ज़िन्दगी "धरम" अब तो इस मुक़ाम पर है
जो लब खुले तो सिर्फ निकलती दुआ जुबान से है

7.
जो गर्क-ए-दरिया से निकल तो अब किनारा नहीं ढूंढता
मैं अपने ज़ीस्त में "धरम" अब कोई सहारा नहीं ढूंढता

8.
जो रखते हो दिल माथे में तो सीने में दिमाग भी रखो
की अपने हिस्से में "धरम" कुछ चीज़ नायाब भी रखो

9.
तेरी इस आह! पर "धरम" लब खामोश रहे दिल फट गया
फ़ासला-औ-नज़दीकी के दरम्यां जो भी था वो मिट गया