Monday 26 January 2015

तेरा नक्श-ए-दिल

तेरे इश्क़ के जज़्बे को सलाम करता हूँ
मैं आज ये एलान-ए-आवाम करता हूँ

खुद्दारी मुझमे भी जगी है तुमको देखकर
मैं खुद को तेरे हुस्न का ग़ुलाम करता हूँ

मेरे सीने पर तेरा नक्श-ए-दिल अब भी है
बस छूकर उसे मैं याद-ए-तमाम करता हूँ

मुमकिन है वो हमें कभी भुला भी दे "धरम"
मगर मैं ये शेर उसके याद-ए-कलाम करता हूँ



Saturday 24 January 2015

ज़ख्म दिखाया नहीं करते

इसे रहने दो ये पुराना ज़ख्म है इसे कुरेदा नहीं करते
दिल को टुकड़ों में बिखेरकर फिर से जोड़ा नहीं करते

तेरे दरिया-ए-हुस्न से मैं हर बार तिश्नकाम लौटा हूँ
उसकी नुमाइश करके मेरी प्यास बढ़ाया नहीं करते

फूल में काँटे पिरोने का इल्म तुमने बहुत खूब सीखा है
बस चुभोकर सीने में कील दूसरों को तड़पाया नहीं करते

अपने सीने के लहू का तुम भरे बाज़ार मोल-भाव करते हो
हम तो वो हैं "धरम" जो अपना ज़ख्म दिखाया नहीं करते

Saturday 17 January 2015

कितने मिटे

कई पगड़ी झुके और कई सर भी कटे
एक तेरे इश्क़ में न जाने कितने मिटे

तेरे आने की खबर से जो ये शहर सजे
न जाने कितने दरख़्त अपनी जमीं से कटे 

Thursday 15 January 2015

ज़िंदगी की मुश्किलें

ज़िंदगी से शिकस्त भी खाया है ज़माने ने सिखाया भी है
गैरों से जो नामुमकिन था उसे अपनों ने दिखाया भी है

ज़िंदगी की तमाम शोहरतें अपने हाथों से मिटाया भी है
कोरे कागज़ पर गुमनामी खुद किस्मत ने लिखाया भी है

गैरों की सरजमीं पर इश्क़ का मकाँ मैंने बनाया भी है
मेरे हरेक रक़ीब ने तो उसका एक-एक ईंट लुटाया भी है

ताउम्र प्यासा रखकर बुढ़ापे में खून का घूँट पिलाया भी है
ज़िंदगी के हरेक लम्हे को कुरेदकर उसने मुझे रुलाया भी है

अपने मुहब्बत की याद में मैंने उसका एक बुत लगाया भी है
ज़माने के नज़र से अपने ही बुत को खुद उसने चुराया भी है

पत्थर से दिल में मैंने "धरम" जज़्बात भरा रिश्ता उगाया भी है
उसने रिश्ते को दफनाकर ज़िंदगी की मुश्किलों को बताया भी है 

Wednesday 7 January 2015

हो जाने दो

बांह पसारो मुझे अपने आगोश में ले लो
दो मुट्ठी लम्हा तुम मुझे मदहोश के दे दो

धड़कन को धड़कन से मिलकर जवाँ होने दो
मोहब्बत को यूँ हीं ख़ामोशी से बयाँ होने दो

किसे पता है जवानी की कब्र कब सज जाए
मगर अभी जो हो रहा है उसे यूँ हो जाने दो

इतने पत्थर अपने सीने में छुपाकर रखे हो
कुछ को तो अब पिघल कर निकल जाने दो

इतने जज़्बातों को तुम दफ़न कर के रखे हो
जो उसमे से कुछ निकले तो निकल जाने दो

बहती हवा की ऊँगली पकड़ो और संग हो चलो
अगर इससे छूटता है ये जहाँ तो छूट जाने दो

Sunday 4 January 2015

कब्र सजाना बाकी है

दिल जल चुका है अब जिस्म जलना बाकी है
मेरे अरमानों का कुछ और मचलना बाकी है

वो पत्थर अभी पूरी तरह से गिरा नहीं है मुझपर
सर कुचला गया है अब जिस्म कुचलना बाकी है

मेरे आँख के लहू का दरिया है जो तेरे शहर तक फैला है  
गैर तो इससे निकल चुके हैं तुम्हारा निकलना बाकी है

तेरी वो दरियादिली और मेरा ये ज़ख्म-ए-दिल "धरम"
महफ़िल कई बार सज चुकी है अब कब्र सजाना बाकी है

चंद शेर

1.

चीरकर अपना सीना वो लम्हा निकाल फेंकूँ
कि अब तो मैं सुकूँ पाऊँ ज़िंदगी आसाँ बनाऊँ

2.

उसका सितम मुझपर करम बनकर बरस पड़ा
मुझे अब यकीं है पत्थर में कोई ख़ुदा बसता है

3.

हवस यूँ ही बे-पर्दा होकर नाचता है सड़क पर
इश्क़ परदे में जवाँ है इज्ज़त से रहता भी है