जब भी कुछ लिखा कागज़ की शक्ल खराब हुई
औ" ग़र खुल गई ज़ुबाँ तो ज़िंदगी ही अज़ाब हुई
ज़िंदगी जब तलक ग़म के साये में थी महफूज़ थी
वो ग़म न था ख़ुशी थी जिससे ज़िंदगी यबाब हुई
वो एक ख्वाईश थी जो मिल भी गई तो कुछ नहीं
पहले भी न कभी दिल जला न ज़िंदगी बेताब हुई
ख़ुद ही के दो अलग-अलग किरदार को मिलाया
न तो सूरत-ए-कलम हुआ न सीरत-ए-ज़काब हुई
उसके हर बात पर अड़ा रहने का नतीजा 'नीरस'
न तो ओहदा ऊँचा हुआ न ही शक्ल नायाब हुई
औ" ग़र खुल गई ज़ुबाँ तो ज़िंदगी ही अज़ाब हुई
ज़िंदगी जब तलक ग़म के साये में थी महफूज़ थी
वो ग़म न था ख़ुशी थी जिससे ज़िंदगी यबाब हुई
वो एक ख्वाईश थी जो मिल भी गई तो कुछ नहीं
पहले भी न कभी दिल जला न ज़िंदगी बेताब हुई
ख़ुद ही के दो अलग-अलग किरदार को मिलाया
न तो सूरत-ए-कलम हुआ न सीरत-ए-ज़काब हुई
उसके हर बात पर अड़ा रहने का नतीजा 'नीरस'
न तो ओहदा ऊँचा हुआ न ही शक्ल नायाब हुई