Friday 20 December 2019

चंद शेर

1.

कि बाद एक सांस के दूसरे सांस को सीने में उतरने में अब वक़्त लगता है
ये कैसा वक़्त आया "धरम" जिसे भी देखो वो आदमी बड़ा सख्त लगता है

2.

कि सिर्फ मेरा लहू ही शामिल न था  उस बुत को इन्सां बनाने में
ताल्लुकात हज़ारों लम्हों का पिरोया था 'धरम' उसमें जॉ लाने में

3.
वो शर्त ये थी कि बाद इन्तहाँ के भी न कभी ज़ख्म दिखाया जाए
न कभी आह निकले "धरम"  न कभी ग़म-ए-दास्ताँ सुनाया जाए

4.
जायका भोजन का हरेक निवाले में 'धरम' बदल जाता था
न जाने किस-किस का लहू शामिल था  उस एक थाली में

5.
कि ताज नापसंद था सर पर इसलिए हमेशा सर को झुकाए रखा
अपने इस हुनर से "धरम" उसने हमेशा ज़माने को भटकाए रखा

6.
इस हुनर से "धरम" वो हमेशा मेरे दिल में उतर कर आया
कि वो जब भी मेरे पास आया  पंख अपने कुतर कर आया

7.
कि जो भी सुबह तक जला 'धरम' चौखट उसकी रौशन रही शब भर
न जाने कितनी साँसे टूटी थी  एक गर्दन को खड़ा रखने में अदब भर 

Sunday 15 December 2019

एक अलग ही अंदाज़-ए-बयाँ कर दिया

कि जहाँ से  जैसा भी मुझे  ख़्याल  आया मैंने सब कुछ  बयाँ कर दिया
दिल के एक हिस्से में आग लगाई औ" दूसरे हिस्से को धुआँ कर दिया

ज़िंदगी के  हरेक कदम  के लिए  कई टुकड़ों में  अपनी ज़मीं तलाशी
औ" बाद उसके  तलाशे  ज़मीं के सारे टुकड़ों  को  आसमाँ कर दिया

वो सबसे पुरानी  किताब  निकाली जिसमें कभी  एक ग़म महफूज़ था
मैंने फिर से पढ़ा औ"  एक-एक  हर्फ़ को ग़मों का आशियाँ कर दिया 

वो एक आवाज़  उठी थी  तो तख़्त  हरेक  सियासत का हिल उठा था
हुक़ूमत ने  उस हरेक शख़्स को तलाशा  औ"  फिर बेज़ुबाँ कर दिया

वो बस एक चिंगारी थी मगर जो आग दिलों में जली बहुत भयावह थी
आग ठंढी तब हुई जब उस घर में  अलग-अलग  कई मकाँ कर दिया

'धरम' वो बात जो मुझसे निकली थी वो मुझ तक फिर से पहुँच तो गई
ज़माने ने बात भी बदली औ" एक अलग ही  अंदाज़-ए-बयाँ कर दिया

Thursday 21 November 2019

एक ग़ुमनाम शहज़ादा ही रहा

दाग दामन में बहुत लगे  फिर भी  किरदार सादा ही रहा
कि ऐ ज़माना तुमको यकीं मेरे ऊपर कुछ ज़्यादा ही रहा

ज़ख्मों से न तो कभी दिल जला न ही बदन में आग लगी
दरम्यां  ज़ख्मों के सुलगकर जीने का बस इरादा ही रहा

ख़ुद अपने ही दिल में एक लकीर खींची फ़ासला बनाया
मैं दिल के दूसरी ओर था एक ग़ुमनाम शहज़ादा ही रहा

पूरा का पूरा ज़िस्म सिमटकर  मेरे दिल में समा गया था
बावजूद इसके भी ज़िस्म उसका 'धरम' कुशादा ही रहा 

Tuesday 15 October 2019

चंद शेर

1.
रहने दो "धरम" अब इस दिल-ए-ज़ख्म को और ताजा न करो
फिसल जाएगी दोनों ज़िंदगी  ग़र साथ रहने का इरादा न करो

2.
कि भूलने का हुनर या ना भूलने का तरीका "धरम" कुछ भी याद नहीं
बाद एक मौत के दूसरी मौत क्या कहें यहाँ अब मौत भी आबाद नहीं

3.
मुर्दे में पहले जाँ डालता है 'धरम' फिर ज़िस्म छीन लेता है
करके इश्क़ का आगाज़ बाक़ी हर रिश्ते को लील लेता है

4.
एक मुद्दत से 'धरम' तन्हाई को ओढ़े ग़ुमनाम है ज़िंदगी
इश्क़ में सब कुछ लुटाकर भी  कहाँ आवाम है ज़िंदगी

5.
जब बदन पर वतन की मिट्टी मला  चमन का राख लगाया
तब जाकर 'धरम' दरख़्त-ए-इश्क़-ए-वतन का शाख पाया

6.
ढ़लती उम्र की जवानी 'धरम' फिर कहाँ कोई कहानी लिखती है
एक दरिया बहाने के बाद उम्र फिर कहाँ कोई रवानी लिखती है

7.
रात को ओढ़कर "धरम" जब शाम सुबह तक जलती है
तब ख़ुद सुबह पूरे दिन को समेटकर शाम से मिलती है 

Monday 16 September 2019

तब कहीँ जाकर सही फ़ैसला होता है

जब कभी कल और आज में एक उम्र का फ़ासला होता है
तब हर वक़्त तन्हाई में भी एक एहसास-ए-क़ाफ़िला होता है

जब चमन से ज़ख्म निकलता है तो रुह काला पड़ जाता है
"औ" आँखों में बाद एक ज़लज़ले के दूसरा ज़लज़ला होता है

तीरगी के फ़िज़ा में उम्मीद-ए-रौशनी यूँ ही नहीं मिलती
चिराग़-ए-दिल जलाए रखने का एक अलग हौसला होता है

हर ज़िस्म यूँ ही ग़म को अपने अंदर पनाह नहीं दे सकता
ग़म को सुकूँ से सुलाने का एक अलग ही मरहला होता है

एक ही ज़िस्म में दिल-औ-दिमाग दोनों को बखूबी संभालना
ज़िस्म में दिल या दिमाग किसी एक का अलग घोंसला होता है

जब भी दरम्यां दो दिलों के "धरम" कोई भी मसअला होता है
चारों आँखें बंद होती हैं तब कहीँ जाकर सही फ़ैसला होता है  

Wednesday 21 August 2019

ये कौन सा रिश्ता है निभाने के लिए

कि हर बार उसके  हर्फ़ में  मुझे अपना हर्फ़ मिलाने के लिए
ख़ुद को ही मारना पड़ता है  उसको ख़ुद में  जिलाने के लिए

ज़माने की छुरी से सामने  उसके अपने ही ज़िस्म को काटना
कि न जाने क्या-क्या करना पड़ता है एक दर्द जताने के लिए

जब ख़ुद से ही बे-हिसाब उम्मीद लगाए बैठे हैं तो क्या कहने
अपनी ही नींद उधार लेनी पड़ती है  ख़ुद को  सुलाने के लिए

बस आह! निकलती है  दूर तक फैले वीरां दश्त को देखकर
आज यहाँ कोई भी तो नहीं है  मुझे वापस घर बुलाने के लिए

हर ख़्वाब हकीकत था  हर लोग अपने थे  जब जाँ बाक़ी थी
जब जाँ निकली  पास कोई भी न था मुर्दे को सजाने के लिए

खुली आँखों से हकीकत भी नहीं दिखता  तो ख़्वाब का क्या
कभी नींद भी तो आती नहीं  कोई भी ख़्वाब दिखाने के लिए

ख़ुद पर हुए मुसलसल ज़ुर्म का नतीजा  अब और क्या होता
दर्द-ओ-आँसू  दोनों उधार लेता हूँ  ख़ुद को  रुलाने के लिए 

प्रारम्भ मध्य या अंत किसी का कुछ भी तो पता नहीं चलता
दरम्याँ हमारे  ये कौन सा रिश्ता है  "धरम"  निभाने के लिए

Tuesday 20 August 2019

कुछ भी तो बचा न था उस सहारे में

न जाने क्या-क्या कह गया  वो एक लम्हा बस इशारे में
लोग समंदर तैर के आ  गए मैं बस बैठा रहा किनारे में

हरेक साँस पर अब क्या  कहें बस दम ही निकलता था 
देखने को और  कहाँ कुछ  रह  गया था  उस  नज़ारे में

ता-उम्र  वो जानते रहे  कि मेरे ज़िंदगी का  सहारा वो थे
बाद मेरे मरने के  कुछ भी तो बचा  न था उस  सहारे में

एक अजनबी  आवाज़ थी  जो मेरे कानों तक आ रही थी
देखा गौर से  मगर कोई चेहरा न उभरा उसके पुकारे में

जहाँ सूखा था दरिया 'धरम' वहाँ कैसे फिर उफान आया 
हम सोचते रहे कुछ भी पता न चला कुदरत के इशारे में 

Monday 19 August 2019

चंद शेर

1.
वो दीपक बुझने के बाद "धरम" रात अमावस की यूँ ठहर गई
कि मैं वहीँ खड़ा का खड़ा रह गया औ" पूरी ज़िंदगी गुज़र गई

2.
क्या कि दर्द-ए-इश्क़ का इलाज़ हो न सका और मर्ज़ बढ़ता ही गया
बाद एक एहसान के 'धरम' दूसरा एहसान और कर्ज़ बढ़ता ही गया

3.
जो उड़ के ग़ुबार दामन तक आ गया तो न जाने "धरम" कितने ज़ख्म छुपा गया
चेहरे पर अब दर्द की ख़ुमारी दिखाई नहीं देती ज़ीस्त किसी और रंग को पा गया

4.
मंज़िल को पाने की उम्मीद पूरी तरह से टूटी न थी इसलिए रास्ता बदल लिया था
मंज़िल को पाने से पहले मिले सारे सोहरत को 'धरम' मैंने ख़ुद ही निगल लिया था

5.
उसने ग़ुबार सिर्फ मेरे ज़िस्म से हटाया आँखों में रहने दिया
फिर अपनी महफ़िल में 'धरम' उसने मुझे कुछ कहने दिया

6.
हर मुलाक़ात में उसने बस एक एहसान उतारा मुझपर
करके मेरी ऑंखें नम 'धरम' क्या-क्या न गुजारा मुझपर

7.
दवा तब दी गई थी "धरम" जब ज़ख्म ख़ुद-ब-ख़ुद भर आया था
शोहरत भी तब मिली थी जब एक दाग दामन में उभर आया था

8.
ज़िस्म को जब से "धरम" दो रूहों ने घेर रखा है
ज़माने ने तब से उस ज़िस्म से नज़र फेर रखा है

9.
कि उसका क्या अंदाज़-ए-ज़माना है एक अलग ही फ़साना है
क्या कहें "धरम" दिल से दिल मिलाना है  औ" दिल दुखाना है

Friday 9 August 2019

ख़ुद से भी कुछ कहता नहीं

अश्क़ सूख गए आँखें नम  नहीं होती  दिल  बुझता नहीं
उसकी  नज़र से  अब तो कहीं भी  चिराग़  जलता नहीं

महफ़िल में  हर बात पर  बस  झुककर  सलाम करना 
क्या  कहें  सामने तेरे  अपने कद का  पता चलता नहीं

जिसको  हमने   इश्क़ समझा  वो तो  कभी था ही नहीं
एक बुझा  चिराग़ था  वहाँ अब  भी  कुछ  मिलता नहीं

बस  एक  महफ़िल  लूटी गई तो  दिल ऐसा  तन्हा हुआ
कि  हद-ए-निगाह  तक  अब कहीं भी दिल लगता नहीं

बस एक बात कही थी "धरम" दिल टुकड़ों में बँट गया 
अब तो ऐसे ख़ामोश हैं कि ख़ुद से भी कुछ कहता नहीं 

Wednesday 7 August 2019

एक किरदार में दूसरे किरदार को जिला दिया गया

अभी तो मैंने कुछ कहा भी न था  औ" फैसला सुना दिया गया
इश्क़ के समंदर में फिर से  ज़हर नफरत का फैला दिया गया

फिर वो बात मोहब्बत से की गई फिर वो ज़ख्म सहलाया गया
बाद सहलाने के  ज़ख्म को फिर से कुरेदकर  रुला दिया गया

यहाँ तो हर बात अजीब लगती है  हर चेहरा अजनबी लगता है 
ऐसा क्यूँ हो गया कि  यहाँ हर ज़ुबाँ औ" शक़्ल भुला दिया गया 

किस उम्मीद से तराशा था पत्थर ये कैसी सूरत उभरकर आई
एक बार भर नज़र देखा फिर उस उम्मीद को सुला दिया गया 

जब भी देखा  उसका एक ही चेहरा  कई शक़्ल में  नज़र आया
आँख मूँदकर  हरेक शक़्ल को  एक-दूसरे से  मिला दिया गया

एक ही बात पर  कभी बेबाक़ हुए कभी तो दिल थामकर बैठा 
कि एक किरदार में दूसरे किरदार को 'धरम' जिला दिया गया

Monday 29 July 2019

हर चेहरा उभर कर चला

महफ़िल में दौर जब ज़हर कर चला
हर सैलाब उस महफ़िल में ठहर कर चला

रुख़सत के वक़्त के लम्हों का क्या कहना 
एक-एक लम्हा मानो कहर कर चला

कई ज़िंदगी के बाद एक मौत नसीब हुई थी
अब तो मौत पर भी ज़िंदगी का लम्हा असर कर चला

जब उसे माँगने पर मौत भी उधार में न मिली
तो अपनी ज़िंदगी वो यूँ हीं किसी को नज़र कर चला

बुलंदी और ज़िंदगी पाने को एक हुजूम चल रहा था
वो देकर अपनी मौत हर सोहरत को सिफर कर चला

जब उसे किसी भी रास्ते का कोई अंदाजा ही नहीं रहा
तब वो अपने ही खून के दरिया में निखर कर चला

उसके अंजुमन में कद्रदान जब गैर को निहारने लगे
तो ख़ुद अपने ही अंजुमन से वो बिफर कर चला

याद किसी और की आई चेहरा कोई और सामने आया
जो भूलना चाहा "धरम" तो हर चेहरा उभर कर चला

Sunday 28 July 2019

सबका जनाज़ा किया गया

कि हर दीवार ऊँची करके मेरे कद को छोटा किया गया
खरा सोना था  मुझे पत्थर पर रगड़कर  खोटा किया गया

रुस्वा तो सिर्फ नाम हुआ था सज़ा पूरे ज़िस्म को यूँ मिली
पहले क़त्ल किया फिर उस क़त्ल का तमाशा किया गया 

अपने हुदूद-ए-ग़म  का मुझे कभी ख़ुद  ही अंदाज़ा न था
पहले तो  ज़माने ने हिसाब किया  फिर धोखा किया गया

मेरे लिए हर किसी का लिखा कलाम नश्तर बन गया था
करके क़त्ल ज़िस्म पर ज़ख्म न देने का वादा किया गया

रिश्ते में जब से ज़ुल्म शुरू हुआ  तब से ज़िंदगी शुरू हुई
हर ज़ुल्म के बाद  उससे मिले मौत को  आधा किया गया

शक़्ल  उसकी थी  नग़मा मेरा था  आवाज़  रक़ीब की थी
एक ही ख़्वाब के बाद "धरम" सबका जनाज़ा किया गया 

Friday 26 July 2019

जहाँ तो सितारों के आगे था

कि हर वक़्त फूलों  को पैरों तले रौंदा औ" काँटों पर सोया
ज़ीस्त तू मुझे ये मत  बता मुझे कितना खोया कितना पाया

आँखों से जब भी  अश्क छलकते हैं  उसे छलक जाने दो
ज़िंदगी से तुम कभी  हिसाब मत करना  कि कितना रोया

मौसम हिज़्र का है  बारिश लहू की है  हर अश्क प्यासा है
आओ कहीं दूर चलें  यहाँ न  जाने फैला है किसका साया

कल तुझको  पलट के देखा था  अब फिर कभी न देखूंगा
कल मेरी साँस फूली थी  पूरा का पूरा मन भी था भरमाया

तेरा ज़मीं पे  कुछ न था तेरा जहाँ तो सितारों के आगे था
भटकाकर ज़मीं पर खुद को "धरम" तुम कितना भुलाया

Tuesday 23 July 2019

यूँ ही मालिक का सर नहीं झुकता

ख़्वाब कैसा भी हो उसे भर नज़र देखना जरुरी होता है
ये हम कैसे कह दें कि इश्क़ का हर रंग सिंदूरी होता है

ये सारे सामईन को कद्रदान समझूँ या फिर ग़ुलाम तेरा
तेरी महफ़िल में हर किसी का जवाब जी हुज़ूरी होता है

कैसे कह दें कि ये बोझ अब तो कभी न उठाया जाएगा
यहाँ अपनी लाश अपने कंधे पर ढ़ोना रोजगारी होता है

एक ज़िस्म दो रूहों को अपने अंदर कब उतार लेता है 
जब दोनों रूहों  का दोनों जिस्मों  पर सरदारी  होता है

ग़ुलाम के क़दमों में यूँ ही मालिक का सर नहीं झुकता 
दोनों एक अलग ही  दर्ज़े का "धरम" व्यापारी  होता है

Tuesday 9 July 2019

दर्द

दर्द किसी पेड़ का कोई एक फल नहीं होता
वह तो पूरा का पूरा दरख़्त होता है
जिसकी जड़ें किसी भी सीने की गहराई से
ज़्यादा गहरी होती है
दर्द को सीने में समेटना
इसीलिए मुमकिन नहीं होता

दर्द महज़ एक एहसास नहीं होता 
वह तो कई एहसास से मिलकर बनता है
जो सीने के परत-दर-परत को चीरते हुए
सीने से बाहर निकल जाता है
बाद इसके बाक़ी सारे एहसास
बिना किसी रुकावट के
सीने के आर-पार होते रहते हैं

दर्द कभी भी सीने के किनारे से नहीं गुजरता
वह समान रूप से सीने में फैलता 
हर एहसास को
छूता-टटोलता जिलाता-मारता निकल जाता है 
अपने पीछे प्रश्न छोड़कर
कि दर्द पैदा होता है बढ़ता है
मगर बूढ़ा क्यूँ नहीं होता मरता क्यूँ नहीं ?

Wednesday 3 July 2019

चंद शेर

1.
क्यूँ किनारा नहीं लगती ज़िंदगी  क्यूँ कोई ख़्वाब उभरकर नहीं आता
बहार के मौसम में भी "धरम" क्यूँ कोई हिज़्र भी उभरकर नहीं आता

2.
अपने पाँव तले अपनी ज़मीं कब थी "धरम" अपने सर के ऊपर अपना आसमाँ कब था
अपनी ज़िंदगी कितने ही कब्र से होकर गुजरी मगर उसमें कोई भी अपना जहाँ कब था

3.
ज़िंदगी इस शक्ल से गुज़री "धरम" कि हर हद तक नासाज़ रही
लिखने के लिए न हाथ रहा बोलने के लिए न मुँह में आवाज़ रही

Saturday 15 June 2019

दिल मरोड़ना पड़ता है

हर बार ख़त मोहब्बत का लिखने से पहले कलम तोड़ना पड़ता है
दिल में कोई भी आरजू पैदा करने के लिए दिल मरोड़ना पड़ता है

कोई इश्क़ कब तक ज़िन्दा रहता है इसका कुछ भी अंदाज़ा नहीं 
मगर हाँ! ज़िन्दा इश्क़  को देखने के लिए  आँख फोड़ना पड़ता है 

कोई एक तहज़ीब दूसरे किसी तहज़ीब से यूँ ही नहीं जुड़ जाता है
कि दोनों के मिट्टी से मिट्टी औ" पानी से पानी को जोड़ना पड़ता है 

ऐ हुस्न-ए-बेपरवाह तुझसे बचकर  निकलना कुछ आसान तो नहीं 
लिए इसके हर दिल को हर बार  ख़ुद-ब-ख़ुद  सिकुड़ना पड़ता है

फ़ैसला ख़ुद अपने ही दिल का  ख़ुद को भी  यूँ ही मंज़ूर नहीं होता 
कि ख़ुद ही से ख़ुद को "धरम" कई बार तन्हाई में लड़ना पड़ता है 

Monday 3 June 2019

चंद शेर

1.
अब तो थक चुका हूँ "धरम" बुरा सुनते सुनते भला कहते कहते
अब तो कुछ भी असर नहीं होता इस तरह ज़माने में रहते रहते

2.
नग़मा अब कोई ज़ुबाँ पर आता नहीं किसी भी ज़ख्म पर अब दिल दुखाता नहीं
मौत से पहले मौत की बात "धरम" अब तो ग़ुबार उड़ाता नहीं दिल जलाता नहीं

3.
बाहर तन्हा चारदीवारी अंदर हिज़्र में लिपटे एक-एक जज़्बात
क्या कहें अब तो "धरम" ख़ुद से भी ख़ुद की होती नहीं है बात  

Saturday 1 June 2019

हर ओर ज़िस्म लहराता रहा

जो छलक कर जाम प्याले से ज़मीं पर गिरा तो वो सूखता रहा
कितने सारे हलक़ प्यासे थे मगर हर हलक़ सिर्फ तरसता रहा

ज़िंदगी रेत की  तरह थी  मुट्ठी से हर वक़्त  बस  सरकती रही
ज़मीं पर गिरी  धूल में मिली  वह  सिर्फ भर नज़र  देखता रहा

वो  इश्क़ मोहब्बत उल्फ़त  सब का  बज़्म में  एक ही रंग रहा
वो सब  बस कदम ही चूमती रही हर ओर ज़िस्म लहराता रहा

रूह को जब शक्ल मिली  तो आईने ने उसको भी नकार दिया
ज़िस्म से निकलकर  रूह जाता रहा  ज़िस्म  बस पुकारता रहा

हुनर पर यकीं था  तो ज़माने से  न जाने क्यूँ  उम्मीद  लगा बैठे
उम्मीद के तराजू पर हर हुनर "धरम" बस उम्र भर झूलता रहा 

Tuesday 7 May 2019

अब तक न हुआ

कि जब तक  शबाब-ए-हुस्न था  ज़िक्र-ए-इश्क़  तब तक न हुआ
एक आग  सुलगती  रही बदन में रूह  शादाब अब तक न हुआ

जब यार पर  ऐतबार न  किया मज़ार-ए-यार पर सज़दा न किया
ज़माने में  हद-ए-निगाह  तक  कोई भी  अपना अब तक न हुआ

दरम्यां दोनों  रूहों के न  सिर्फ दीवार उठाई  गई  बुलंद भी हुई
बाद दीवार  गिरा  दी गई  मगर हर्ष-ए-विसाल  अब तक न हुआ

हर जंग-ए-ज़िंदगी में न सिर्फ  शिकस्त खाई मिट्टीपलीत भी हुआ
मौत तो क्या  ज़िंदगी के साथ  चलने का साहस अब तक न हुआ

ज़िंदगी के हर आग से आग के रिश्ते को 'धरम' पानी करता रहा 
हाँ मगर उस रिश्ते के पानी को छूने का साहस अब तक न हुआ

Tuesday 30 April 2019

चंद शेर

1.
न कुछ मैंने पूछा न कुछ उसने कहा औ" दरम्यान दोनों के सन्नाटा चीखता रहा
बात न तो नज़र से बयां हुई न ही ज़ुबाँ से 'धरम' वो वक़्त मुसलसल काटता रहा

2.
मुलाक़ात के हर रश्म को मैंने अंतिम संस्कार के तरह अदा किया
कि बाद उसके मैंने उससे 'धरम' फिर कभी नहीं कोई वादा किया

3.
इसी से ज़ख्म का 'धरम' अंदाज़ा लगा कि हर मरहम उस ज़ख्म पर सादा लगा
ढूंढती रही ज़िंदगी ख़ुद को मिट्टी में ज़मीं से उठने का फिर न कोई इरादा लगा

4.
मैंने तो दम तोड़ ही दिया है  "धरम" मगर जज्बा में दम अब भी बाकी है
मंज़िल पर पहुंचने के बाद भी लगता है की  कुछ और भी कदम बाकी है

5.
पहले इश्क़ हुस्न से शर्मिंदा था अब हुस्न इश्क़ से शर्मिंदा है
"धरम" तो पहले दीवाना था मगर अब क्या कहें वो रिंदा है

6.
हर बार मेरा ही चिराग-ए-लौ "धरम" हवा के ज़द में था
तूफाँ जब भी आया  मेरा घर हर  बार उसके  हद में था

7.
ये नासाज़ी ऐसी है कि  हर दुआ बे-असर है  औ" है हर दवा नाकाम
भूत इश्क़ का जब न तो चढ़े न उतरे "धरम" तो यही होता है अंज़ाम 

Tuesday 23 April 2019

रास्ता ख़ुद ही मुड़ जाता है

वक़्त हर  रोज  क्यूँ  रात  की दहलीज़ पर छोड़  जाता है
सुबह होने  से पहले  ही  वो मुझसे  रिश्ता तोड़  जाता है

कि हर शाग़िर्द मुझसे मिलकर  मुझे ही  तन्हा  करता है
वो हर रोज़  हिज़्र की  दीवार में  एक ईंट  जोड़  जाता है

जब चला था तो मैं  मेरी किस्मत औ" रहबर सब साथ थे 
क्यूँ मंज़िल क़रीब आते ही रास्ता ख़ुद ही  मुड़   जाता है

जब पास मेरे मसीहा औ" क़ातिल एक ही शक्ल में आए
तो मौत औ" जीवन दोनों "धरम" मुझसे बिछड़ जाता है

Wednesday 3 April 2019

चंद शेर

1.
जाने किस उम्मीद से  "धरम"  वो ख्वाईश फिर जगी
कि मेरे हलक़ में क्यूँ बुझी हुई पुरानी आग फिर लगी

2.
समंदर ने तो ता-उम्र प्यासा रखा प्यास अपने ही बदन के पानी ने बुझाई
अंत में  ख़ुद अपने ज़िस्म में "धरम" ख़ुद अपनी ही साँसों ने आग लगाई

3.
न ही कहीं कोई नज़र प्यासी है  न ही तस्सबुर में कोई चेहरा उभरता है 
कि सीने में न ही कोई साँस बाक़ी है 'धरम' न ही कभी दिल धड़कता है  

Friday 29 March 2019

कभी ऐसे तो न चाहा तुमको

कभी ऐसे तो  न चाहा तुमको कि  तेरे जाने का  कोई मलाल होता
जब कोई अरमाँ  थी ही नहीं तो  ऐसा कुछ  न था जो  हलाल होता

हमारे ज़िस्म साथ  तो बसर करते मगर  रूह दोनों के अलग रहते
दरम्यां दोनों  अलग-अलग  रूह में  कहाँ कुछ था जो सवाल होता

यूँ तो बस  मन रखने को  हम दोनों ने  कह दिया था रिश्ता उसको 
रिश्ते को  ज़िस्म रूह  कुछ हासिल  न था तो कैसे वो पामाल होता 

साथ रहते दो  ज़िस्म जिसे  ख़ुद  अपनी-अपनी रूहों का पता नहीं
बिना जज़्बात  के ग़र वो दो ज़िस्म  मिलते भी तो क्या विसाल होता

अपनी-अपनी धुन में रहने वाले दो  ज़िस्मों के  अपने-अपने सवाल
ग़र किसी अनसुने सवाल का जवाब होता भी तो क्या कमाल होता

बिना किसी सवाल  के ग़र जवाब ढूंढती  ज़िंदगी भी तो क्या ढूंढती
उस बिना किसी सवाल वाले इम्तिहाँ का "धरम" क्या मआल होता  

Sunday 3 March 2019

चंद शेर

1.
जो कुछ भी मैंने लिखा "धरम" वो  लिखने का मुझे कोई हक़ न था
किताब मुक़म्मल तो हो गई थी मगर हाँ उसमें एक भी वरक़ न था

2.
मेरे कदमों का रिश्ता "धरम" न तो ज़मीं से था  न ही मंज़िल से था
ज़िंदगी तमाम उम्र मझधार में रही कहाँ कभी रिश्ता साहिल से था

3.
कि अब तो कोई भी दर्द "धरम" हद से गुज़रता नहीं है
बदन पर ज़ख्म का निशाँ भी बदन पर उभरता नहीं है

4.
कोई रंग जीवन में कब था "धरम"  जब हर कहानी बेरंग रही
कि सांस हर रात बुझता था जलकर औ" जवानी पूरी तंग रही

5.
कागज़ पर उपजे रिश्ते को "धरम" दिल में उतरने में एक उम्र लग जाती है
मैंने अक्सर देखा है दिल में उतरने के पहले ही कोई चिंगारी सुलग जाती है

6.
मेरे क़त्ल के ज़ुर्म का भी "धरम" मुझ ही से हिसाब मांगते हैं
ये कैसे लोग हैं  जो अपने किए हर ज़ुर्म पर  नक़ाब मांगते हैं 

7.
कब मेरा रूह 'धरम' मेरे ज़िस्म में था  कब मेरी साँसें मेरे सीने में थीं
कब मेरा लहू मेरी शिराओं में था औ" कब मेरी नज़र मेरी आँखों थीं 
 

Tuesday 22 January 2019

चंद शेर

1.
वो जो मौत की नींद सो गई थी 'धरम' वो चाह फिर से क्यूँ जगी
जब ज़िस्म पूरा का पूरा ठंढा था तो फिर दिल में आग क्यूँ लगी

2.
हम साथ तो निकले थे 'धरम' पर मैं कहाँ तक चला तुम कहाँ तक चली
अपनी साँस रूह ज़िस्म नज़र इनमें कुछ भी तो कभी एक साथ न चली

3.
कि बाद उस क़रार के महज़ उसका ख़्याल भी चुभने लगा
दिल के साथ न जाने क्यूँ "धरम" पूरा ज़िस्म भी दुखने लगा

4.
जलती आखों में  हर मंज़र बस  राख बनकर रह गया
वो इश्क़ भी "धरम" महज़ एक ख़ाक बनकर रह गया

5.
एक ही मौत काफी नहीं होती 'धरम' इश्क़ को मुकम्मल होने में
मुझे तो कई बार  यूँ ही मरना पड़ता है  महज़ एक ग़ज़ल होने में 

Saturday 12 January 2019

उजाला छा न सका

नज़र से पिया  हलक़ में उतारा  मगर दिल  में बसा न सका
रिश्ते के  रूह को उसके ज़िस्म से  कभी अलग पा न सका

वो नाम  जब भी  ज़ुबाँ पर आए  तो आह! क्या तरन्नुम आए  
ज़ुबाँ तो खुले  मगर उसे  कभी गुनगुना न सका  गा न सका

मौसम बहार  का खिज़ा का  इश्क़ का  या फिर तन्हाई का
इनमें कोई भी  मौसम मेरे  दहलीज़ तक  कभी आ न सका 

ख़ुर्शीद चिराग़ जुगनू हर किसी के  रौशनी  की नुमाईश हुई
बाबजूद इसके "धरम" कभी मेरे घर में उजाला छा न सका

Saturday 5 January 2019

चंद शेर

1.
कि हर किसी को  मुक़ाम हासिल हो  हर ख़ामोशी को ज़ुबान हासिल हो 
अब वहाँ चलो "धरम" जहाँ हर दर्द को अपनी अलग पहचान हासिल हो

2.
वादों से ऊब के अब जां निकले  हम तो ख़ुद  अपने ही घर में मेहमाँ निकले
जब भी मंज़िल की ओर निकले "धरम" तो पता नहीं फिर कहाँ-कहाँ निकले

3.
अल्फाज़ मोहब्बत के कब के बदल गए अब तो दिल भी दुखाने लगे
मिले जो नज़र से नज़र "धरम" तो सिर्फ बेवफाई ही सामने आने लगे 

4.
अब न तो मरने का हुनर ही है 'धरम' न ही जीने का कोई इरादा रहा
एक ही पहलू में आधी मौत आधी ज़िंदगी रही दूसरा पहलू सादा रहा 


Thursday 3 January 2019

मोहब्बत का भरम-ए-फ़साना बाकी है

मुन्सिफ़ का फैसला हो चुका मोहर भी लग गई सिर्फ सुनाना बाकी है 
मगर क्यूँ अब भी लगता है कि  उसकी यादों का आना-जाना बाकी है 

दरख़्त के सूखे डाल पर अनजाने में बे-मौसम कोई पत्ता उग आया था 
पत्ता साख़ से टूट चुका है  मगर उसका अभी ज़मीं पर गिरना बाकी है

मेरे ये मोहब्बत के फूल यूँ ही  सूख गए कुबूल किसी के भी न हो सके  
मगर एक उम्मीद  ज़िंदा है कि इसका  अब फिर से निखरना बाकी है 

न कभी इशारा  हुआ न आहट हुई  न किसी ने मुझको पलटकर देखा 
बिना जंग के  ही हार  हुई बाद इसके  भी मुझमें कोई दीवाना बाकी है 

हो सके कि फिर  से ज़ख्मों में जान  आए दिल में दर्द बढ़े आह निकले 
लगता ऐसा है "धरम" कि अभी मोहब्बत का भरम-ए-फ़साना बाकी है