कल सलमा नाची नहीं थी| उसके पैर में थोड़ा सूजन था| नूरज़हाँ थोड़ी ख़फा थी सलमा पर| सलमा वर्तमान में उस कोठे की नूर थी जिस कोठे पर कभी नूरज़हाँ के कई कद्रदान दमभर के दौलत लुटाते थे| यूँ तो सलमा नूरज़हाँ की औलाद न थी मगर उसकी बहुत प्यारी थी| सलमा, नूरजहां के कोठे की एक कनीज़ और उस शहर के एक नामी रईस की पैदाईश थी| यूँ तो नूरज़हाँ अब ढल गई थी मगर हुस्न अब भी उसके कैद में था| उसके शौक अब भी वैसे के वैसे ही थे जैसे जवानी में हुआ करते थे| हो भी क्यूँ नहीं? नूरज़हाँ को सलमा जैसी नूर मिल गई थी जिसे मानो ख़ुदा ने ख़ुद अपने हाथ से सजाया हो| बला की ख़ूबसूरत| नूरज़हाँ, सलमा में अपनी जवानी देखती थी| शहर के लौंडों को नूरज़हाँ अब भी ऊँगली पर नचाती थी| नूरज़हाँ के कई शौक थे| एक से एक रईसज़ादे, सरकारी अफ़सर, हट्ठे-कट्ठे नौजवान, हुस्न के कद्रदान सब के सब नूरज़हाँ के नज़ाकत के अब भी शिकार थे| सलमा का बीमार पड़ना नूरज़हाँ को बिलकुल ही पसंद नहीं था| मगर तबीयत पर नूरज़हाँ के हुस्न का कोई ज़ोर नहीं चल सकता था| बात सलमा के बीमार होने की थी| नूरज़हाँ ने शहर के सबसे बड़े डॉक्टर को बुलावा भेजा| डॉक्टर साहब आए और नूरज़हाँ के क़दमों में अपनी हाज़िरी पेश किए| नूरज़हाँ ने अपने पुराने अंदाज़ में ही डॉक्टर साहब का ख़िदमत किया| डॉक्टर साहब अब सलमा की नब्ज़ टटोल रहे थे| बीमारी बिल्कुल ही मामूली थी| डॉक्टर साहब सलमा को दवाई और नूरज़हाँ को दिलाशा देकर चले गए| कोठे की 3-4 लौंडियाँ अब सलमा के क़दमों में पेश-ए-ख़िदमत थी|
अगले दिन के मुज़रे का न्योता नूरज़हाँ बहुत दिन पहले ही शहर के ढेर सारे नए-पुराने रईसों को भिजवा चुकी थी| नूरज़हाँ को उस रात नींद नहीं आ रही थी| उसके साख की बात थी| सलमा का अचानक से बीमार होना नूरज़हाँ का सरदर्द बन गया था| मगर अब क्या हो सकता था, नूरज़हाँ बार-बार उठकर सलमा को देखने जाती थी| सलमा को चैन की नींद सोते देख नूरज़हाँ को काफी तस्सली हुई| रात्रि के अंतिम प्रहर में नूरज़हाँ भी नींद के आगोश में खो गई| सुबह सलमा थोड़ी देर से उठी और नूरज़हाँ उससे भी और थोड़ी देर से उठी| नूरज़हाँ सुबह उठकर सलमा का नज़र उतारती है और फिर महफ़िल के तैयारिओं का मुआयना करने चली जाती है| नूरज़हाँ चिंतित है की उसके पुराने कद्रदानों को किसी चीज़ की कमी महसूस न हो जाए| इस बात को लेकर कोठे पर के कई लौंडियों को नूरज़हाँ कई बार आँख दिखा चुकी है| दोपहर अपनी जवानी से बुढ़ापे की ओर ढल रही थी| उस शाम के आने की थोड़ी-थोड़ी आहट हो रही थी जो की नूरज़हाँ के कोठे पर एक साल में एक बार ही आती है| इसी बीच में नूरज़हाँ एक बार सलमा को निहार लेती है| सलमा के तबियत को लेकर नूरज़हाँ अब पूरी तरह से निश्चिंत हो जाती है| ढेर सारे रंग के फूल, मदहोशी ख़ुश्बू वाले इत्र, पीकदान, पान, शाही अंदाज़ वाले बैठक, कालीन और कई ढेर सारे चीज़ों का नूरज़हाँ ख़ुद ध्यान रख रही थी| ये सारी चीज़ें उस शाम के रौनक को और हसीं बनाने वाले हैं| अब वक़्त आ चला था, उस शाम की शहनाई बज उठी| नूरज़हाँ पूरे साज़-ओ-सामान के साथ महफ़िल में आ गई|
बाबू राम खेलावन सिंह उनके कोठे से सबसे पुराने रईस थे| वो अपने चार लौंडों को दोपहर में ही नूरज़हाँ के कोठे पर अपने आने की सूचना देकर भेज थे| वो चारो लौंडे शाम की शहनाई बजते ही नूरज़हाँ के कोठे की सीढ़ी पर उपस्थित हो गए| बाबू राम खेलावन सिंह अपनी बैलगाड़ी पर बैठे चले आ रहे थे| उनकी अगुवाई में नूरज़हाँ अपने दो लौंडे भेज चुकी थी| कोठे से 50 मीटर की दूरी से ही वो दोनों लौंडे बाबू राम खेलावन सिंह के ख़िदमत में पेश थे| बाबू राम खेलावन सिंह अब कोठे की सीढ़ी तक पहुंच गए थे| नूरज़हाँ की दो लौड़ियाँ कालीन के ऊपर अपना दुपट्टा बिछा देती है और नूरज़हाँ ख़ुद चलकर बाबू राम खेलावन सिंह को उनके बैठक तक पहुँचाती है| पूरी तहज़ीब के साथ बाबू राम खेलावन सिंह भी नूरज़हाँ के क़दमों में एक शेर पेश करते हैं:
तेरे ख़्याल के बाद भी सिर्फ तेरा ही ख़्याल था
कि ऐ! नूरज़हाँ बिन तेरे मेरा जीना मुहाल था
बाबू राम खेलावन सिंह के इस शेर पर नूरज़हाँ झुककर आदाब पेश करती है और फिर बाबू राम खेलावन सिंह सोने के दो सिक्के नूरज़हाँ के क़दमों में रख देते हैं|
कामता प्रसाद और अम्बिका प्रसाद सगे भाई थेl यूँ तो दोनों मुश्किल से ही कभी एक साथ बैठते थे मगर नूरज़हाँ के कोठे पर यौवन का आनंद दोनों एक साथ उठाते थेl नूरज़हाँ उन दोनों भाइयों के आखों की नूर थीl उनके भी आने का वक़्त हो चला थाl नूरज़हाँ की लौंड़ियाँ कोठे के दरवाजे से लग कर उनकी राह देख रही थीl कामता प्रसाद अपने घोड़ा-गाड़ी और अम्बिका प्रसाद अपने बैल-गाड़ी पर दूर से आते दिखाई दिएl जो लौंडियाँ उनकी राह देख रही थीं उनके इंतज़ार का वक़्त ख़त्म हुआl नूरज़हाँ को दोनों भाइयों के आने की ख़बर लेकर एक लौंड़ी दौड़ पड़ती हैl नूरज़हाँ दोनों भाइयों का भव्य स्वागत करती हैl नूरज़हाँ ख़ुद अपने हाथों से दोनों भाईयों के कुर्ते पर इत्र लगाती है, गिलौरी पान खिलाती है और मटककर उनको अपने-अपने बैठक तक ले जाती हैl कामता प्रसाद दिल से शायर भी थेl नूरजहां के लिए एक शेर उन्हौंने भी पढ़ा:
ऐ! नूरज़हाँ मैं यही दुआ करता हूँ कि ये रात मुख़्तसर न हो
बाहें तेरी हो औ" उसमे मेरे अलावा किसी और का सर न हो
कामता प्रसाद के इस शेर पर बाबू राम खेलावन सिंह की भृकुटि तन गई थी जिसे नूरज़हाँ ने बड़ी अच्छी तरह से भांफ लिया थाl बाद इसके नूरज़हाँ के इशारे पर एक लौंड़ी बाबू राम खेलावन सिंह को अपने हुस्न की थोड़ी सी चटनी चटा देती हैl ..............अभी जारी है लिखना......