Monday 18 April 2022

कौन है किसमें कितना अंदर

एक वक़्त औ" कई सारे चेहरे जिसमें दिखते  अनगिनत मंज़र
उसकी खुली आँखें औ" ढेर  सारी यादों का  उफनता समंदर 

हुस्न औ" इश्क़  दोनों एक दूसरे को समेटे  बस खामोश रहता  
तकिये पर ज़ुल्फ़ पसारकर वो ऐसे लेटती कि हो कोई क़लंदर  

रु-ब-रु हों तो लगे कि दोनों एक दूसरे में हो इस तरह समाया 
प्रारम्भ मध्य अंत कुछ पता नहीं कौन है किसमें कितना अंदर 

कि लपटें आग की ज़ुल्फ़ों को चूमे  लहू आँखों का दीदार करे 
वक़्त के हर सितम को वो ऐसे तोड़े कि जैसे हो कोई सिकंदर 

चेहरे से निकली  रौशनी  बढ़ती दूरी के साथ  और रौशन हुई 
अपने वज़ूद को  "धरम" वो हमेशा करती रही  हुदूद से बदर