Friday 31 October 2014

चंद शेर

1.

लिखकर पैमाने पर तेरा नाम मैं अपने होठों से लगा लूँ
तेरे शक्ल में ग़र कोई दूसरा भी आए तो उसे मैं अपना लूँ

2.

बड़ी तरतीब से टूटा है सीना मेरा आज दो बराबर टुकड़ों में "धरम"
एक हिस्सा उसका मुस्कुराता चेहरा और दूसरा मेरा अनकहे जज़्बात

3.

फ़कीरी का नशा उसपर कुछ इस तरह तारी है
अमीरों के दौलत-ए-नशा पर वह हमेशा भारी है

4.

पानी पर खिचीं लकीरों का कोई वज़ूद नहीं होता
अब तो यहाँ कोई भी रिश्ता बे-सूद नहीं होता 

पुरानी यादें

मानसपटल पर पड़े वक़्त के शक्ल का मरहम
परत-दर-परत जब भी अपनी पकड़ ढीली करता है

मुझे ले जाता है अपने पुरानी यादों की दुनिया में
और संवेदना के सारे पन्ने एक-एक कर पलट देता है

शक्ल के पीछे न जाने कितने शक्लों में दीखती है दुनियाँ
मानो हज़ार रंगों के मिश्रण में रंग पहचानो प्रतियोगिता हो

दो-चार अच्छे लम्हों को तो ज़ख्म का दीमक चाट चुका है
औ' बचा-खुचा अवशेष समंदर से गहरे दिल में खो चुका है


काश! अच्छे लम्हों का स्याह गहरा होता 

Tuesday 21 October 2014

फिर से गुजार लूँ

गुज़रे वक़्त को मैं फिर से गुजार लूँ
बस की आ मेरी जाँ मैं तुमको सँवार लूँ

पा कर तेरी झलक मैं चेहरा निखार लूँ
औ' अपने दिल में तेरी तस्वीर उतार लूँ

रखकर हाथों में तेरा हाथ मैं तुझसे क़रार लूँ
तुम अपनी आदत सुधारो मैं अपनी सुधार लूँ

गिले-शिकवे की बातें बस अभी ही बिसार लूँ
मोहब्बत में न तो तुम उधार लो न मैं उधार लूँ

Saturday 18 October 2014

चंद शेर

1.

अब ख़ाक भी तो नहीं मिलता कि जिसको छान सकूँ
जो कभी रही थी मेरी नबाबी अब उसको पहचान सकूँ

2.

चेहरा पूरा है आईना पूरा है फिर भी अक्स टूटा है
बड़े इल्म से आज मैंने आईने में दिल को देखा है

3.
सूनेपन को लपेटो चादर में और फेंक डालो
खुद से गुफ़्तगू कर लो की रात बीत रही है

4.

वह तो इन्तहां की सारी हदें पार कर गया
मुझको तन्हा छोड़ा और बीमार कर गया

5.

आईना कहाँ किसी की तरफदारी में बोलता है
वो जब भी बोलता है ईमानदारी से बोलता है

Monday 13 October 2014

रहा हूँ मैं

न जाने किस उम्मीद में जल रहा हूँ मैं
सर्द के मौसम में भी पिघल रहा हूँ मैं

फ़ैल चुका है अब तो अँधेरा मेरे चार-ओ-सू
फिर भी मंज़िल की ओर निकल रहा हूँ मैं

न तो कोई हमसफ़र है और न कोई राहगर
अब तो गिरकर खुद से ही संभल रहा हूँ मैं

पड़ी है जो ज़माने की लात पेट और दिल पर
कुछ इस तरह से थोड़ा थोड़ा बदल रहा हूँ मैं



Sunday 5 October 2014

क्या किये जा रहा है ?

किसका ग़म है जो तुझे खाए जा रहा है
वो कौन है यहाँ जो तुझे भुलाये जा रहा है

पलटकर देखो तुझे कोई नहीं अपनाये जा रहा है
फिर क्यों तुम अपने आप में भरमाये जा रहा है

मुद्दतों बाद आज फिर तुमने जो देखा है आईना
देखकर खुद अपने अक्स को शर्माए जा रहा है

लफ़्ज़ों की कशिश में बेदिली औ" ये हर्फ़-ए-मोहब्बत
फिर भला क्यूँ तुम मुझे झूठे किस्से सुनाए जा रहा है

यहाँ तो हर ओर फैली है आफताब की रौशनी
तब भला तुम क्यूँ ये चिराग जलाये जा रहा है

सीने से अपना दिल निकालकर उसे चूम रहे हो
कौन है जो अपने होने का एहसास कराए जा रहा है

महफ़िल ख़त्म हुई सारे कद्रदान जा चुकें हैं "धरम"
अब भला तुम किसको आखों से पिलाये जा रहा है

Saturday 4 October 2014

ज़िंदगी की सवारी

भटक रहा हूँ अनजान राहों पर पूरा छलनी है दिल
अनेक चौखट चूमा हूँ फिर भी नहीं मिली है मंज़िल  

तबीयत से प्रयास किया चढ़ाये अकीदत के भी फूल
बावजूद इसके लगता है ऐसा की कुछ हो रही है भूल

जन्म से जनाज़े तक का सफर होता नहीं है इतना आसाँ
एक ही ज़िंदगी में बनते-टूटते हैं कितने सपनों के मकाँ

बिना ज़ख्म के रिस रहा हैं लहू अब तो यहाँ पत्थरों से
आफताब खुद मांग रहा हैं रौशनी गर्दिश के सितारों से

हर्फ़-ए-इबादत घुल गया हैं मिट्टी में अब दिखाई नहीं देता
भूख से बिलख रहा हैं इंसान मगर ये शोर सुनाई नहीं देता

दिल के हरेक मसले पर "धरम" अब तो दिमाग भारी हैं
ज़िंदगी की दौड़ में रिश्ता इंसानियत का बस एक सवारी हैं 

Wednesday 1 October 2014

तेरा नाम चाहता है

हर शख्स तेरा ही सलाम चाहता है
तेरे लबों पर अपना नाम चाहता है

ख़ुदा ने बख़्शा है जो दौलत-ए-हुस्न तुमको
उसे पाकर अपने मुक़द्दर का इनाम चाहता है

गर्दिश का सितारा हर शब निकल कर चूमता है
तुझे झुककर सलाम करता है और फिर झूमता है

इस शहर में मुझ जैसा कोई दूसरा नहीं "धरम"
जो उसको हर रोज सुबह-ओ-शाम चाहता है