Saturday 19 December 2020

मंज़िल को ही ज़मीं निंगल गई हो

रास्ते कल के  क्या होंगे  जब मंज़िल को ही ज़मीं  निंगल गई हो 
चीख को समंदर खा गया हो रौशनी आसमाँ कहीं में खो गई हो

एक मुद्दत से चेहरे पर मायूसी का राज है जो अब भी आबाद है 
कोई भी ख़ुशी वापस कैसे आए जब सब के सब कहीं खो गई हो 

महज साँस लेने को ही एक पूरी मुकम्मल ज़िंदगी कहना पड़ता है 
जब हरेक ख्वाईश चादर ओढ़े अपने कब्र-ए-मुक़र्रर में सो गई हो  

अँधेरा ऐसा है की सूरज के निकलने से कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं 
गोया शाम रात के आगोश में ऐसे सोई की जैसे कहीं खो गई हो

हर लम्हा ऐसा बीतता है मानो साँस टूटने से पहले दम टूट जाता है  
ख़ुद अपनी ही नज़रों में अपनी ही नज़र "धरम" कहीं  खो  गई  हो

Monday 7 September 2020

चंद शेर

 1.

वो चिराग़ ग़र जले तो घर जले  न तो बस बुझा रहे 
वो ख़ार जब भी उपजे "धरम" तो सीने में चुभा रहे 


2.

हरेक ख्वाहिश "धरम" रात सिरहाने से लुढ़ककर  क़दमों में पहुँचती है 
दिन भर पैरों तले कुचलाती है औ" फिर शाम ढ़लते ही सर चढ़ जाती है

Monday 1 June 2020

न ही शक्ल नायाब हुई

जब भी कुछ लिखा  कागज़ की  शक्ल खराब हुई
औ" ग़र खुल गई ज़ुबाँ  तो ज़िंदगी ही  अज़ाब हुई

ज़िंदगी जब तलक  ग़म के साये में थी महफूज़ थी
वो ग़म न था  ख़ुशी थी  जिससे  ज़िंदगी यबाब हुई

वो एक ख्वाईश थी  जो मिल भी गई तो कुछ नहीं
पहले भी  न कभी दिल जला न ज़िंदगी बेताब हुई 

ख़ुद ही के दो अलग-अलग  किरदार को मिलाया 
न तो सूरत-ए-कलम हुआ न सीरत-ए-ज़काब हुई

उसके हर बात पर अड़ा रहने का नतीजा 'नीरस' 
न तो ओहदा ऊँचा हुआ  न ही शक्ल  नायाब हुई 

Thursday 30 April 2020

चंद शेर

1.
कि एक उम्र से ठहरी है  ये किस मोड़ पर ज़िंदगी
'धरम' क्यूँकर रास आ ही नहीं रही कोई भी बंदगी

2.
ग़र बात आपके जान की होती तो लहू अपना छलका देता
कि उतारकर आसमाँ से चाँद  आपके माथे पर चस्पा देता

3.

वो  शख़्स कौन था  "धरम"  उसकी उम्र कितनी थी
वो एक चाँद था औ" उम्र उसकी सितारों जितनी थी

4.
दरम्यां ज़िंदगी और मौत के फ़ासला सिर्फ़ एक सांस का कभी न था
हर दरिया मोम का था  कदम आग के थे औ" रास्ता उम्र भर का था

5.
कि कल का ख्याल कर कभी आज को जी न सका
हर घूँट गले में उतारा मगर एक भी घूँट पी न सका

Monday 13 April 2020

ख़ुद अपने ही सफर ने मुझको

कई बार  यूँ ही लूटा है  ख़ुद  अपने ही  शहर ने मुझको
कि सरापा  डुबोया है  ख़ुद  अपने  ही  क़हर ने मुझको

वर्षों तक खुली ऑंखें औ" नींद का बिल्कुल ही न आना 
ये आलम भी दिखाया है  ख़ुद अपने ही नज़र ने मुझको 

एक बार मंज़िल पहुंचाया  और  फिर ता-उम्र भटकाया
ये अपने ही हाथों सजाये  ख़ुद अपने ही डगर ने मुझको

मौत से कदम भर का फ़ासला  औ"  उम्र भर का वास्ता
क्या खूब सिखाया 'धरम' ख़ुद अपने ही सफर ने मुझको 

Sunday 22 March 2020

पहला वरक़ कुतर आया

जब भी कोई मंज़र देखना चाहा  सिर्फ पस-मंज़र नज़र आया
सूरत किसी और की नज़र आई चेहरा कोई और उभर आया

सब को मालूम है कि वो सितमगर है  मगर  फिर भी ऐसा क्यूँ
जब भी  फैसला उसके खिलाफ आया तो  सन्नाटा पसर आया

वो ज़िंदगी की  आखिरी शाम थी  वो करता भी तो  क्या करता
बस यूँ ही  उसकी  चौखट से होकर  आखिरी बार गुजर आया

जहाँ भी ज़मीं को आसमाँ से मिलाया गया तो वहां के फिज़ा में
सिर्फ एक बार बहार आई  औ" बाद उसके सिर्फ कहर आया

बात  पहले मोहब्बत से की गई  फिर ज़िंदगी  उधार माँगी गई
फिर शहादत बदनाम हुई  फिर नक़ाब इश्क़ का  उतर आया

सजा उसको सुनाई गई  सर किसी और का कलम किया गया
फिर किताब-ए-फैसला का 'धरम' वो पहला वरक़ कुतर आया

Tuesday 7 January 2020

मुर्दा होने का ख़िताब

हिज़्र का एक दश्त  औ" बाद उसके  मुसलसल  हिज़्र का सैलाब
ऐ! ज़िंदगी  मुझे ख़ुद भी तो पता नहीं  कि तुमसे क्या माँगे जवाब

वो एक ख़ुशी का दरिया था  जो पहले उतरा  औ" फिर सूख गया
उस दरिया  को याद करके  क्यूँ ही करना ढ़लते वक़्त का हिसाब

वो एक रौशनी दिखी थी  जो बस थोड़े से वक़्त में ही कहीं खो गई
क्या था  यूँ कह लो  की हो किसी उतरते दिन का कोई आफ़ताब

ज़माने के दौर-ए-महफ़िल में हर ज़िंदगी के बस दो ही हैं पहचान 
या तो पूरा ज़िंदा रखता है या फिर दे देता है मुर्दा होने का ख़िताब

वक़्त ज़िंदगी का जब उतरता है 'धरम' तो वो किस तरह देखता है
जैसे की कई रँगों के हिजाब के ऊपर हो कोई एक काला हिजाब  

Friday 3 January 2020

रह-रहकर भुलाना है

बिन तेरे वो  कारवाँ पहले  भी सूना था  अब भी सूना है
मगर क्या कहें कि  दिल-ए-दर्द  अब पहले से दुगुना है

जब साँसों से  साँसें मिलती थी तो  नज़्म उभर आता था
उस नज़्म को  अपने होठों से  अब क्यूँ ही गुनगुनाना है

फिर क्यूँ चेहरे पर उपजी  मायूसी क्यूँ दर्द छलक आया
ऐ दिल-ए-ज़ख्म तुझे फिर से क्यूँ वही किस्सा सुनाना है

वक़्त-ए-रुख़सत कहाँ ख़त्म  हुआ कुछ भी तो याद नहीं
ज़ख्म-ए-रुख़सत अब भी है जिसे रह-रहकर भुलाना है

ये कैसी बज़्म है  जिसमे एक मेरा अक्स है  और एक मैं
ऐसे बज़्म में  अपने ही दिल से दिल को  क्या मिलाना है

मौसम इश्क़ का बदलने से पहले ही ईंसाँ बदल जाता है
बाद इसके भी "धरम" कैसे हर  कोई तुम्हारा दीवाना है