Monday 28 November 2016

चंद शेर

1.
तुम्हारे हाथों ही क़त्ल होना था ये पता न था मुझे
ऐ! वक़्त अपनी वफाई "धरम" बता न सका तुझे

2.
ग़म-ए-आशिक़ी "धरम" ज़माने भर के ग़म से कम नहीं
ज़िन्दगी तेरी मोहब्बत भी अब किसी ख़म से कम नहीं

3.
अफवाहों का दौर था मैंने भी एक पत्थर उछाल दिया
वरना इतनी हिम्मत कहाँ "धरम" की कुछ बोल पाऊँ

4.
ऐ! ज़िन्दगी मैं भी रफ़्तार में था मगर न जाने क्यूँ
जान बूझकर बैठ गया और मंज़िल गँवा दिया मैंने

5.
जो भी याद आया वो सबकुछ भुला दिया मैंने
एक-एक कागज़ चुनकर "धरम" जला दिया मैंने

6.
कहाँ है वो घूंट मय का जो प्यासे का गला तर कर दे
उतरकर सीने में "धरम" सारे ज़ख्मों को सर कर दे

7.
वो सारे जो कभी मुन्तज़िर थे तेरे "धरम" अब चले गए
वो सारे रहगुज़र चले गए औ" वो सारे रास्ते भी चले गए

8.
चलो इस बात पर ही "धरम" तुमको याद कर लिया जाए
बुझे दिल पर जमे राख को फिर से साफ़ कर लिया जाए


Friday 25 November 2016

मुर्दे गुनगुनाने लगे हैं

जो सारे मुर्दे थे अचानक गुनगुनाने लगे हैं
औ" जो सारे ज़िंदा थे वो बड़बड़ाने लगे हैं

यूँ देखो तो ये आग सब के घर में बराबर लगी है
मगर कुछ लोग इसे जलाने तो कुछ बुझाने लगे हैं

यहाँ राग तो महज़ एक ही छेड़ी गई थी
मगर कुछ नाचने तो कुछ चिल्लाने लगे हैं

वो गुज़रा वक़्त भी क्या खूब कमाल कर गया
दौलत आज खुद मुफ़लिसों को बुलाने लगे हैं

सामने एक मंज़र औ कितने सारे पश-मंज़र
ये क्या की लोग अपना ही चेहरा छुपाने लगे हैं

अपनी मक्कारी पर मुफ़लिसों का राग चढ़ाये "धरम"
क्या खूब मुफ़लिसों के हिमायती सामने आने लगे हैं

Sunday 6 November 2016

मुर्दे को सँवारा है

जो सपना कल दुश्मन का था आज हक़ीक़त तुम्हारा है
ज़िंदा इंसान को पहले मारा और फिर मुर्दे को सँवारा है

अच्छे बुरे की सोच नहीं तुझे बस हर बात काटनी ही है
आज तुझको ये खुद पता नहीं की तुमको क्या गँवारा है

तुमने बात मुफ़लिस से शुरू की आज मुर्दे तक पहुच गए
तुझमें जो इंसां था वो मर गया जो ज़िंदा है बस आवारा है

जो तुमने झोली फैलाई तो सब ने अपना दाम उढेल दिया
अब जो तेरे साथ हैं उनका तो बस किस्मत का ही सहारा है

हर किसी ने तेरी ऊँगली थामकर आँख बंद कर ली "धरम"
सब को तुम वहां लेकर गए जहाँ बस मौत पर ही गुज़ारा है