Sunday 26 February 2023

ईजाद करना पड़ता है

ख़ुद से भी मिलने के लिए कभी फ़रियाद करना पड़ता है 
तन्हा वक़्त काटने के लिए  क्या क्या याद करना पड़ता है

ख़ुद के क़िरदार से यूँ आसाँ नहीं  ख़ुद को  अलग करना  
अपने रूह को  अपने जिस्म से  आज़ाद करना पड़ता है 

ग़म हर दिल में यूँ ही पनाह नहीं लेता सुकूँ से नहीं रहता  
ग़म को पनाह देने के लिए दिल को साद करना पड़ता है 

ख़्वाब में जीना रंज-ओ-ग़म को पीना कुछ आसाँ तो नहीं  
ये हुनर पाने के लिए कितना कुछ बर्बाद करना पड़ता है

कि बाद एक मर्तबा के दूसरे रुतबे की ख़्वाहिश नहीं हो   
इसके लिए  ख़ुद को ख़ुद ही से  फ़साद करना पड़ता है 
  
एक शक्ल दिखानी पड़ती है एक चेहरा छुपाना पड़ता है 
ख़ुद का ही चेहरा 'धरम' ख़ुद को ईजाद करना पड़ता है 

Thursday 23 February 2023

ओढ़ता है कफ़न की तरह

आसाँ नहीं होता जीना एक बिरहमन की तरह  
हर लिबास को जो ओढ़ता है कफ़न की तरह
 
एक चेहरा एक नाम एक शख़्सियत एक काम 
यह ज़मीं आसमाँ है  जिसके नशेमन की तरह
  
ख़ुशी-ग़म आबरू-बेआबरू औ" ज़िंदगी-मौत  
सब साथ रखता है एक मुर्ग़-ए-चमन की तरह

एक नज़र साँसों को चैन दिल को सुकूँ देता है 
औ" ज़बाँ पर आता है वो एक सुख़न की तरह

मुलाक़ात का वक़्त तन्हा होता है गुज़र जाता है  
ख़याल में रहता है वो  अनमोल रतन की तरह 

कि बाद एक मंज़िल के दूसरी मंज़िल "धरम"  
मुसलसल चलता रहता है वो ज़मन की तरह    


नशेमन : निवास स्थल
मुर्ग़-ए-चमन : बाग़ की चिड़िया
सुख़न : शायरी
ज़मन : वक़्त

Monday 20 February 2023

कोई उड़ान न दे सका

इंसाफ़ का तराजू भी कोई इनाम-ए-ईमान न दे सका  
'उरूज हासिल तो हुआ मगर कोई उड़ान न दे सका

ख़ुद से मिला तो चेहरे पर अदब ने ऐसा दस्तक़ दिया    
हादिसों का सिलसिला भी शक्ल-ए-वीरान न दे सका

वो जाना पहचाना अश्क भी जानी पहचानी आँखें भी    
ख़याल में शक्ल उभरा मगर कोई पहचान न दे सका 
 
हर्फ़ से हर्फ़ का जुड़ना औ" फ़ासला रूहों का बढ़ना 
एक भी मुलाक़ात कोई एहसास-ए-अंजान न दे सका 

कि अपने क़त्ल के बाद भी वो मुंसिफ़ तख़्त-नशीं था 
कैसा शख़्स था जो ताज को कोई अरमान न दे सका 

उजड़ा शजर दूर तक वो सन्नाटा बादल में छुपा चाँद     
एक भी लम्हा "धरम" वो ख़ुद को सुनसान न दे सका 

Monday 13 February 2023

अपने चेहरे पर ख़ुशी बहाल करे

जो तुम थक चुके हो तो मंज़िल भी क्यूँ तिरा ख़याल करे
ग़र ख़याल करे भी तो फिर बची ज़िंदगी का ज़वाल करे

बीच का कोई रास्ता नहीं या साथ होना या तो मर जाना
इश्क़ अजीब है  क़रीब जाने का  कोई कैसे मजाल करे 
 
वफ़ाई का न कोई किरदार न कोई चेहरा नज़र आता है 
ये ऐसा मंज़र है ग़र कोई देखे तो आँखों का कलाल करे

मज़लूमों का कोई क़ाफ़िला जब भी तख़्त-नशीं से मिले    
क्या हुक्म है  हर कोई अपने चेहरे पर ख़ुशी बहाल करे

ये उनकी रहम-दिली की मौत इतनी आसान नसीब हुई 
औ" ये हुक्म भी की हर मुर्दा तौर-ए-क़त्ल का जलाल करे
 
अजीब प्यास है  ये गले से चढ़ती है  आँखों से उतरती है   
ख़्वाहिश-ए-लहू-ए-दरिया है 'धरम' कोई क्या सवाल करे  



ज़वाल - पतन
कलाल - किसी अंग या संवेदना का शुन्य हो जाना 
जलाल - महत्ता 

Wednesday 1 February 2023

बात अपनी कहने लगा

कि लहू जब भी ज़मीं पर उतरा रौशनाई बनकर बहने लगा    
फिर ज़माना उसमें कलम भिंगोकर बात अपनी कहने लगा
  
सिर्फ़ नज़रों का ही धोख़ा न था थोड़ी ख़ता साँसों की भी थी 
क़ाबिल-ए-क़त्ल-ए-रुस्वाई यार बनकर साथ अब रहने लगा 

कोई रिश्ते की बुलंदी न थी बस बीच का कोई वाक़ि'आ था 
बस नज़र मिलाकर मुस्कुराया  फिर हर सितम सहने लगा

वादे फ़िज़ाओं में घुलकर हवा को 'अजब इशारा करने लगे   
साँसों में आते-जाते वादों के जोर से कलेजा फिर ढ़हने लगा

चिंगारी चराग़-ए-दिल ने दी जिससे एक आग बदन में लगी    
फिर न जाने क्यूँ 'धरम' जिस्म के बदले दिल ही दहने लगा