Thursday 19 January 2017

मंज़िल-ए-मक़सूद के आगे भी

ज़हन्नुम के हक़ीकत का अंदाज़ा घर बैठे लगाने लगे हैं
की ठंढे पानी से लोग अब यहाँ मोम पिघलाने लगे हैं

बज़्म-ए-उल्फ़त में लोग खूब रंज-ओ-ग़म गाने लगे हैं
की जो निकले थे नेकी को वो यहाँ रंजिश पकाने लगे हैं

बात एक छोटी सी थी मगर क़त्ल-ए-आम कुछ यूँ बरपा
की यहाँ लोगों के साथ अब जानवर भी चिल्लाने लगे हैं

बात सिर्फ एक कदम लड़खड़ाने की थी नतीजा यूँ हुआ
की ना-उम्मीदी जहन में अब हर ओर से आने लगे हैं

वक़्त कदम-कदम पर तबज्जो भी खूब बदल देता है
की कई नए क़रीब आए कई पुराने दूर जाने लगे हैं

इन्सां ख्वाइशों के उलझन में कुछ यूँ फंस गए हैं "धरम"
की मंज़िल-ए-मक़सूद के आगे भी कदम बढ़ाने लगे हैं 

Thursday 12 January 2017

चंद शेर

1.
तेरे बज़्म में "धरम" मुझे कुछ इस तरह सजा दी गई
की मैं बोलने लगा तो शम्मा-ए-महफ़िल बुझा दी गई

2.
ऐ! ज़िन्दगी तू रेत का महल फिर न बना
अपने मुक़्क़र्र कब्र में रह हाथ-पैर न बढ़ा

3.
किसी और का दर्द "धरम" अपने सीने में उतार लिया
ऐ! मौत मैंने फिर तुझसे अपनी ज़िन्दगी उधार लिया

4.
जिसे समझ था उल्फत "धरम" हक़ीकत में वो एक ख्वाब था
तेरे बज़्म में आना बस उसका चुकाना एक पुराना हिसाब था

5.
जब भी मंज़िल की ओर चला "धरम" फ़ासला और बढ़ता ही गया
की मुक़द्दर ज़मीं पर रेंगता रहा औ" हौसला हवा में उड़ता ही गया


6.
हस्र-ए-ज़िन्दगी "धरम" अब तो इस मुक़ाम पर है
जो लब खुले तो सिर्फ निकलती दुआ जुबान से है

7.
जो गर्क-ए-दरिया से निकल तो अब किनारा नहीं ढूंढता
मैं अपने ज़ीस्त में "धरम" अब कोई सहारा नहीं ढूंढता

8.
जो रखते हो दिल माथे में तो सीने में दिमाग भी रखो
की अपने हिस्से में "धरम" कुछ चीज़ नायाब भी रखो

9.
तेरी इस आह! पर "धरम" लब खामोश रहे दिल फट गया
फ़ासला-औ-नज़दीकी के दरम्यां जो भी था वो मिट गया