Thursday 9 August 2018

चंद शेर

1.
कि उदासी लब को चूमे औ" ज़ख्म दिल को रौशन करे
तो भला इस जहाँ में 'धरम' क्यूँ मेरा कोई व्यसन करे

2.
दरिया को बीच से काटकर "धरम" नया किनारा बनाया गया
किसी एक के सहारे के लिए कितनो को बेसहारा बनाया गया

3.
क्यूँ तेरे एक ख़्वाब के बाद "धरम" कभी भी कोई दूसरा ख़्वाब नहीं आता
कि दिल धड़क के रुक जाता है मगर हाँ कोई मुक़म्मल जवाब नहीं आता

4.
कि कितने गुनाहों के बाद हम उस वक़्त-ए-रुख़्सत के पनाह से निकले
खुद अपने ही सजाए क़ब्र से 'धरम' हम रंग-ए-चेहरा-ए-स्याह से निकले

5.
मैंने जब भी रास्ता बदला "धरम" मंज़िल को भी बदलते देखा
कि मैंने तो मील के पत्थर को भी मोम की तरह पिघलते देखा

6.
जब उसने जाने की ज़िद की "धरम" तो मैंने ख़ुद ही रास्ता बना दिया
बाद उसके फिर कभी न आह निकले दर्द पनपे ऐसा रिश्ता बना दिया

7.
इश्क़ का आगाज़ हुआ तो था हाँ! मगर हुस्न के ढल जाने के बाद
जैसे रात का मिलना हुआ "धरम" ख़ुर्शीद के निकल जाने के बाद

8.
परत दर परत खुलती गई नक़ाब दर नक़ाब सरकता गया
चरित्र औ" चेहरा दोनों 'धरम' कई आयाम में उभरता गया

Monday 6 August 2018

अपने वज़ूद को बस तरशता रहा

कि हवा के रुख हुआ 'धरम' तो हवा उड़ा गई मुझे
औ" ग़र न हुआ हवा के रुख तो हवा तोड़ गई मुझे
मैं तो हर हाल में अपने वज़ूद को बस तरशता रहा 

Saturday 4 August 2018

तो समझो रिश्ता मुकम्मल हुआ

रिश्ता महज़ दो ज़िस्मों के दरम्यां नहीं पनप सकता
दोनों रूहों का बराबर जुड़ना जरूरी होता है

संवेदनाओं की तरंगें जब दिल से निकलकर
बदन के हर रोम-कूप को जागते सहलाते
अपने होने का एहसास कराते
सर से पैर तक को सिहरन में डुबोते
सुख के अथाह सागर का देर तक अनुभव कराते
दिल और ज़िस्म के फ़ासले को मिटाते
दो सासों को एक करते

ज़हाँ के होने न होने के एहसास से इतर
दूर सितारों में कहीं घूमते हुए खो जाते
दोनों ज़िस्मों के अंदर संवेदना के
एक तीसरे ज़िस्म का निर्माण करते
और फिर उसमें दोनों समा जाते

संवेदना रूपी जिस्म के
अन्तः मन के उपजे किरण से
जब गैरों को
दो अलग-अलग जिस्मों का
बिब्म एक दिखने लगे

तो समझो रिश्ता मुकम्मल हुआ