Tuesday 22 January 2019

चंद शेर

1.
वो जो मौत की नींद सो गई थी 'धरम' वो चाह फिर से क्यूँ जगी
जब ज़िस्म पूरा का पूरा ठंढा था तो फिर दिल में आग क्यूँ लगी

2.
हम साथ तो निकले थे 'धरम' पर मैं कहाँ तक चला तुम कहाँ तक चली
अपनी साँस रूह ज़िस्म नज़र इनमें कुछ भी तो कभी एक साथ न चली

3.
कि बाद उस क़रार के महज़ उसका ख़्याल भी चुभने लगा
दिल के साथ न जाने क्यूँ "धरम" पूरा ज़िस्म भी दुखने लगा

4.
जलती आखों में  हर मंज़र बस  राख बनकर रह गया
वो इश्क़ भी "धरम" महज़ एक ख़ाक बनकर रह गया

5.
एक ही मौत काफी नहीं होती 'धरम' इश्क़ को मुकम्मल होने में
मुझे तो कई बार  यूँ ही मरना पड़ता है  महज़ एक ग़ज़ल होने में 

Saturday 12 January 2019

उजाला छा न सका

नज़र से पिया  हलक़ में उतारा  मगर दिल  में बसा न सका
रिश्ते के  रूह को उसके ज़िस्म से  कभी अलग पा न सका

वो नाम  जब भी  ज़ुबाँ पर आए  तो आह! क्या तरन्नुम आए  
ज़ुबाँ तो खुले  मगर उसे  कभी गुनगुना न सका  गा न सका

मौसम बहार  का खिज़ा का  इश्क़ का  या फिर तन्हाई का
इनमें कोई भी  मौसम मेरे  दहलीज़ तक  कभी आ न सका 

ख़ुर्शीद चिराग़ जुगनू हर किसी के  रौशनी  की नुमाईश हुई
बाबजूद इसके "धरम" कभी मेरे घर में उजाला छा न सका

Saturday 5 January 2019

चंद शेर

1.
कि हर किसी को  मुक़ाम हासिल हो  हर ख़ामोशी को ज़ुबान हासिल हो 
अब वहाँ चलो "धरम" जहाँ हर दर्द को अपनी अलग पहचान हासिल हो

2.
वादों से ऊब के अब जां निकले  हम तो ख़ुद  अपने ही घर में मेहमाँ निकले
जब भी मंज़िल की ओर निकले "धरम" तो पता नहीं फिर कहाँ-कहाँ निकले

3.
अल्फाज़ मोहब्बत के कब के बदल गए अब तो दिल भी दुखाने लगे
मिले जो नज़र से नज़र "धरम" तो सिर्फ बेवफाई ही सामने आने लगे 

4.
अब न तो मरने का हुनर ही है 'धरम' न ही जीने का कोई इरादा रहा
एक ही पहलू में आधी मौत आधी ज़िंदगी रही दूसरा पहलू सादा रहा 


Thursday 3 January 2019

मोहब्बत का भरम-ए-फ़साना बाकी है

मुन्सिफ़ का फैसला हो चुका मोहर भी लग गई सिर्फ सुनाना बाकी है 
मगर क्यूँ अब भी लगता है कि  उसकी यादों का आना-जाना बाकी है 

दरख़्त के सूखे डाल पर अनजाने में बे-मौसम कोई पत्ता उग आया था 
पत्ता साख़ से टूट चुका है  मगर उसका अभी ज़मीं पर गिरना बाकी है

मेरे ये मोहब्बत के फूल यूँ ही  सूख गए कुबूल किसी के भी न हो सके  
मगर एक उम्मीद  ज़िंदा है कि इसका  अब फिर से निखरना बाकी है 

न कभी इशारा  हुआ न आहट हुई  न किसी ने मुझको पलटकर देखा 
बिना जंग के  ही हार  हुई बाद इसके  भी मुझमें कोई दीवाना बाकी है 

हो सके कि फिर  से ज़ख्मों में जान  आए दिल में दर्द बढ़े आह निकले 
लगता ऐसा है "धरम" कि अभी मोहब्बत का भरम-ए-फ़साना बाकी है