Friday 29 March 2019

कभी ऐसे तो न चाहा तुमको

कभी ऐसे तो  न चाहा तुमको कि  तेरे जाने का  कोई मलाल होता
जब कोई अरमाँ  थी ही नहीं तो  ऐसा कुछ  न था जो  हलाल होता

हमारे ज़िस्म साथ  तो बसर करते मगर  रूह दोनों के अलग रहते
दरम्यां दोनों  अलग-अलग  रूह में  कहाँ कुछ था जो सवाल होता

यूँ तो बस  मन रखने को  हम दोनों ने  कह दिया था रिश्ता उसको 
रिश्ते को  ज़िस्म रूह  कुछ हासिल  न था तो कैसे वो पामाल होता 

साथ रहते दो  ज़िस्म जिसे  ख़ुद  अपनी-अपनी रूहों का पता नहीं
बिना जज़्बात  के ग़र वो दो ज़िस्म  मिलते भी तो क्या विसाल होता

अपनी-अपनी धुन में रहने वाले दो  ज़िस्मों के  अपने-अपने सवाल
ग़र किसी अनसुने सवाल का जवाब होता भी तो क्या कमाल होता

बिना किसी सवाल  के ग़र जवाब ढूंढती  ज़िंदगी भी तो क्या ढूंढती
उस बिना किसी सवाल वाले इम्तिहाँ का "धरम" क्या मआल होता  

Sunday 3 March 2019

चंद शेर

1.
जो कुछ भी मैंने लिखा "धरम" वो  लिखने का मुझे कोई हक़ न था
किताब मुक़म्मल तो हो गई थी मगर हाँ उसमें एक भी वरक़ न था

2.
मेरे कदमों का रिश्ता "धरम" न तो ज़मीं से था  न ही मंज़िल से था
ज़िंदगी तमाम उम्र मझधार में रही कहाँ कभी रिश्ता साहिल से था

3.
कि अब तो कोई भी दर्द "धरम" हद से गुज़रता नहीं है
बदन पर ज़ख्म का निशाँ भी बदन पर उभरता नहीं है

4.
कोई रंग जीवन में कब था "धरम"  जब हर कहानी बेरंग रही
कि सांस हर रात बुझता था जलकर औ" जवानी पूरी तंग रही

5.
कागज़ पर उपजे रिश्ते को "धरम" दिल में उतरने में एक उम्र लग जाती है
मैंने अक्सर देखा है दिल में उतरने के पहले ही कोई चिंगारी सुलग जाती है

6.
मेरे क़त्ल के ज़ुर्म का भी "धरम" मुझ ही से हिसाब मांगते हैं
ये कैसे लोग हैं  जो अपने किए हर ज़ुर्म पर  नक़ाब मांगते हैं 

7.
कब मेरा रूह 'धरम' मेरे ज़िस्म में था  कब मेरी साँसें मेरे सीने में थीं
कब मेरा लहू मेरी शिराओं में था औ" कब मेरी नज़र मेरी आँखों थीं