Tuesday 24 October 2017

ज़िंदगी के फ़ासले पर मेरी पज़ीराई है

ऐ! ज़िंदगी तू कितने हिस्सों में कट-कट कर मेरे पास आई है
ये बता ऐसा क्यूँ है कि जो भी कोई मेरे क़रीब है वो हरजाई है 

ख़्वाब का पुलिंदा हर रात मेरे सिरहाने आकर लौट जाता है
ये बात क्या है कि मेरे आखों में कभी नींद क्यूँ नहीं आई है

मेरी रूह मेरी साँसें औ" मेरा पूरा ज़िस्म ये सब तुम्हारे ही हैं 
ऐ! मेरी मोहब्बत कि बाद इसके तू क्यूँ ख़ुद ही से शरमाई है

मैं कहाँ हूँ इसपर क्या कहूँ तुझसे कि वो बस एक ही बात है
मैं जहाँ हूँ वहाँ से पूरी ज़िंदगी के फ़ासले पर मेरी पज़ीराई है

ये तेरी हुस्न-ए-सल्तनत है यहाँ तो हर कोई तेरा ग़ुलाम है
कि बाद इसके भी क्यूँ तेरे दिल में अब भी सिर्फ तन्हाई है 

कि 'धरम' इस ज़िंदगी के बारे में मुझे और कहना ही क्या है 
मैं उसे देखूं या कि उसके अक्स को दिखती सिर्फ बेवफ़ाई है

Friday 20 October 2017

चंद शेर

1.
तेरे दर पर आए तो बेजार हुए क्या कहें कि हम किस तरह तार-तार हुए
खुद अपने ही हाथ से तराशे संग "धरम" अपने ही सीने के आर-पार हुए

2.
जब खो ही गया हूँ तो फिर खुद ही से अपना पता क्या पूछना
कि रखकर सामने आईना 'धरम' खुद ही से ख़ता क्या पूछना

3.
कि तेरी बज़्म-ए-उल्फ़त अब मेरे शरीक-ए-क़ाबिल न रहा
वहां जो मैं न रहा 'धरम' तो कोई भी मेरे मुक़ाबिल न रहा 

4.
"धरम" निकले थे इस ख़्याल से कि जाना बहुत है दूर
अब मंज़िल ही चल के आ गई इसमें मेरा क्या क़ुसूर

5.
इरादा मेरे क़त्ल का था "धरम" मगर बात वफ़ा की आ गई
कि बाद इसके ऐ! ज़ुल्फ़ तू खुद में सिमटी भी शर्मा भी गई 

Thursday 12 October 2017

खिलौना खुद अपने किरदार का

तुम ख़ुद भी पूरा कब आई थी
बस एक किरदार आता था तुझमें
जो झटके से
अपने पसंद का खिलौना लेकर
कुछ दिन खेलता था
फिर किरदार बदला खिलौना भी बदल गया

ये नया किरदार पुराने खिलौने पसंद नहीं करता
बंद कर देना चाहता है अलमारी में उसे
ऐसी अलमारी जिसमें कांच की कोई दीवार न हो
खिलौने की शक़्ल दिखाई न पड़े
उसकी छटपटाहट महसूस न हो

अलमारी में अब बंद हैं कई खिलौने
तुम्हारा किरदार अब बदलने में वक़्त नहीं लेता
अलमारी से पुराने खिलौने भी कभी निकालता है
जरुरत के वक़्त एक बार मुस्कुराता है
खिलौना भी हँस देता है
पर उसे पता है कि अगला वक़्त क्या गुज़रेगा
मगर वक़्त जो भी है गुज़र जाता है

कभी एक खिलौने ने तुम्हारे किसी किरदार को
अपने अंदर पनाह दी थी
उसकी परछाहीं अब भी बंद हैं अलमारी में
तुम्हें वो दिखाई नहीं देगी
कि अब तुम्हारा फिर से किरदार बदल गया है

हाँ इतने खिलौने से खेलते-खेलते
अब तुम खुद अपने किरदार के हाथ का
एक खिलौना बन गई हो
शायद तुम्हें मालूम हो या न हो
हाँ मगर अब एक खिलौना हो तुम
खुद अपने ही किरदार का

क्या जानें कुछ कहना चाहते हैं

शायद कोई शाख़ टूटा होगा वहां
दरख़्तों के रोने की आवाज़ आ रही थी
ये आवाज़ हर कोई सुन नहीं सकता
ये बुलंद नहीं होती
बस एक सिसकी होती है निकल जाती है

दरख़्तों के अश्क़
आखों में ही सूख जाते हैं
चेहरे पर उगी झुर्रियों तक नहीं पहुंचते

कराह की आवाज़
हलक़ से ऊपर तक नहीं आती
होंठ बस काँप के रह जाते हैं
क्या जानें कुछ कहना चाहते हैं 

Monday 9 October 2017

चंद शेर

1.
हमारे दरम्यां बात यदि छोटी सी थी तो बन ही क्यूँ न गई
औ" यदि वो बात अना की थी 'धरम' तो ठन ही क्यूँ न गई

2.
किस आरज़ू से बात रखूं "धरम" कि हर आरज़ू पे जी घबराता है
कि सामने तुम हो या तुम्हारा अक्स ये दिल समझ नहीं पाता है

3.
नहीं था चाहना तुमको टूटकर कि यूँ बिखरना मुझे गंवारा नहीं
अंजाम तो यही होना था "धरम" तुम मेरे नहीं मैं तुम्हारा नहीं

4.
उसकी अदाओं में बारूद है "धरम" वो बोलती है तो बम फटते हैं
औ" हमारी फितरत तो यही है कि बड़ी ख़ामोशी से हम कटते हैं

5.
कौन रुख़्सत हुआ है यहाँ से 'धरम' किसकी सारी यादें मिट गई हैं
कि अभी जो फैलीं थी चार-ओ-सू बस एक झटके में सिमट गई हैं

6.
पुराना ख़्वाब था 'धरम' खुली आखों में ही भर आया
कि गुज़रे लम्हों का ज़ख्म देखो फिर से उभर आया 

Sunday 1 October 2017

जान से मारा नहीं मुझे

तुमने भी कभी शौक से पुकारा नहीं मुझे
औ" यूँ ही कहीं भी जाना गँवारा नहीं मुझे

तुम क्यों ही पूछते हो मेरे उदासी का सबब
जब तुमने कभी रूककर सँवारा नहीं मुझे

ज़माना तो चाहता था की मैं ज़िंदा ही रहूं
पर तुमने भी क्यूँ  जान से मारा नहीं मुझे

ज़माने के बिसात पर मैं तो एक मोहरा ही था
क्या कहें की किस किस ने उतारा नहीं मुझे

वफ़ा तुम्हारे नाम की जलन आँख की रही
ऐसे आग से करना कोई किनारा नहीं मुझे

कि इसबार गिर के मैं तो खुद से ही उठा हूँ
"धरम" चाहिए अब कोई सहारा नहीं मुझे