Sunday 31 August 2014

नेकी कर

पुरानी कहावत है
"नेकी कर दरिया में डाल"

अब यह कहावत कुछ इस तरह है
"थोड़ी नेकी कर और खूब ढिंढोरा पीट"

और कुछ समय बाद यह यूँ हो जाएगा
"बुरा कर और नेकी का ढिंढोरा पीट"

!! बुद्धिमान लोग तो तीसरे मुकाम पर पहुँच भी गए हैं  !!

Friday 29 August 2014

कितना आसान है

कितना आसान है
औरों के  व्यक्तित्व का मुल्यांकन
मिला दिया हाँ में हाँ बढियां हो गया
गर न मिला हाँ में हाँ तो घटिया हो गया

कितना आसान है
औरों के सोच का मुल्यांकन
मिले आपकी सोच से तो बुद्धिमान
और गर न मिले तो मूर्ख

ज़मीं से आसमाँ का मिलन

मुझसे बहुत दूर वहां
आसमाँ झुककर ज़मीं को चूम रहा है
कितना छद्म है यह मिलन
जैसे कि
समंदर के दो किनारो का मिलन
दो विपरीत विचारधाराओं का मिलन

मगर हाँ
आसमाँ का ज़मीं से मिलन
सुखद भी है और
दूर से दीखता भी है

Tuesday 26 August 2014

सब मिट चुका है

मेरे आखों का अश्क अब तो सूख चुका है
इश्क़ का चमकता सूरज अब तो डूब चुका है

बगैर रूह के जिस्म किसी काम का नहीं
ग़म-ए-ज़ीस्त भी मुझसे अब तो ऊब चुका है

ज़ज्वात की दीवारें औ' प्यार का छत
वो मेरा पुराना आशियाँ अब तो ढह चुका है

ज़माने में अब भारी भीड़ है हुस्नपरश्तों की
यहाँ ज़ज्बात भरा इश्क़ अब तो मिट चुका है

बीच दुपहरी दरख़्त की छाँह में मयवस्ल होता है
पर्दा शर्म-ओ-हया का "धरम" अब तो उठ चुका है

Monday 25 August 2014

चंद शेर

1.
ज़ुस्तजू किसकी थी मुक़ाम क्या हासिल हुआ
जो ढल गई जवानी तो सोहरत भी चली गई

2.
अब कहाँ है दिल का सुकूँ और कहाँ है चैन की रातें
हर ओर उबल रहें है लोग अब नहीं है प्यार की बातें

Tuesday 19 August 2014

मुफलिसों की बस्ती औ' सियासी चश्मा

हर ओर खूब छाई है मस्ती जल गई मुफलिसों की बस्ती
आग लगाने वाले क्यूँकर करें क़ुबूल उनकी बड़ी है हस्ती

लगाकर नक़ाब चेहरे पर वो बहुत खूब छुपा रहें हैं फरेब
सियासी चश्मे में से किसी को नहीं दीखता इनका ऐब 

Saturday 16 August 2014

चंद शेर

1.
जब वो दर्द भरी दास्ताँ अपनी ज़ुबाँ से कह उठा
हर आँख डबडबा उठी औ' हर दिल कराह उठा

2.
कितने ज़ख्मों का असर है तेरे इस दर्द-ऐ-ज़ुबाँ में
गुलाब सी महक भी है और मिस्री सी मिठास भी

3.
तेरी इबादत में जुबाँ कटी औ' होठ भी सिले
कैसा हश्र-ए-इश्क़ है कि कराह भी न निकले

4.
जवानी की सारी हसरतें कब्र में दफ़न हो गई
किस्सा-ए-मोहब्बत बस याद-ए-सुखन हो गई 

Friday 15 August 2014

मैं क्या करने चला हूँ

खुद प्यासा हूँ समंदर की प्यास बुझाने चला हूँ
खुद बुझा हूँ आफताब को रौशन दिखाने चला हूँ

खुद अँधा हूँ ज़माने को राश्ता दिखाने चला हूँ
सरापा डूबा हूँ औरों को डूबने से बचाने चला हूँ

अंधेर नगरी में मैं एक बुझा हुआ इश्क़ का चिराग हूँ
बाद इसके मैं ज़माने में मोहब्बत की लौ जलाने चला हूँ

मैं यूँ हीं धड़कता हूँ हर रोज किसी मुर्दे के दिल में
बाद इसके मैं ज़माने को ज़िंदा-दिली सिखाने चला हूँ

मैं ऐसी ईमारत हूँ जहाँ कोई घर बना हीं नहीं "धरम"
बाद इसके मैं ज़माने को दुनियादारी सिखाने चला हूँ

Thursday 7 August 2014

मैं कौन हूँ

न मैं ख्वाब हूँ न मैं ख्याल हूँ
न गए वक़्त का कोई मिसाल हूँ

न मैं जिस्म हूँ न मैं जान हूँ
न दिल-ए-सुकूँ की पहचान हूँ

न मैं गीत हूँ न मैं साज़ हूँ
न किसी बज़्म की आवाज़ हूँ

न मैं इश्क़ हूँ न मैं हुस्न हूँ
न किसी महफ़िल का जश्न हूँ

न मैं ज़ख्म हूँ न मैं मरहम हूँ 
न किसी दिलरुबा का हमदम हूँ 

न मैं धड़कन हूँ न मैं स्वांस हूँ 
न आगाज़-ए-इश्क़ की आश हूँ 





Saturday 2 August 2014

चंद शेर

1.
मिटाकर वज़ूद मेरा तुम मुझको भुलाने चले हो
आईने में खुद अपनी शक्ल को झुठलाने चले हो

2.
अपने बज़्म में हर रोज बरपा के क़हर मुझपर
किस्सा-ए-दरियादिली दुनियाँ को सुनाने चले हो

3.
आसमाँ का सितारा हूँ बस दूर से ही प्यारा हूँ
अपनी तपिश में जलता हूँ औ" खड़ा बेसहारा हूँ

4.
कद्र-ए-इश्क़ की "धरम" अब कहाँ किसे है होश
बस मय का चार प्याला और हो गए मदहोश  

5.
तुझसे मरासिम था तो क़त्ल-ए-आम हो गया
इस शहर का हर मकाँ अब तो वीरान हो गया

6.
जला के दिल इन्शाँ का बुत को रौशन कर दिया
तुमने तो पाक-ए-इश्क़ को भी ग़ारत कर दिया

7.
एक नई सुबह की आश है कुछ बचा अभी भी खास है
सारा जग है तेरा अपना रे मन! फिर तू क्यों उदास है