Tuesday 25 October 2022

आख़िरी आदाब अभी बाक़ी है

नींद पूरी हो चुकी है  मगर ख़्वाब अभी बाक़ी है 
कि मौत के बाद का कुछ हिसाब अभी बाक़ी है

दिल धड़कने का कुछ सबब तो चाहिए ही हुज़ूर 
कि साँसों में थोड़ी सी जान जनाब अभी बाक़ी है 

दिल का हर मामला ख़ुद से एक जंग है ख़ुद का 
ख़ुद से  ख़ुद का आख़िरी आदाब अभी बाक़ी है 

दिन ढल गया रात निकल आई चाँद उग आया 
फिर भी आसमाँ में वो आफ़ताब अभी बाक़ी है 

हाथ भी थाम कर रखा फ़ासला भी बनाये रखा  
होश में हैं मगर आँखों में शराब अभी बाक़ी है  

शक्ल को न तो ज़माना पढ़ पाया न ही आईना   
कि चेहरे पर 'धरम' और हिजाब अभी बाक़ी है

Friday 21 October 2022

निगाह कभी पढ़ न सका

महज़ एक कदम चला बाद उसके बढ़ न सका 
ये कैसी बुलंदी है कि कोई भी वहाँ चढ़ न सका

आँखों में जब भी आँखें डाली नज़रें झुकने लगी   
रु-ब-रु तो हुआ मगर निगाह कभी पढ़ न सका

इश्क़ ने जब चेहरा खोला फ़न सारा नाकाम रहा 
सिर्फ़ चादर लटकाया मूरत उसकी गढ़ न सका  

धुवाँ होने लगा सब हर्फ़  क़लम दम तोड़ने लगा 
कोई भी नज़्म 'धरम' चेहरा उसका मढ़ न सका 

Sunday 16 October 2022

फिर ज़माना संभलने लगा

कुछ देर तो साथ अच्छा रहा फिर चेहरा जलने लगा 
पहले हाथ से हाथ छूटा  फिर क़दम  फिसलने लगा
  
न तो नज़रों ही से कह पाया  न ही होठों से बयाँ हुई 
औ" काग़ज़ पर जो लिखा  वो कलाम पिघलने लगा  

जो अपनी हद में रहा  वो हर किसी की  ज़द में रहा  
दीवार हद की गिराई तो फिर ज़माना संभलने लगा 

होठों पे तबस्सुम था औ" चेहरा भी उसका साफ़ था  
सितमगर करके सितम ख़ुद हाथ अपना मलने लगा 

जब ज़मीं के  ख़्वाब को कोई  अपना आसमाँ मिला 
तब होंठ आधा खुला रहा  मगर आधा  सिलने लगा   

जब हक़ीक़त मर गई 'धरम' सिर्फ़ वहम ज़िंदा रहा
तब हर लाश को लहराता  एक कारवाँ चलने लगा 

Monday 10 October 2022

वो ख़ूब रुलाने लगे

नींद बोझिल होने लगी कुछ ख़्वाब ऐसे आने लगे 
कैसे रुई से पत्थर तोड़कर बर्फ़ से पिघलाने लगे 

क्यूँ कोई भी चेहरा दुबारा कभी नज़र नहीं आया  
तेरी महफ़िल से निकलकर लोग कहाँ जाने लगे

ख़्वाबों से बनी दीवारें  ढ़ेर सारे ख़त से ढ़ला छत  
किसी मुंतज़िर को कब चैन की नींद सुलाने लगे 

आईने ने धीरे से कुछ कहा अक्स से नज़रें मिली 
फिर आँखों से आँखें चूमकर वो ख़ूब रुलाने लगे 

दिल में था तो दश्त था क़दमों से उतरी ख़ाक थी
ख़ुद के अंदर लोग न जाने  क्यूँ आग जलाने लगे   

सितारे अर्श के "धरम" अब ज़मीं को तकते नहीं    
सिरहाने में ख़ुद चाँद रखकर  नींद सुलगाने लगे  

Friday 7 October 2022

मैं कुछ दर्द गढ़ता हूँ

न तो मसरूफ़ रहता हूँ न ही फ़ुर्सत में रहता हूँ
अपना त'आरुफ़ मैं कुछ इस तरह से कहता हूँ
 
जब भी ज़ख़्म मोहब्बत का ढ़लने लगता है तब 
रखकर कलेजा कील पर  मैं कुछ दर्द गढ़ता हूँ

एक तो तन्हा आईना उसमें मेरा वो तन्हा शक्ल
अक्स औ" आईने को मैं एक धागे में सिलता हूँ 

आँखों से आँखें जब मिली रूह तक पथरा गई 
कि किसके चेहरे में  मैं अपना चेहरा पढ़ता हूँ

मिलें तो ख़फ़ा होना  न मिलें तो  बे-वफ़ा होना 
हरेक इश्क़ में ये इनाम  मैं दिन-रात सहता हूँ

ग़र कोई कल हो तो  क्यूँकर हो  किसलिए हो 
उम्र भर का दर्द 'धरम' जब मैं आज रखता हूँ