Sunday 29 May 2016

चंद शेर

1.
हम वो हैं जो कलम से अपने हाथ की लकीर लिखते हैं
बड़े अदब से "धरम" हम अपने नाम में फ़क़ीर लिखते हैं

2.
आज बरक्कत मिली तो हर किसी से कद तुम्हारा ऊँचा हो गया
वक़्त का खेल देखो "धरम" हर कोई तेरी नज़र से नीचे हो गया

3.
तेरे आने से ग़र कहर ही न बरपा "धरम" तो तेरा क्या आना हुआ
हुस्न की तपिश से ग़र खुर्शीद न जले तो हुस्न का मर जाना हुआ

4.
ग़र यही तेरा फैसला हो तो ज़माने को इसकी खबर हो जाए
ख़ुदा करे मुझपर "धरम" तेरे हरेक बद-दुआ का असर हो जाए  

अब आ गया हूँ मैं

क्या जाने किस मुकाम तक अब आ गया हूँ मैं
कि जिस्म में उतरकर जान तक अब आ गया हूँ मैं

वफ़ा की बात है तुम्हारी तुम खुद अपना जानो
कि अपनी तरफ से ईमान तक अब आ गया हूँ मैं

अब ये तुझ पर है कि मुझे पी लो या फिर छोड़ दो
कि बनकर शराब तेरे ज़ाम तक अब आ गया हूँ मैं

बातें बेरुखी कि थी तुम याद रखो या फिर भूल जाओ
कि सब छोड़कर दुआ-सलाम तक अब आ गया हूँ मैं

तुम चाहो तो पनाह दो मुझे या फिर कर दो दरकिनार
कि तेरे हुस्न के इस मकान तक अब आ गया हूँ मैं

तुम चाहो तो पलकों पे रखो या मुझसे फेर ही लो नज़र
कि तेरी मोहब्बत में इस अंजाम तक अब आ गया हूँ मैं

मेरी रुस्वाई हर जुबाँ पर है औ" हिकारत हर नज़र में है
कि ज़माने में "धरम" इस अंजाम तक अब आ गया हूँ मैं

Monday 23 May 2016

ये दिन भी कट ही गया

आधा जीवन तो भसड़ में ही कट गया सिर्फ एक ही पोटली ढोते-ढोते. घर से जब निकला था तब पास में सिर्फ दसवीं कक्षा का अंक पत्र था. पोटली बहुत हल्की थी इसलिए मन भी हल्का रहता था. साल-दर-साल पोटली में कागज़ के अंक पत्र, चरित्र प्रमाण पत्र और न जाने कैसे-कैसे पत्र जुड़ते गए. हक़ीक़त अब यह है की पोटली के साथ-साथ मन भी भारी हो गया है. शरीर स्थूल हो चला है. तोंद हर वक़्त अपने होने का एहसास कराते रहता है. हड्डी वक़्त-बे-वक़्त कट-कट की आवाज़ करते रहता है. पता नहीं क्या कहना चाहता है: तुम्हारा कट चुका है या कट रहा है या फिर तुम चूतिये हो और ज़िंदगी भर तुम्हारा ऐसे ही कटने वाला है? कभी-कभी मन दार्शनिक भाव से ओत-प्रोत होता है तो यह आत्मबोध होता है कि आदमी अपना खुद जितना काटता है दुनियाँ में उसका उतना कोई भी दूसरा नहीं काट सकता है. तो फिर इतना भसड़ क्यूँ? इतना ग़दर क्यूँ? इतनी बेचैनी क्यूँ? इतनी बेवाकी क्यूँ? ऐसे-ऐसे अनगिनत ढेर सारे प्रश्न उठने लगते हैं. बाद इसके पता चलता है कि दार्शनिक मन इतना खिन्न क्यूँ होता है. घोर खिन्नता में भी यदि करवट बदलता हूँ तब भी हड्डी कट-कट करने से बाज नहीं आता है. लेकिन इसबार हड्डी का कटकटाना ठीक लगता है क्यूंकि वह अकिंचन दार्शनिक हुए मन को काटता है और फिर मनःस्थिति सामान्य हो जाती है. रात में सोने के वक़्त एहसास होता है कि ये दिन भी कट ही गया.

Sunday 22 May 2016

चंद शेर


1.
जिसे चिलमन के पीछे रहना था उसकी खूब नुमाईश हो रही है
अब तो ज़माने को "धरम" न जाने कैसी-कैसी ख्वाइश हो रही है

2.
अब की जो लगी प्यास तो बदन के शराब से ही बुझेगी
जिस्म की आग है "धरम" जिस्म की आग से ही बुझेगी

3.
अब जाकर पता चला तेरे इश्क़ का रंग है स्याह
तुझे तो "धरम" जहन्नुम में भी न मिले पनाह

4.
कभी मुझपे तो कभी ज़माने पे "धरम" तुको हँसी आई
मुझे ये बात अच्छी लगी की तुमको कभी तो ख़ुशी आई

5.
कोई भी दावत-ए-सुखन कम है तेरे नज़र उठाने के बाद
महफ़िल में अब कौन रुकता है "धरम" तेरे जाने के बाद

6.
लब उदास है "धरम" औ" हैं चेहरे पर झुर्रियां
इस नेकी की सजा मुझे कुछ इस तरह मिली

7.
सिवा तेरे इस नफरत की आग को हवा कौन दे सकता है
कि बाद मरने के भी "धरम" मुझे सजा कौन दे सकता है

8.
उदासी इस क़दर उसके चेहरे पर घर कर गई "धरम"
कि कोई भी फूल उसके दामन में अब महकता नहीं

9.
उसके बज़्म में "धरम" अब कोई पैमाना छलकता नहीं
कि ज़िक्र-ए-यार पर भी अब उसका दिल बहकता नहीं

10.
तेरे नामुराद इश्क़ के खातिर हम ता-उम्र बस जलते रहे
बेवाक यूँ हुए "धरम" कि दुश्मनों से ही गले मिलते रहे

11.
ग़र हम तेरे न हुए "धरम" तो ज़माने में किसी के न हुए
फासलों को अब मुद्दत हो गया मगर किस्से पुराने न हुए

Tuesday 17 May 2016

प्यास बुझाती नहीं

रात भर अब तेरी कोई भी बात याद आती नहीं
औ" मेरी पहली मोहब्बत अब मुझे सताती नहीं

सीने के ऊपर रखा है पत्थर औ" नीचे पड़ा है ईंट
कि अब तेरी कोई भी बात मेरा दिल दुखाती नहीं

बात उल्फत की थी हर जुबाँ पर तेरा ही नाम था
अब तेरा कोई भी ज़िक्र मेरी नज़र झुकाती नहीं

पशेमा हुए गिर पड़े मगर उठने की चाहत भी थी
वो तेरी मदभरी आवाज़ अब मुझे बुलाती नहीं

हज़ारों हसीनाएँ हैं औ" दिल में रहम भी है "धरम"
मगर यहाँ कोई भी लब अब मेरी प्यास बुझाती नहीं 

Thursday 12 May 2016

चंद शेर


1.
उसे पाकर भी न चैन मिला औ" खोकर भी न क़रार आया
कि हर हाल में "धरम" मेरे ज़ख्म-ए-दिल पर निखार आया

2.
दिल कि खनक के आगे अब यहाँ फींका है हर साज़
जब से जज़्बातों ने "धरम" पलकों को दे दी आवाज़

3.
आज़ादी कि चाह ने इसको बना दिया कैसा कपूत
अब तो ये लगता है "धरम" जैसे हो कोई ज़िंदा भूत

4.
फ़ाक़ा मस्ती है औ" हैं हम अपने सल्तनत के सरताज
कि जूता रखते हैं सर पर "धरम" पैरों तले रखते हैं ताज

5.
जब भी मुस्कुराने का दिल किया गैरों के ताने याद कर लिए
हमने अपने मुफलिसी के "धरम" सारे ज़माने याद कर लिए

6.
मोहब्बत कि आखिरी रश्म वो अता कर गया
ज़िंदा लाश को "धरम" कफन ओढ़ा कर गया

7.
ऐ! ज़िंदगी तू मुझे मिली "धरम" ज़िंदगी के बाद
अब क्या तेरी बंदगी करूँ ता-उम्र रिंदगी के बाद

8.
ऐ! आसमाँ अब तू ही बरसा गुलफ़ाम की गला तर जाए
फिर तबियत में छाये कुछ खुमारी औ" चेहरा निखर जाए

9.
हुस्न को इश्क़ ने "धरम" कुछ यूँ नज़राना दे दिया
कि क़लम कर खुद अपना सर सारा ज़माना दे दिया

Saturday 7 May 2016

हिम्मत कौन करेगा

मुझे अब यहाँ तेरी तरह मोहब्बत कौन करेगा
दिल के साथ रूह भी देने की हिम्मत कौन करेगा

तेरी क़ातिल सी निगाह है मगर तुम खुद क़त्ल हुए
मेरे खातिर अब यहाँ ऐसे मरने की हिम्मत कौन करेगा

हर दिन हर लम्हा यहाँ तुमने मुझे अपने पलकों पे बिठाया
इस बोझ को अब सर-आँखों पर बिठाने की हिम्मत कौन करेगा

मेरे लफ्ज़ में बारूद है जब भी बोलूं तो आग बरसता है
इस आग को हँसकर अब बुझाने की हिम्मत कौन करेगा

मैं अपने दिल पर हाथ रखकर "धरम" खुद ही से पूछता हूँ
बाद उसके तेरे हर जुर्म को माफ़ करने की हिम्मत कौन करेगा 

Monday 2 May 2016

चंद शेर

1.

मैं खुद को तुझमे फ़ना होकर जीना चाहता हूँ
ज़िंदगी का हर दर्द तेरे होठों से पीना चाहता हूँ

2.
मेरी भटकती रूह को अपने बदन में पनाह दे दो
खुद को देखने के लिए तुम अपनी निगाह दे दो

3.
लपेटो कफ़न मेरे जिस्म में अपने आँगन में गाड़ दो
कि मैं तेरी नज़र में रहूँ औ" तुम मुझे भरपूर प्यार दो

4.
हज़ारों मर्ज़ झुक गया है बस एक तेरी चाहत के आगे
औ" मुझे अपना हश्र पता है वो तेरी मोहब्बत के आगे