ख़्वाब में सिर्फ़ मक़्तल ख़याल में कर्बला होगा
ऐ! मौला कैसे फिर इंसानियत का भला होगा
पहले भी जिनका ऐसा एक मिज़ाज रहा होगा
उन्हौंने हाथ अपना कुछ कम नहीं मला होगा
वह उजाला सिर्फ़ चराग़-ए-रौशनी की न थी
उस वक़्त दिल भी कुछ कम नहीं जला होगा
कैसी ख़ामोशी थी सन्नाटा न था एक शोर था
ग़ुर्बत में होंठ भी कुछ कम नहीं सिला होगा
हर गुस्ताख़ी के बाद ख़ुद से फिर वही वादा
मुस्तक़बिल में फिर कभी न कोई गिला होगा
हाथ बढ़ाया दिल मिलाया कुछ ज़ुबान भी दी
टूटने का अब फिर वहाँ एक सिलसिला होगा
'धरम' साँसों का कलेजे से क्यूँ ऐसा वादा कि
ख़ुद का ख़ुद में कभी न फिर दाख़िला होगा