Monday 22 December 2014

दरिया-ए-हुस्न को मैं सलाम करता हूँ

आपके नुमाइश-ए-हुस्न का मैं एहतराम करता हूँ
चूमकर इस दरिया-ए-हुस्न को मैं सलाम करता हूँ

खुद अपने ज़िस्म को मैं आपके ज़िस्म में उतारकर  
मुहब्बत में हवस भी जरुरी है अब ये एलान करता हूँ 

Thursday 18 December 2014

ज़ख्म-ए-दिल का जायका

कलेजे पर पत्थर रखकर अब तो मैं हर रोज सोता हूँ
मिलाकर लहू शराब में अब तो मैं हर रोज पीता हूँ

ज़ख्म-ए-दिल का जायका बहुत खूब भाया है मुझको
मिलाकर तेरी यादों में अपना कलेजा हर रोज खाता हूँ

जब तुम न थे मेरा दिल न धड़कता था न सुलगता था
दिल के टुकड़े को सीने में डालकर अब हर रोज सीता हूँ

जिस्म अकड़कर पत्थर के मानिंद पड़ा है अब चौराहे पर
ज़हर का घूँट "धरम" इसको अब तो हर रोज पिलाता हूँ

Sunday 14 December 2014

अपना अंदाज़ बनाये रखा

अपने दिल को मैंने कुछ इस तरह जलाये रखा
उसकी तस्वीर को अपने सीने से लगाये रखा

वो हरेक मुलाक़ात में मुखड़ा बदल के मिलते थे
औ" मैं अपना वो पुराना अंदाज़ बनाये रखा

उसमे ज़माने को लूटने का बहुत खूब इल्म था
औ" मैं खुद को लुटाने की ख्वाईश बनाये रखा

वो ज़ीस्त के हरेक कदम को संभाल कर रखते थे
औ" मैं ठोकर खाकर लज़्ज़त-ए-संग बनाये रखा

पाकर ज़माने की खुशियां भी वो कभी खुश न हुए
औ" मैं हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार बनाये रखा

उसकी ज़िंदगी में हमेशा ग़ुमनामी ही रही "धरम"
औ" मैं ज़माने को अपना मुशदा-ए-क़त्ल सुनाये रखा


लज़्ज़त-ए-संग : पत्थर की चोट खाने का आनंद
हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार : दुखों से आनंद प्राप्त करने की लालसा
मुशदा-ए-क़त्ल : क़त्ल की खुशखबरी 

Saturday 13 December 2014

ज़ीस्त के अंतिम प्रहर के लिए

दुखता नहीं है दिल किसी राहगर के लिए
आग लग के बुझ चुका है हमसफ़र के लिए

समंदर के मौज़ों पर बहुत अठखेलियां हुई
ज़ीस्त अब ढूंढता है किनारा बसर के लिए

दुनियाँ देख ली ज़माने को समझ भी लिया
कदम खुद-ब-खुद चल पड़ता है घर के लिए

दुनियाँ की रौशनी में अब तो आँख जलता है
जाँ बस रुकी है ज़ीस्त के अंतिम प्रहर के लिए

हर कब्रिस्तान की ज़मीं अब तो छोटी पड़ रही है
"धरम" शहर में खुल चुका है दुकाँ ज़हर के लिए

Friday 12 December 2014

चंद शेर

1.

एहसास-ए-सुखन हर किसी को मुमकिन नहीं होता
हरेक मोहब्बत आबाद रहे ऐसा यक़ीनन नहीं होता

2.

मुझसे बिछड़ने के बाद ख़ुदा करे तुम रहो आबाद
हर ओर तुम्हारी ही चर्चा हो और तू रहे ज़िंदाबाद

3.

कट-कट के जिस्म गिर रहा है तेरे इंतज़ार में
लोग मुझपर अब तो थूक रहें हैं भरे बाज़ार में

4.

तमाम उम्र गुज़ार दी मैंने औरों के ग़मगुसार में
ख्वाईश अब रह ही गई उतरने का जाँ-ए-यार में







Tuesday 18 November 2014

कोई ज़ख्म-ए-दिल नहीं है

फ़िज़ा में रंग है खुशबू है बहार भी है
और चमकता वो मेरा दामन-ए-यार भी है

दर्द-ए-हिज़्र का दूर तक कोई निशाँ नहीं है
जिधर भी देखूं दिखता सूरत-ए-यार ही है

बे-पनाह मोहब्बत की कहानी हरेक मज़ार पे है
बतौर-ए-निशानी चूमता रुखसार-ए-यार भी है

मोहब्बत के किस्से है यहाँ मुर्दा नाचता भी है
कि हरेक के बाहों में उसका बाहें-ए-यार भी है

जो बरसता है ग़ुलफाम हरेक शख्स झूमता भी है
नशा तारी है औ" चूमने को आरिज़-ए-यार भी है

अब कोई ज़ख्म-ए-दिल मुझको नहीं होता "धरम"
कि ज़ख्म और दिल के बीच वो नाम-ए-यार ही है

Saturday 15 November 2014

वक़्त से आगे

मैं जो वक़्त से आगे निकलना चाह रहा था  
हर ओर दीवारें थी न कोई राह मिल रहा था

सारे राहगर मुझसे कब के पीछे छूट गए थे
वक़्त राक्षश के मानिंद आग उगल रहा था

बहुत दूर पर वहां देखा पत्थर पिघल रहा था
मानव बनकर दानव कुछ और उबल रहा था

बारिश में शबनम के साथ शोला गिर रहा था
खेत कभी खिल रहा था तो कभी जल रहा था

पूनम की चांदनी का रंग काला पड़ गया था
औ" अँधेरे में तो सबको सबकुछ दिख रहा था

सारा जहाँ दे दो

मेरे अनकहे जज्बात को तुम अपनी जुबाँ दे दो
बरसों से दबे हुए उस प्यार को पूरा आसमाँ दे दो

मैंने सुना है तेरे दिल में ये पूरा ज़माना बसता है
अपना धड़कता दिल देकर मुझे सारा जहाँ दे दो

Thursday 13 November 2014

अपनी कब्र खोद आया

हर रंग में रंगा मगर जीने का न कोई अंदाज़ आया
अब मुझे मेरे हाल पर छोड़ दे मैं तुझसे बाज आया

जो उछाला था पत्थर मैंने उसे अपने ही सर पाया
हर ख़ुशी पे ग़म खाया औ" हर ग़म में मुस्कुराया

मेरा ज़नाज़ा-ए-इश्क़ तो तेरे ही दर से होकर आया
गुरूर-ए-हुस्न के नशे में तुमको ये न नज़र आया

अपने सीने का लहू मैं तेरे घर के चिराग में भर आया
मेरे जलते लहू का रंग भी अब तुझपर बे-असर आया  

मेरे मर्ज़ की कोई दवा न थी औ" दुआ भी बे-असर पाया
कि खुद अपने मरने का गैरों से जब मैंने ये खबर पाया

मज़ार-ए-इश्क़ के बगल में "धरम" खुद अपनी कब्र खोद आया
ता-उम्र तन्हाई में रहा और बाद मरने के ये रिश्ता जोड़ आया

Friday 7 November 2014

सीने से लहू रिसता है

जब भी मेरे सीने से लहू रिसता है
मेरा ज़ख्म बहुत खूब मुस्कुराता है

मेरा हरेक दर्द मेरे कान में बुदबुदाता है
और धमनियों में लवण का संचार होता है 

Tuesday 4 November 2014

चंद शेर

1.

तेरे शक्ल का नक़ाब लिए मैं खुद मारा फिरता हूँ
तेरे दुश्मन की गली में मैं यूँ ही आवारा फिरता हूँ

2.

ऐे गर्द-ए-सफर तेरा शुक्रिया
उसके गली की एक निशानी तो साथ है

3.

न जाने किस चमन की खुशबू फैली है मेरी ज़िंदगी में "धरम"
जो सिमट गई तो बिखर गई औ" जो बिखर गई तो सिमट गई

4.

ज़िंदगी कितनी नमकीन है तब पता चलता है
जब सारा मिठास बनकर पसीना बह जाता है

5.

कुछ दर्द मुझसे उधार लो तुम अपनी ज़िंदगी सँवार लो
कुछ ख़ुशी मुझको उधार दो मैं अपनी ज़िंदगी सँवार लूँ

6.

ये कैसी महफ़िल है कि यहाँ हर चेहरा अजनबी है
बस मैं एक फ़क़ीर हूँ और बाकी सब रियासती है 

हर किसी की हस्ती

बीच समंदर में लहरों के हिलोरों में
अकेला खड़ा अब तू क्या देखता है
सूरज तो कब का डूब चुका है
अब किसके डूबने की आश तकता है

मौजों से तेरी वो पुरानी दोस्ती
न जाने कब की डूब चुकी है वो कश्ती
वक़्त किसी को कहाँ मोहलत देता है
बस मिटा देता है वो हर किसी की हस्ती

Sunday 2 November 2014

आँख बच्चों के सपने बुजुर्ग के

जब भी बुजुर्ग
अपने बच्चों के आखों से ख्वाब देखते हैं
अहा! क्या नज़ारा है
भरी अमावस में भी महताब देखते हैं

उनके अपने चेहरे पर
भले ही झुर्रियां क्यों न फैली हो
मगर हाँ बच्चों के चेहरे पर
वो एक चमकता आफताब देखते हैं

रक्त का वो प्रवाह जो पत्थर को भी चूर कर दे
उनकी धमनियों में अब ठंढा पड़ गया है
बच्चे को भरकर अपने अंक में
रक्त के उस प्रवाह को महसूस करते हैं



Friday 31 October 2014

चंद शेर

1.

लिखकर पैमाने पर तेरा नाम मैं अपने होठों से लगा लूँ
तेरे शक्ल में ग़र कोई दूसरा भी आए तो उसे मैं अपना लूँ

2.

बड़ी तरतीब से टूटा है सीना मेरा आज दो बराबर टुकड़ों में "धरम"
एक हिस्सा उसका मुस्कुराता चेहरा और दूसरा मेरा अनकहे जज़्बात

3.

फ़कीरी का नशा उसपर कुछ इस तरह तारी है
अमीरों के दौलत-ए-नशा पर वह हमेशा भारी है

4.

पानी पर खिचीं लकीरों का कोई वज़ूद नहीं होता
अब तो यहाँ कोई भी रिश्ता बे-सूद नहीं होता 

पुरानी यादें

मानसपटल पर पड़े वक़्त के शक्ल का मरहम
परत-दर-परत जब भी अपनी पकड़ ढीली करता है

मुझे ले जाता है अपने पुरानी यादों की दुनिया में
और संवेदना के सारे पन्ने एक-एक कर पलट देता है

शक्ल के पीछे न जाने कितने शक्लों में दीखती है दुनियाँ
मानो हज़ार रंगों के मिश्रण में रंग पहचानो प्रतियोगिता हो

दो-चार अच्छे लम्हों को तो ज़ख्म का दीमक चाट चुका है
औ' बचा-खुचा अवशेष समंदर से गहरे दिल में खो चुका है


काश! अच्छे लम्हों का स्याह गहरा होता 

Tuesday 21 October 2014

फिर से गुजार लूँ

गुज़रे वक़्त को मैं फिर से गुजार लूँ
बस की आ मेरी जाँ मैं तुमको सँवार लूँ

पा कर तेरी झलक मैं चेहरा निखार लूँ
औ' अपने दिल में तेरी तस्वीर उतार लूँ

रखकर हाथों में तेरा हाथ मैं तुझसे क़रार लूँ
तुम अपनी आदत सुधारो मैं अपनी सुधार लूँ

गिले-शिकवे की बातें बस अभी ही बिसार लूँ
मोहब्बत में न तो तुम उधार लो न मैं उधार लूँ

Saturday 18 October 2014

चंद शेर

1.

अब ख़ाक भी तो नहीं मिलता कि जिसको छान सकूँ
जो कभी रही थी मेरी नबाबी अब उसको पहचान सकूँ

2.

चेहरा पूरा है आईना पूरा है फिर भी अक्स टूटा है
बड़े इल्म से आज मैंने आईने में दिल को देखा है

3.
सूनेपन को लपेटो चादर में और फेंक डालो
खुद से गुफ़्तगू कर लो की रात बीत रही है

4.

वह तो इन्तहां की सारी हदें पार कर गया
मुझको तन्हा छोड़ा और बीमार कर गया

5.

आईना कहाँ किसी की तरफदारी में बोलता है
वो जब भी बोलता है ईमानदारी से बोलता है

Monday 13 October 2014

रहा हूँ मैं

न जाने किस उम्मीद में जल रहा हूँ मैं
सर्द के मौसम में भी पिघल रहा हूँ मैं

फ़ैल चुका है अब तो अँधेरा मेरे चार-ओ-सू
फिर भी मंज़िल की ओर निकल रहा हूँ मैं

न तो कोई हमसफ़र है और न कोई राहगर
अब तो गिरकर खुद से ही संभल रहा हूँ मैं

पड़ी है जो ज़माने की लात पेट और दिल पर
कुछ इस तरह से थोड़ा थोड़ा बदल रहा हूँ मैं



Sunday 5 October 2014

क्या किये जा रहा है ?

किसका ग़म है जो तुझे खाए जा रहा है
वो कौन है यहाँ जो तुझे भुलाये जा रहा है

पलटकर देखो तुझे कोई नहीं अपनाये जा रहा है
फिर क्यों तुम अपने आप में भरमाये जा रहा है

मुद्दतों बाद आज फिर तुमने जो देखा है आईना
देखकर खुद अपने अक्स को शर्माए जा रहा है

लफ़्ज़ों की कशिश में बेदिली औ" ये हर्फ़-ए-मोहब्बत
फिर भला क्यूँ तुम मुझे झूठे किस्से सुनाए जा रहा है

यहाँ तो हर ओर फैली है आफताब की रौशनी
तब भला तुम क्यूँ ये चिराग जलाये जा रहा है

सीने से अपना दिल निकालकर उसे चूम रहे हो
कौन है जो अपने होने का एहसास कराए जा रहा है

महफ़िल ख़त्म हुई सारे कद्रदान जा चुकें हैं "धरम"
अब भला तुम किसको आखों से पिलाये जा रहा है

Saturday 4 October 2014

ज़िंदगी की सवारी

भटक रहा हूँ अनजान राहों पर पूरा छलनी है दिल
अनेक चौखट चूमा हूँ फिर भी नहीं मिली है मंज़िल  

तबीयत से प्रयास किया चढ़ाये अकीदत के भी फूल
बावजूद इसके लगता है ऐसा की कुछ हो रही है भूल

जन्म से जनाज़े तक का सफर होता नहीं है इतना आसाँ
एक ही ज़िंदगी में बनते-टूटते हैं कितने सपनों के मकाँ

बिना ज़ख्म के रिस रहा हैं लहू अब तो यहाँ पत्थरों से
आफताब खुद मांग रहा हैं रौशनी गर्दिश के सितारों से

हर्फ़-ए-इबादत घुल गया हैं मिट्टी में अब दिखाई नहीं देता
भूख से बिलख रहा हैं इंसान मगर ये शोर सुनाई नहीं देता

दिल के हरेक मसले पर "धरम" अब तो दिमाग भारी हैं
ज़िंदगी की दौड़ में रिश्ता इंसानियत का बस एक सवारी हैं 

Wednesday 1 October 2014

तेरा नाम चाहता है

हर शख्स तेरा ही सलाम चाहता है
तेरे लबों पर अपना नाम चाहता है

ख़ुदा ने बख़्शा है जो दौलत-ए-हुस्न तुमको
उसे पाकर अपने मुक़द्दर का इनाम चाहता है

गर्दिश का सितारा हर शब निकल कर चूमता है
तुझे झुककर सलाम करता है और फिर झूमता है

इस शहर में मुझ जैसा कोई दूसरा नहीं "धरम"
जो उसको हर रोज सुबह-ओ-शाम चाहता है 

Saturday 27 September 2014

चंद शेर

1.
ये अकीदत के फूल हैं हर बाग़ में यूँ ही नहीं खिलते हैं
मोहब्बत करने वाले अब तो मुश्किल से ही मिलते हैं


2.
कितना अनजान है मेरे घर का दर-ओ-दीवार भी मुझसे
हर रोज मिलता तो हूँ मगर देखता मुझे हैरत से है

3.
मंज़िल है अभी बहुत दूर सिर्फ गर्द-ए-सफर ही पास है
थामने को यहाँ बस अपने एक हाथ में दूसरा हाथ है

Monday 22 September 2014

एहसान मैंने कर दिया

खुद अपने क़त्ल का इकबालिया बयान मैंने दे दिया
बाद मेरे मरने के तुम आज़ाद हो ये फरमान मैंने दे दिया

जो भी कुछ हुआ वो सारा ज़ुर्म अपने नाम मैंने ले लिया
कि अपने हबीब-ओ-रक़ीब पर ये एहसान मैंने कर दिया   

Saturday 20 September 2014

मोहब्बत और हुकूमत

रूदाद-ए-मोहब्बत मैं भूला नहीं हूँ अब भी याद है
वो आधा कब्र औ' आधा दलदल अब भी आबाद है

मोहब्बत की लिखी आयतें अब तो खाक-ए-सियाह है
जो भी बची है मेरी किस्मत उसमे तीरगी बे-पनाह है

मंज़िल का पता भी नहीं निकल गया हूँ राहपैमाई पर
अब तो डर लगता है यहाँ हर किसी की दिलरुबाई पर

दोज़ख़ के बराबर चल रही है यहाँ आदमखोरों की हुकूमत
अब कहीं नहीं मिलता "धरम" किसी इन्शान की सल्तनत

Friday 12 September 2014

हम तो धूल हैं

हम तो धूल हैं बस यूँ ही खाक में मिलते रहेंगे
और उठे हमारी आवाज़ तो होठ सिलते रहेंगे

मेरे लहू के रंग से तेरे आरिज़ सुर्ख़ होते रहेंगे
मेरी झोपडी के आग से तेरे महल रौशन होते रहेंगे

तुम मुझे ज़ख्म देते रहो हम तुम्हें मजा देते रहेंगे
तुम बरपाओ कहर हमपर हम तुम्हें आबाद करते रहेंगे

अमीरी-मुफ़लिसी तो यूँ ही बेस-ओ-कम होते रहेंगे
हम लुटकर भी फ़क़ीरी में ज़िंदगी का मजा लेते रहेंगे 

Tuesday 9 September 2014

मेरी ज़िंदगी!

कितना डूब चूका हूँ कितना डूबना बाकी है
ऐ ज़िंदगी! तेरी गहराई का मुझे अंदाजा नहीं

हरेक डूब में लब से बस एक आह! निकलती है
पुराना ज़ख्म भरता भी नहीं नया निकल आता है

खुद अपने बदन के ज़ख्म को मैं पहचानता भी नहीं
कि किसने दिए हैं कौन ज़ख्म ये अब मैं जानता नहीं

अपनी धड़कन से भी अब ज़िंदगी का एहसास होता नहीं
यहाँ कितनी भीड़ है ज़माने में मगर कोई पास होता नहीं

इन्तहां हो गई फिर भी ज़ख्म का सिलसिला जारी है
मगर ऐ मेरी ज़िंदगी! मेरा तुझपे अब भी एतवारी है 

Wednesday 3 September 2014

चंद शेर

1.
हवा का रुख किधर का भी हो बुझता मेरा ही चिराग है
हर बार हुकूमत की लड़ाई में डूबता मेरा ही आफताब है 

Sunday 31 August 2014

नेकी कर

पुरानी कहावत है
"नेकी कर दरिया में डाल"

अब यह कहावत कुछ इस तरह है
"थोड़ी नेकी कर और खूब ढिंढोरा पीट"

और कुछ समय बाद यह यूँ हो जाएगा
"बुरा कर और नेकी का ढिंढोरा पीट"

!! बुद्धिमान लोग तो तीसरे मुकाम पर पहुँच भी गए हैं  !!

Friday 29 August 2014

कितना आसान है

कितना आसान है
औरों के  व्यक्तित्व का मुल्यांकन
मिला दिया हाँ में हाँ बढियां हो गया
गर न मिला हाँ में हाँ तो घटिया हो गया

कितना आसान है
औरों के सोच का मुल्यांकन
मिले आपकी सोच से तो बुद्धिमान
और गर न मिले तो मूर्ख

ज़मीं से आसमाँ का मिलन

मुझसे बहुत दूर वहां
आसमाँ झुककर ज़मीं को चूम रहा है
कितना छद्म है यह मिलन
जैसे कि
समंदर के दो किनारो का मिलन
दो विपरीत विचारधाराओं का मिलन

मगर हाँ
आसमाँ का ज़मीं से मिलन
सुखद भी है और
दूर से दीखता भी है

Tuesday 26 August 2014

सब मिट चुका है

मेरे आखों का अश्क अब तो सूख चुका है
इश्क़ का चमकता सूरज अब तो डूब चुका है

बगैर रूह के जिस्म किसी काम का नहीं
ग़म-ए-ज़ीस्त भी मुझसे अब तो ऊब चुका है

ज़ज्वात की दीवारें औ' प्यार का छत
वो मेरा पुराना आशियाँ अब तो ढह चुका है

ज़माने में अब भारी भीड़ है हुस्नपरश्तों की
यहाँ ज़ज्बात भरा इश्क़ अब तो मिट चुका है

बीच दुपहरी दरख़्त की छाँह में मयवस्ल होता है
पर्दा शर्म-ओ-हया का "धरम" अब तो उठ चुका है

Monday 25 August 2014

चंद शेर

1.
ज़ुस्तजू किसकी थी मुक़ाम क्या हासिल हुआ
जो ढल गई जवानी तो सोहरत भी चली गई

2.
अब कहाँ है दिल का सुकूँ और कहाँ है चैन की रातें
हर ओर उबल रहें है लोग अब नहीं है प्यार की बातें

Tuesday 19 August 2014

मुफलिसों की बस्ती औ' सियासी चश्मा

हर ओर खूब छाई है मस्ती जल गई मुफलिसों की बस्ती
आग लगाने वाले क्यूँकर करें क़ुबूल उनकी बड़ी है हस्ती

लगाकर नक़ाब चेहरे पर वो बहुत खूब छुपा रहें हैं फरेब
सियासी चश्मे में से किसी को नहीं दीखता इनका ऐब 

Saturday 16 August 2014

चंद शेर

1.
जब वो दर्द भरी दास्ताँ अपनी ज़ुबाँ से कह उठा
हर आँख डबडबा उठी औ' हर दिल कराह उठा

2.
कितने ज़ख्मों का असर है तेरे इस दर्द-ऐ-ज़ुबाँ में
गुलाब सी महक भी है और मिस्री सी मिठास भी

3.
तेरी इबादत में जुबाँ कटी औ' होठ भी सिले
कैसा हश्र-ए-इश्क़ है कि कराह भी न निकले

4.
जवानी की सारी हसरतें कब्र में दफ़न हो गई
किस्सा-ए-मोहब्बत बस याद-ए-सुखन हो गई 

Friday 15 August 2014

मैं क्या करने चला हूँ

खुद प्यासा हूँ समंदर की प्यास बुझाने चला हूँ
खुद बुझा हूँ आफताब को रौशन दिखाने चला हूँ

खुद अँधा हूँ ज़माने को राश्ता दिखाने चला हूँ
सरापा डूबा हूँ औरों को डूबने से बचाने चला हूँ

अंधेर नगरी में मैं एक बुझा हुआ इश्क़ का चिराग हूँ
बाद इसके मैं ज़माने में मोहब्बत की लौ जलाने चला हूँ

मैं यूँ हीं धड़कता हूँ हर रोज किसी मुर्दे के दिल में
बाद इसके मैं ज़माने को ज़िंदा-दिली सिखाने चला हूँ

मैं ऐसी ईमारत हूँ जहाँ कोई घर बना हीं नहीं "धरम"
बाद इसके मैं ज़माने को दुनियादारी सिखाने चला हूँ

Thursday 7 August 2014

मैं कौन हूँ

न मैं ख्वाब हूँ न मैं ख्याल हूँ
न गए वक़्त का कोई मिसाल हूँ

न मैं जिस्म हूँ न मैं जान हूँ
न दिल-ए-सुकूँ की पहचान हूँ

न मैं गीत हूँ न मैं साज़ हूँ
न किसी बज़्म की आवाज़ हूँ

न मैं इश्क़ हूँ न मैं हुस्न हूँ
न किसी महफ़िल का जश्न हूँ

न मैं ज़ख्म हूँ न मैं मरहम हूँ 
न किसी दिलरुबा का हमदम हूँ 

न मैं धड़कन हूँ न मैं स्वांस हूँ 
न आगाज़-ए-इश्क़ की आश हूँ 





Saturday 2 August 2014

चंद शेर

1.
मिटाकर वज़ूद मेरा तुम मुझको भुलाने चले हो
आईने में खुद अपनी शक्ल को झुठलाने चले हो

2.
अपने बज़्म में हर रोज बरपा के क़हर मुझपर
किस्सा-ए-दरियादिली दुनियाँ को सुनाने चले हो

3.
आसमाँ का सितारा हूँ बस दूर से ही प्यारा हूँ
अपनी तपिश में जलता हूँ औ" खड़ा बेसहारा हूँ

4.
कद्र-ए-इश्क़ की "धरम" अब कहाँ किसे है होश
बस मय का चार प्याला और हो गए मदहोश  

5.
तुझसे मरासिम था तो क़त्ल-ए-आम हो गया
इस शहर का हर मकाँ अब तो वीरान हो गया

6.
जला के दिल इन्शाँ का बुत को रौशन कर दिया
तुमने तो पाक-ए-इश्क़ को भी ग़ारत कर दिया

7.
एक नई सुबह की आश है कुछ बचा अभी भी खास है
सारा जग है तेरा अपना रे मन! फिर तू क्यों उदास है





Thursday 31 July 2014

मोहब्बत की इन्तिहाँ तक जाऊंगा

मैं तो मोहब्बत की इन्तिहाँ तक जाऊंगा
तेरे जिस्म से लेकर तेरी जाँ तक जाऊंगा

मेरे दिल में मिलन-ए-नज़र-ए-चिराग जल चुका है
तेरे इंतज़ार में ज़ीस्त के अंतिम ख़िज़ाँ तक जाऊंगा

ये मोहब्बत! है इसमें बे-सबब रुस्वाई तो होती ही है
तुझको पाने मैं तेरे अंतिम नक्श-ए-पाँ तक जाऊंगा

बिन तेरे मेरी ज़िंदगी बस एक तन्हाई की रात है "धरम"
रौशन-ए-ज़ीस्त के लिए हद-ए-सितम-ए-दौराँ तक जाऊंगा 

Monday 14 July 2014

लब पे ताला पड़ गया

ज़रा सी बात थी मगर रंग गहरा पड़ गया
दिल टूटा ही था की ज़ख्म गहरा पड़ गया

अब तो कोई राज़ दफ़न भी नहीं है सीने में
दिल में झांक कर देखा जिस्म ठंढा पड़ गया

हसरत भरी निगाह भी अब काम नहीं आती
जो उतरा दरिया-ए-इश्क़ में तो सूखा पड़ गया

जब से मेरी ज़िंदगी का आफताब बे-वक़्त डूबा है
चौदवीं के महताब का भी रंग काला पड़ गया

इस शहर में अब तो हर कोई मुझसे खफ़ा है "धरम"
जो पूछा हाल-ए-दिल तो लब पे ताला पड़ गया 

Sunday 6 July 2014

अब नहीं मिलता

दूर तलक अब कोई बूढ़ा सज़र नहीं मिलता
राह-ए-ज़िंदगी में कोई हमसफ़र नहीं मिलता

हम तो खड़े हैं कई सालों से चौहरे पर मगर
मुझे अपनी तबीयत का कोई डगर नहीं मिलता

पेश-ए-नज़र भी किये औरों का नज़राना भी लिया
मिले जो दिल को सुकूँ ऐसा कोई नज़र नहीं मिलता

मर्ज़-ए-इश्क़ में तो हरेक दवा नाकाम होती है "धरम"
कर दे जो तबीयत हरी ऐसा कोई ज़हर नहीं मिलता 

Friday 4 July 2014

चंद शेर

1.
दो दिलों का फ़ासला कुछ यूँ बढ़ता गया
गोया बुढ़ापे का रंग जवानी पर चढ़ता गया

2.
ज़ूनू-ए-इश्क़ में गर्क-ए-दरिया का सफर अभी बाकी है
एक रोज मुझको डूबना है मगर वो मंज़र अभी बाकी है

Wednesday 18 June 2014

रस्म जांनिसारी का

जुड़ने से पहले ही टूट गया वो रिश्ता यारी का
अब कहाँ किसके पास है इलाज़ इस बीमारी का

ज़माने से अब रश्म उठ चुका है ऐतबारी का
हर ओर व्याप्त है प्रभाव इस महामारी का

होठों पे रखते हैं ख़ुशी औ" दिल में ज़रर
अब तो हर ओर चलन है इसी अदाकारी का

मोहब्बत तो हो गया एक जरिया जांआज़ारी का
अब कहीं नहीं मिलता "धरम" रस्म जांनिसारी का

Friday 13 June 2014

कोई आशियाँ न मिला

रात भर जुगनू रौशनी लुटाता रहा
मेरे दर्द-ए-दिल को यूँ हीं बढ़ता रहा

मैं ढूंढता रहा सुकूँ देने वाली अँधेरी रात
कहीं चिराग तो कहीं जलता दिल मिलता रहा

ज़ख्म पर नमक तो मिला मरहम न मिला
जो समझ सके दर्द-ए-दिल वो हमदम न मिला

चेहरे की मायूसी भी भला कहाँ छुपती है
मुझे तो किसी मकाँ में कोई घर न मिला

दिल टूटा हुआ था अब तो जिस्म भी तड़पने लगा
ढूंढने पर भी किसी शहर में कोई इन्सां न मिला

थककर जब मैं खुद अपने शहर को लौटा "धरम"
वहां भी मुझे अपना वो पुराना आशियाँ न मिला  

Wednesday 11 June 2014

काल

मुहं फाड़े काल
सुनामी के मानिंद
बढ़ता चला आ रहा
तोड़ता चबाता निगलता हरे भरे वृक्ष

मानव खुद अर्पण कर रहा
अपना जीवनदायनी रक्षा कवच
काल का पेट समंदर से भी गहरा
निगलकर वृक्ष करता चोट मानव पर

न करता कभी उल्टी
न होता कभी कब्ज़ काल को
हर वक़्त भूखा प्यासा
कहर बरपाने की आशा

उजाड़ कर जंगल बस्ती
हँसता खिलखिलाता झूमता
और करता तांडव नृत्य
शेष मानव थरथराता देखकर यह कृत्य

प्रकृति का यह रौद्र रूप
कितना भयानक कितना कुरूप
मानो फन काढ़े विषैले असंख्य सर्प
उगल रहा हलाहल

प्रकृति से खिलवाड़ कितना भयंकर
मानो तीसरा नेत्र खोले साक्षात शंकर
उगल रहा अपने गले का विष नीलकंठ
मचा रहा कोहराम औरों का सूखता कंठ

सबल मानव
कितना दुर्बल दीखता अपने कुकृत्य पर
पछताता अहा! न खेलता प्रकृति से
और एक बार फिर काटता जंगल

बनाता कारखाना बहाता मल
गंगा का जल अब कहाँ स्वच्छ कहाँ निर्मल
पीकर प्रदूषित जल
करता रोग की खेती स्वयं अपने अन्दर

राक्षश कब अपने कु-कृत्य पर पछताता है
कर औरों पर ज़ुल्म वह खूब खिलखिलाता है
सब से सबल धरा पर वह अपने को बतलाता है
मगर आह! यह काल उसको भी खा जाता है

गिद्धों का हर ओर हो रहा महाभोज
अँधा मानव निकालना चाहता कारण इसका खोज
जो कारण है स्पष्ट वह उसको दीखता नहीं
बिगड़ता देख प्रकृति का संतुलन वह कुछ सीखता नहीं



Thursday 5 June 2014

रिश्ता

मेरे रिश्ते को धागों से मत बांधो
खुला रहने दो सैर करने दो आसमाँ में
झुक कर चूम लेने दो ज़मीं को
घुलकर बहने दो नदी में कहीं संगम हो जाए

बहने दो इसे हवा के साथ स्वछन्द
कस कर खींचो स्वांस कहीं क्षणिक मिलन हो जाए
और कर पाये महसूस तुम्हारी धड़कन को
स्वांस का आना-जाना तो यूँ हीं लगा रहता है

ग़र तुम पलटो वरक मेरे दिल का
मिलेंगे आड़ी-तिरछी रेखाएं तेरे हथेली की
और उसके साथ मिलेगा कुछ महफ़ूज़ यादें
जिसे वक़्त ने धुंधला कर दिया है 

Wednesday 28 May 2014

ऐ साक़ी !

चला जो तीर-ए-नज़र हर एक दिल घायल हुआ
उसके महफ़िल का हर एक दीवाना कायल हुआ

इस बाजार-ए-हुस्न में हर कोई है दिलफ़रोश
बेनकाब साक़ी और मय अब कहाँ किसे है होश

साक़ी का तक्खल्लुस भी यहाँ होता है दिलसाज़
गर वो हो मेहरबाँ तो कैसा होगा वो दिलजू अंदाज़

उसके आने से ये महफ़िल हो गया दीवान-ए-खास
मेरा दर्द-ए-दिल "धरम" अब हो गया तह-ए-ख़ाक 

Saturday 17 May 2014

सियासत का खेल

सियासत का खेल कितना नंगा था
मुद्दा वज़ीरों का सिर्फ दंगा था

जो बन जाएगी दूसरी सरकार
हर ओर होगी क़त्ल औ' हाहाकार

एक के बाद एक सब लग गए तुष्टिकरण में
मुद्दा भ्रष्टाचार औ' मानवता उड़ गया गगन में

लगे बस ठोकने ताल कि हम ही हैं तुम्हारे रक्षक
बाकि सब तो हैं राक्षस औ' तुम्हारे भक्षक

डराकर मानव को दानव ही तो जीता है
कोई मानव कहाँ किसी का लहू पीता है

खुद देकर ज़ख्म आरोप किसी और सर मढ़ दिए
जो न माने बात तो खुलेआम सीने पर चढ़ गए

डराए धमकाए और क़त्ल भी करवाये
और रखे हैं अरमान कि लोग उन्हें ही अपनाये

लिया धरा पर जन्म तो जीवन पर अधिकार सिद्ध है
एक बार खुद भी तो परखें कि कौन गरुड़ कौन गिद्ध है

मानव से मानव को तोडना एक राक्षशी प्रवृत्ति है
मिलाकर जो चल सके सबको उसी की राष्ट्र में भक्ति है

जय हिन्द जय भारत

Wednesday 14 May 2014

अखंड हिन्दुस्तान

जय बोलो श्री राम की जय बोलो गुरु परशुराम की
जय बोलो बजरंग की जय बोलो अब संघ की

जय बोलो उपनिषद् की जय बोलो अब परिषद् की
जय बोलो श्री श्याम की जय बोलो अब आवाम की

जय बोलो माँ दुर्गा की जय बोलो माँ काली की
जय बोलो सत्कर्म की जय बोलो सनातन धर्म की

जय बोलो रणचंडी की जय बोलो माँ भारती अखंडी की
जय बोलो राष्ट्र-गाण की जय बोलो अखंड हिंदुस्तान की   

Friday 2 May 2014

तुम और रकीब

तुम आए जीने का तहजीब आ गया
मैं खुद भी अपने करीब आ गया

कब धड़का था दिल मेरा यूँ इस तरह
कि हर धड़कन पर मैं तेरे करीब आ गया

जो मैंने बढ़ाया हाथ तो तुम गले भी मिले
औ' ज़माने की खुशियाँ मेरे नसीब आ गया

तेरे इश्क़ का दरिया था मैं उतरा औ' डूबा भी
महज़ चंद डुबकियों में ही एक ताकीद आ गया

हर कोई मुकद्दर का सिकंदर कहाँ होता "धरम"
अगली मुलाक़ात में ही साथ उसके रकीब आ गया  

Friday 18 April 2014

ज़माने की मिशाल

मैं झुका भी और हर जोड़ से टूटा भी
मगर ज़माने को कभी खुश न कर सका 

Saturday 12 April 2014

देते हो

करवाके क़त्ल ख़ुदकुशी का नाम देते हो
तुम तो जुर्म को भी नया आयाम देते हो

हर रोज नए गिरह बांधते हो खोलते भी हो
घोलकर ज़हर इंसानियत का नाम देते हो

हम तो ज़माने से जमीं पर रहने के शौक़ीन हैं
कुछ वक़्त के लिए क्यों आसमाँ की ऊडॉं देते हो

हमने सोचा तेरे आने से मुकद्दर जाग जायेगा
तुमतो आकर सोये मुकद्दर को भी मार देते हो

हवा देकर आपसी रंजिश को तुम "धरम"
हमें भीड़ में भी डर तन्हाई का दिखा देते हो

Monday 7 April 2014

बना रखा है

अनगिनत ज़ख्म सीने में छुपा रखा है
हरेक दर्द को मैंने धड़कन से लगा रखा है

हरेक रिश्ता यहाँ पोसीदः होकर टूट गया है
फिर भी उससे भरम इख़लास का बना रखा है

अश्क़ का दरिया था अब सूखकर क़तरा हो गया है
आखों में उसके आने का ख्वाब अब भी छुपा रखा है

मुझसे बिछड़कर वो कुछ इसकदर रूठा है "धरम'
कि रुठने का वो अपना नया अन्दाज़ बना रखा है 

Friday 4 April 2014

अच्छा नहीं लगता

हर रोज टूटना बिखरना अच्छा नहीं लगता
किसी को बार-बार मनाना अच्छा नहीं लगता

माना कि उससे रंजिश नई है मगर प्यार तो पुराना है
यकायक मिलें तो नज़र झुकाके निकलना अच्छा नहीं लगता

सुना है कि ऊपर वाला तंग दिल नहीं होता "धरम"
करम ख़ुदा का ग़र मुवाज़ी न बरसे तो अच्छा नहीं लगता


मुवाज़ी : बराबर-बराबर


Tuesday 1 April 2014

चंद शेर

1.
तुम मुझे दर्द दो तो ज़िंदगी का एहसास हो जाए
हर वक़्त हर लम्हा अब मेरे लिए खास हो जाए

2.
यहाँ कोई नहीं जो मेरे दर्द-ए-दिल कि दवा करे
मैं जब भी गर्दिश में रहूँ वो मेरे लिए दुआ करे

3.
ये दर्द तो अपना है मगर ख्याल किसका है
जवाब तो मैं खुद हूँ मगर सवाल किसका है

4.
ग़र दिल न मचले तो धड़कने का सबब क्या है
मेरा साथ है तो फिर रूठने का मतलब क्या है



Thursday 27 March 2014

एक तमन्ना

घुलकर लहू में मैं जो तेरे जिगर में उतर जाऊँ
मैं ताउम्र भटका हूँ अब तेरे दिल में बसर पाऊँ

यूँ ही एक रोज भटकते हुए मैं जो तेरे घर पहुंचा
लौटने लगा तो ये सोचा की जाऊँ तो कहाँ जाऊँ

एक तमन्ना है की तेरे सीने पे सर रखूं सुकूँ पाऊँ
ग़म-ए-दौरां से उब चुका हूँ अब थोड़ी ख़ुशी पाऊँ

ये जिस ख़ुशी की आहट पे मेरा ग़म सो रहा है "धरम"
ग़र वो हो तेरा नाम तो मैं इससे ज्य़ादा और क्या पाऊँ

Wednesday 19 March 2014

एक सिलसिला जारी रहा

रूठने मनाने का सिलसिला  बदस्तूर जारी रहा
उन्हें हमारे दुश्मनो से मिलने का ऐतवारी रहा

ये खता किसकी है यह बताना तो मुश्किल है
उसका मुझपर हर रोज सितम ढाना जारी रहा

एक-एक वक़्त जोड़कर मैंने मोहब्बत बुलंद की थी
मगर उसका तो हरेक याद को झुठलाना जारी रहा

जोड़कर लम्हें मैं अपना मकाँ-ए-इश्क़ बनाता रहा
उसका मेरे ही चिराग से मेरा घर जलाना जारी रहा

जलती यादों को देखकर मैं बार-बार तड़पता रहा
उसका हरेक याद को ज़िंदा दफनाना जारी रहा

सबकुछ लुट गया "धरम" फिर भी मेरा ऐतवारी रहा
मगर उसका मेरे रकीब के बाँहों में बाहें डालना जारी रहा



Tuesday 18 March 2014

कई चेहरे

एक चेहरे के पीछे कई चेहरे छुपाना
सीखा है कहाँ से ये इल्म मुझे भी बताना

अपनों पे सितम ढाना गैरों पे करम करना
मैं खूब जनता हूँ तेरा इल्म तुम मुझे न भरमाना

इश्क़ मोहब्बत यारी ये तेरी सब झूठी बातें हैं
तुम हरज़ाई बनकर अब मुझे न आज़माना

जो छुपे महताब आसमां में तो तेरा इश्क़ फरमाना
जो निकले आफताब तो तेरा सर-ए-आम शर्माना

उसके इश्क़ के चर्चे मैंने भी खूब सुना है "धरम"
कितनों को देखा है बहते दरिया से कतरा हो जाना


Thursday 13 March 2014

कभी ऐसा भी हो

ये लाज़िमी नहीं कि हर बार दुआ-सलाम ही हो
क्यूँ न कभी-कभी हो तो क़त्ल-ए-आम भी हो

ये क्या कि हर बार बस पिलाते हो मय
जो हो तो कभी-कभी नज़र-ए-ज़ाम भी हो

तुम जो हर रोज गुजरती हो मेरी गली से दिन में
क्यूँ न ऐसा हो कि मेरी गली में तेरी शाम भी हो

ये क्या कि हर रोज का यूँ हीं छुप-छुप कर मिलना
अब मिलना हो तो मिलो वहाँ जो राह-ए-आवाम भी हो

वक़्त की पावंदी में हरेक मुलाक़ात मुख़्तसर लगती है
अब की मिलो तो दिन हो शाम हो और शब्-ए-जाम भी हो

यूँ तो तुम हमेशा मेहरबां होते हो हरेक दौलतमंद पर "धरम"
कभी ऐसा भी हो की तुम भी हो और गर्दिश-ए-अय्याम भी हो

Monday 10 March 2014

ये क्या पाया

अपनी कब्र खोदी ज़िंदा ज़िस्म दफनाया
ज़न्नत की सैर की वहाँ भी न मज़ा पाया

अपना सीना चीरा खुद अपना ही लहू पीया
टुकड़ों में बांटकर ज़िस्म खुद मैंने बिखराया

ये किसकी आह! पर दिल मेरा धड़क आया
ये कौन है जो मेरे बिखरे ज़िस्म को समेट लाया

उड़ जाता हूँ एक फूंक से ये कैसा मैंने ज़िस्म पाया
टूट जाता है दो बे-दिली के हर्फ़ से कैसा मैने दिल पाया

जिसकी साँसों की गर्मी से बदन ठंढा हो जाता है
ऐ ख़ुदा! जो पाया भी तो उसने कैसा महबूब पाया

चीरे हुए दिल का तुम रफू खूब करते हो "धरम"
ख़ुदा से पाया भी ये इल्म तो क्या भला पाया

Thursday 27 February 2014

दिल मेरा भर आया

ये किस के दर्द से दिल मेरा भर आया
जो ज़ख्म छुपा रखे थे वो फिर उभर आया

मैंने तो गुमनाम ज़िंदगी शुरू कर दी थी
ये कौन है जो मेरा नाम लेते हुए मेरे शहर आया

अंदाज़ मोहब्ब्त के हमने भी बहुत देखे हैं
ये कौन है जो चीरकर सीना मेरे घर आया

तड़पता ज़िस्म था और टुकड़ों में बिखरी ज़िंदगी
न जाने क्यूँ आज ख़ुदा को मुझपर रहम आया

क़त्ल मेरे मोहब्बत का हुआ खुद मैंने उसे दफनाया
वो कौन है "धरम" जो उसकी सूरत में फिर नज़र आया

Tuesday 25 February 2014

ग़ज़ल को जाया न करो

तुम मुझसे अब फासले पर रहा करो
मुझसे मिलो मगर अकेले में न मिला करो

तुमको मुझसे रंजिश भी है मोहब्बत भी है
अजीब किस्सा है इसे यूँ हीं न सुनाया करो

चोट दिल पे खाई है ज़ख्म पूरे बदन में है
तुम मुस्कुराकर इसे और बढ़ाया न करो

ग़ैरों का करम है मैं ज़िंदा हूँ साँस चल रही है
पिला के नज़र-ए-जाम मुझे रुलाया न करो

जब भी दिल दुखता है ग़ज़ल का घूँट पी लेता हूँ
फेंक कर मेरी ग़ज़लों को मुझे सताया न करो

जो उम्र ढल गई है तो तेरे ग़ज़ल पे जवानी आई है
ये बुढ़ापे का इश्क़ है "धरम" इसे यूँ ही जाया न करो


Sunday 23 February 2014

मकां और घर

बाज़ार से खरीदकर मकां उसको तुम घर कहते हो
मैं जो रहता हूँ तेरे दिल में मुझे तुम बे-घर कहते हो

न जाने किस-किस के हाथों में बिका है यह मकां
देखूं गौर से तो दीखता है हर खरीददार के निशां

उसके लहू की आग में जल उठा था किस-किस का घर
गुजरता हूँ उस कूचे से तो अब मिलता नहीं कोई सजर

न जाने किस मुकाम पर अब ये ज़िंदगी चली गई
पास उसके सिर्फ ग़म है अब तो हर ख़ुशी चली गई

सजाने-सवारने से मकां घर नहीं बन जाता "धरम"
मकां को घर बनाने में लगता है मोहतरम का करम




Sunday 16 February 2014

रू-ब-रू-ए-दर्द-ए-हिज्र

मैं जो उसका हुआ तो बस बे-आबरू हो गया
अब ज़िस्म के साथ जाँ भी बाज़ारू हो गया

जो धड़कता था दिल कभी अपने मिज़ाज़ से
अब उस बे-वफ़ा के इश्क़ से बीमारू हो गया

मिलाकर अश्क ज़हर में मैं रोज पीता रहा
ऐ दर्द-ए-हिज्र मैं तो तुम से रू-ब-रू हो गया

मत झांको अब किसी के दिल में ऐ "धरम"
अब तो यहाँ हर रिश्ता तश्न-ए-खूं हो गया

Wednesday 12 February 2014

चंद शेर

1.
आज प्याले से पिलाओ नज़र से पिलाओ
मैं ज़माने से प्यासा हूँ जी भर के पिलाओ

2.
न बरसाओ गुलफ़ाम ए ख़ुदा आसमां से
बिना साक़ी के भी कहीं शराब नशा देता है

3.
उसके बज़्म में जाकर पानी भी दवा हो जाता है
उसके लब से निकला हरेक हर्फ़ दुआ हो जाता है 

Sunday 9 February 2014

अब किधर जाएँ हम

सिल गए सारे होंठ अब हर जुबाँ खामोश है
लेकर प्याला लहू का खूब नाचता बदमाश है

गिरा कर रक्त मानव का दानव करता नृत्य है
करती वसुंधरा अफशोस हाय यह कैसा कृत्य है

मुद्रा की शक्ति के आगे अब कांपता महारुद्र है
हर ओर पूजी जाती है लक्ष्मी सरस्वती अब क्षुद्र है

मानवता का रक्षक अपने को बतलाता अब यहाँ गिद्ध है
अब यहाँ से किधर जाएँ हम धर्म का हरेक मार्ग अवरुद्ध है

कुतर कर गरुड़ का पंख उल्लू धर्म का करता प्रचार है
सबला के हाथ में है अबला दिन-रात होता व्यभिचार है

भेंड़ की खाल में छुपकर अब बैठता यहाँ सियार है
घोड़ा से ज्यादा "धरम" अब यहाँ खच्चर होशियार है

Thursday 6 February 2014

वैलेंटाइन वीक

मेरे प्यारे साथियों "वैलेंटाइन वीक" शुरू हो गया है। हम भारतीयों द्वारा "वैलेंटाइन वीक"  मनाना मानसिक
ग़ुलामी की एक और पहचान है। हमारा भारत देश हमेशा से एक स्वच्छ और स्वस्थ सभ्यता का गवाह रहा है। यहाँ के लोग प्यार को सालों भर बांटते आए हैं। यह साप्ताहिक प्यार महज एक दिखावा तथा ढकोशला है। इस छद्म और झूठे प्रदर्शन के लिए युवाओं से ज्यादा उत्साह युवतिओं में देखने को मिलता है। हरेक "वैलेंटाइन डे" को नए सिरे से मनाना आज-कल के युवाओं तथा युवतिओं का शौक हो गया है। इस साल का "वैलेंटाइन डे" किसी के साथ तो अगले साल का किसी दूसरे के साथ, वाह रे "अंग्रेजी प्यार " तुम तो धक् से शुरू होते हो और फ़क पे ख़तम हो जाते हो । यदि यह "अंग्रेजी प्यार " एक साल टिक भी जाये तो यह अपंग तो जरुर हो जाता है तथा बाकि के सालों  में बस एक घुटन। ऐसा रिश्ता एक घटिया और बीमारू किस्म का होता है। न तो इस रिश्ते में कोई अपनापन होता है और न ही कोई संवेदना। ऐसा रिश्ता महज एक हवस है जिसमे नंगा नाच ही प्यार के प्रदर्शन का पैमाना बन गया है। जो जितना नंगा होकर नाचेगा उसका प्यार उतना ही गहरा ,टिकाऊ तथा बिकाऊ होगा। यह परिवर्तन हमारे युवा पीढ़ी को दिखावा, बर्बादी तथा नैतिक पतन की ओर द्रुत गति से ले जा रहा है। ऐसी मानसिकता रखने वाले युवाओं-युवतिओं से एक स्वच्छ समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है ?



Tuesday 4 February 2014

बे-आबरू हो गए

महफ़िल में नज़र मिली तो बे-आबरू हो गए
वो पुराने हरेक मुलाकात से रु-ब-रू हो गए

मैं नज़रें मिलाए रक्खा था दिल थाम के बैठा था
खामोश जुबाँ से ही सही मगर गुफ़तगू कर गए

इज़हार-ए-मोहब्बत तो करने वाले बहुत लोग थे
मगर हम भी खुद को उसके चार-ओ-सू कर गए  
 
महफ़िल ख़त्म हुई और वो यार के साथ हो लिए
वो एक के हुए "धरम" औरों को तश्न-ए-खूं कर गए 

Monday 27 January 2014

ज़िंदगी की दुहाई न दो

मुझे तुम ज़िंदगी की दुहाई न दो
बेसबब फिर से मुझे रुस्वाई न दो

मैं तन्हा हूँ अच्छा हूँ ठीक भी हूँ
मुझे फिर से नज़र-ए-बेवफाई न दो

ये अंज़ाम मोहब्बत का है मैं क़ुबूल करता हूँ
मगर तुम सर-ए-आम मुझे जगहसाई न दो

जो धड़के दिल मेरा उसके प्यार में कभी
ऐ खुदा ! मुझे फिर से ये खुदाई न दो

दिल का मसला था जाँ बार-बार अटक जाती थी
मैं भूल गया हूँ "धरम" मुझे फिर से वो रुलाई न दो

Saturday 25 January 2014

बीमारू रिश्ते का चलन

अटूट,निष्कपट तथा निस्छल रिश्ते को छोड़
दुनियाँ बीमारू रिश्ते की ओर लगा रही है दौड़

हर जगह यह फ़ैल चुका है घुलकर पर्यावरण में
कार्यालय में,आँगन में,घर में और अन्तःकरण में

रिश्ते की बीमारी कहाँ कभी होती है सिर्फ एक
जुड़ने का डोर होता है एक मगर टूटने के होते अनेक

जो लग गया है रिश्ते को कहीं अब क्षय रोग
बिना इलाज़ किये रिश्ते बदल लेते हैं लोग

जब कभी अकेले में बैठकर सिसकता है रिश्ता
हरेक जोड़ से टूटता है और बस बिलखता है रिश्ता

देखकर फायदे की बात लोग देते हैं मित्रता की दुहाई
जो निकल गया मतलब तो बस हो जाते हैं हरज़ाई

लग गया है रिश्ते को बीमारी तो कैंसर भी अब छोटा लगता है
क्यूँ करें अपनी गलती का एहसास सबको यह खोटा लगता है

नोचकर रिश्ते का अपनापन लेकर अब उड़ गया है गिद्ध
भला बिना अपनापन के भी कोई रिश्ता होता है शुद्ध

दौलतमंद लोग फेंककर पैसा रिश्ते खरीद लाते बाज़ार से
बताते हैं ये आवाम को ख़ुशी-ख़ुशी सूचना देकर अख़बार से

Saturday 18 January 2014

लुट गए ज़माने में

हमने कहाँ कुछ तामीर किया ज़माने के लिए
लोग बनवाते हैं बुतखाने अपने दीवाने के लिए

बाँट कर प्यार मुफ्त में तुम तो खुद को लुटाते रहे
मिले तो गैरों से मगर उन्हें तुम अपना बताते रहे

दर्द लिए मरहम किये तो रुस्वा हो गए बीमारखाने में  
ज़माने भर का दीदार किए तुम अपने गरीबखाने में

कभी अजब इश्क़ हुआ था यहीं इसी मयखाने में
बाद उसके कुछ यूँ हुआ हम आने लगे बेगाने में

पुरानी रंजिश को छोड़कर जो हम फिर से आए ज़माने में
लोगों ने हमको लूट लिया "धरम" खुद अपने इमामखाने में  


 

Saturday 11 January 2014

चंद शेर

1.
जब कुछ न बन सका तो सर-ए-आम तमाशा बना दिया
ज़िस्म तो पड़ा रहने दिया हाँ दिल का दरबाजा बना दिया

2.
जो मिले थे हम कभी वह तो बस अब एक किस्सा है
जो प्यार था अब वह दिल का टूटा हुआ एक हिस्सा है

ज़िस्म तो होते थे दो मगर रूह बस एक हुआ करता था
हज़ारों मतभेद तो थे हाँ मगर एक वफ़ा हुआ करता था

मुद्दतों पुरानी बातें भी लगता था जैसे कल ही गुजरा हो
वक़्त भी कुछ यूँ ही गुजरता जैसे अपने लिए ही ठहरा हो

Thursday 9 January 2014

दवा-ए-ज़ख्म-ए-दिल

बढाकर हाथ अपना मैंने दुःख का दामन थामा है
खुद से ही लगाकर छुरी मैंने ज़ख्म-ए-दिल पाया है

तुम ज़हर न घोलो मेरे लहू में ऐ नामुराद आशिक़
ज़माने वालों ने तो इसे मुझपर बे-असर पाया है

कौन सी यारी कैसी दोस्ती कैसा प्यार कैसी आशिक़ी
हर लम्हा अब तो मैंने खुद को इससे बे-खबर पाया है

बाज़ार-ए-इश्क़ में इत्तफ़ाक़न हम मिले तो क्या मिले
न रूककर एहतराम पाया है न झुककर सलाम पाया है

अब तो मुझे किसी औऱ की कोई ज़रूरत भी नहीं "धरम"
खुद से ही दवा-ए-दर्द पाया है खुद ही से दर्दे-बे-दवा पाया है