Saturday 19 May 2018

चंद शेर

1.
क्यूँ इन्तहाँ के बाद का ही मंज़र आखों में ठहरता है
ज़ुबाँ खामोश रहती है 'धरम' सिर्फ चेहरा उतरता है

2.
ये न तो कोई मंज़िल है न ही कोई रास्ता है "धरम" जहाँ अभी रुका हूँ मैं
ऐ! बीता वक़्त तू मुझे अब ये बता कि किस-किस के सामने न झुका हूँ मैं 

Sunday 13 May 2018

एक और कब्र का उभर जाना हुआ

जिस इन्तहाँ के इंतज़ार में था उसका कई बार गुज़र जाना हुआ
मुझे एहसास भी न हो सका कि कैसे कई बार बिखर जाना हुआ

महफ़िल थी ख़्वाब था किरदार थे औ" थे मेरे कुछ कद्रदान भी
सिर्फ एक ही इन्तहाँ के बाद कैसे इस सब का उजड़ जाना हुआ

कभी तो ज़ख्मों तले भी मुझको कुछ ख़ुश-नुमा एहसास होता था
मगर ये कैसी ख़ुशी मिली कि ज़ख्म का ता-उम्र ठहर जाना हुआ 

कि बाद मेरे मरने के भी उस सितमगर का क़हर मुसलसल जारी था
नतीजा यह हुआ की मेरे कब्र पर एक और कब्र का उभर जाना हुआ

मेरी तलाश-ए-ज़िंदगी महज़ उस मौत के बाद ख़त्म नहीं हुई थी
मगर क्यूँकर उस रूह का बस एक ही ज़िस्म में ठहर जाना हुआ

वो वक़्त भी गया वो ज़िंदगी भी गई "धरम" कि वो ज़िस्म भी गया
क्यूँ फिर से पिछले ही ज़ख्मों का नई ज़िंदगी में उभर जाना हुआ