Monday 24 April 2017

वो अँधेरे में आ गया

जो तुमने डाल दी रौशनी तो वो अँधेरे में आ गया
कि उजड़े हुए गुलसन पर एक और क़हर ढा गया

दिल जला ज़िस्म भी जला औ" राख़ हो गई सारी यादें
कि उस गर्दिश-ए-अय्याम को उसका चेहरा भा गया

जो दो रूहों की पैदाईश थी उसे दो ज़िस्म ने मार डाला
कि रूह का इस तरह मिटना सब के ज़हन में छा गया

मुर्दा जिस लाठी पर अपना ज़िस्म तौल लेता था 'धरम'
कि ज़माना उस सहारे को बस सेहत के लिए खा गया

Thursday 20 April 2017

चंद शेर

1.
इस ज़िंदगी में अब इससे बढ़कर और क्या जीना होगा
कि खुद अपने ही सीने का लहू "धरम" अब पीना होगा

2.
हरेक सिक्के का "धरम" एक ही पहलू यहाँ देखा जाता है
दूसरे पहलू पर हर रोज कुछ और धूल डाल दिया जाता है

3.
जो दरिया नहीं छलका तो मैं भी प्यासा लौट गया
कि मेरे ग़ुरूर पर 'धरम' कोई भी प्यास भारी न था

4.
क्या मुलाक़ात का बहाना लिखूं मोहब्बत का कौन सा अफ़साना लिखूं
तुम कहते हो "धरम" कुछ लिखने तो मैं अब तुमको ही ज़माना लिखूं

Friday 7 April 2017

चंद शेर

1.
ख़्वाब सारे आसमाँ से भी ऊँचे औ" हक़ीक़त सारे ज़मीं के अंदर
बस जिस्म ही है ज़मीं पर "धरम" यहाँ दिखते सारे उजड़े मंज़र

2.
मुझपर रहम अब और न कर ज़िंदगी तू मेरी हर राह में कील चुभा
जलाना है "धरम" तो पूरा जिस्म जला आग सिर्फ दिल में न लगा

3.
वो टूट कर बिखरा तो ज़मीं पर अपने होने का कई निशां छोड़ गया
मैं जो अकड़कर खड़ा रहा "धरम" तो नक्श-ए-पाँ भी न छोड़ पाया

4.
जब भी तुम्हें सराहा तो तेरा जी भर के दीदार भी किया
नज़र मिलाया भी "धरम" सीने के आर-पार भी किया

5.
इस उम्मीद में हैं की मोहब्बत का अंतिम पत्थर भी न खाली जाये
कि बिना दिया जलाये 'धरम' ज़िंदगी के ये आख़िरी दिवाली न जाये

6.
यहाँ ख़्यालों में जल रहा है हरेक लम्हा "धरम" अब पिघल रहा है
मैंने देखा था तो रंग कोई और था अब कोई और रंग निकल रहा है

7.
कभी रूह ज़िस्म के अंदर थी कभी जां ज़िस्म के बाहर था
जब डूबा था तो आशिक़ था जब निकला तब वो शायर था

8.
मुझे संभाला था ठोकरों ने औ" पत्थरों ने दिखाया था रास्ता
ज़माने के नेकी से 'धरम' अब तू ही बता मेरा क्या है वास्ता

9.
बाद तेरे हरेक लब पर 'धरम' मेरा नाम आता है
फिर झुकती हैं सारी नज़रें और तूफ़ान आता है 

Monday 3 April 2017

आँखें

कि रात भर कोई भी ख़्वाब देखने से डराती हैं आँखें
औ" दिन भर हर हक़ीकत से नज़रें चुराती हैं आँखें

न जाने कैसे-कैसे अंदाज़ में ये दिल दुखाती हैं आँखें
औ" होकर नम न जाने किस-किस को बुलाती हैं आँखें

कहीं मिलाकर नज़र से नज़र प्यास बुझाती हैं आँखें
औ" कहीं पशेमाँ होकर भी क्या खूब पिलाती हैं आँखें

तेरे बज़्म में न जाने कितने रंग दिखाती हैं आँखें
कि किसी को हँसाती तो किसी को रुलाती हैं आँखें

सारे ग़मों से रिश्ता कुछ इस क़दर निभाती हैं आँखें
कि पीकर पूरा समंदर 'धरम' हर दर्द छुपाती हैं आँखें