Sunday 30 July 2023

कोई माज़ी-शर्ती नहीं

ऐ! आशिक़ी तिरे दम से अब ये ज़िंदगी गुज़रती नहीं 
कि क्यूँ कभी ज़ेहन से वो पैमाना-कशी उतरती नहीं 

सिर्फ़ होठों से ही नहीं कहा आँखों से भी बयाँ किया  
कि ये शक्ल  अब उसके दिल में कभी ठहरती नहीं

तसव्वुर को भी अपने हद का हमेशा यूँ अंदाज़ा रहा 
ख़याल में भी उसकी सूरत  अब कभी उभरती नहीं 

कुछ तो दिन की तपिश तो कुछ वक़्त की आवारगी 
शाम अब किसी भी रात के लिए कभी सँवरती नहीं 

ज़िंदगी हर रोज  एक वरक़ तजुर्बा का जोड़ देती है  
अब यदि साँसें टूटती भी हैं तो  कभी बिखरती नहीं 

वो कैसा इश्क़ था  मोहब्बत के कितने सारे ख़त थे   
हर वरक़ पलटा 'धरम' कहीं कोई माज़ी-शर्ती नहीं 
 

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माज़ी-शर्ती: जिस भूतकाल में शर्त पायी जाय