Monday 25 May 2015

कैसा तकाजा है

ज़ख्म कल भी ताजा था औ" आज भी ताजा है
ऐ मौला मेरे साथ वक़्त का ये कैसा तकाजा है

इतनी बड़ी दुनियाँ है यहाँ रोज हज़ारों मरते हैं
मगर मुझे दिखता हर रोज एक ही जनाज़ा है

Sunday 24 May 2015

कोई इरादा न था

उसके वापस आने का कोई इरादा न था
औ" मेरा भी मिलने का कोई वादा न था

फ़ासला अब दोनों के दिल में हो गया था
उसका दिल साफ़ न था मेरा सादा न था

गैरों ने कहा उसे बिछड़ने का गिला न था
मुझे उससे बिछड़ने का ग़म ज्यादा न था

इश्क़ में सजा दोनों को बराबर की मिली थी
मगर ज़ुर्म 'धरम' दोनों का आधा-आधा न था 

Friday 22 May 2015

चंद शेर

1.

मैं अपने हाथों में अभी ज़हर जा जाम लिए बैठा हूँ
ऐ! मौत ठहर जा मैं गर्दिश-ए-अय्याम लिए बैठा हूँ

2.

ये उसके बेरुखी का जायका है मेरे गले से तो उतरता ही नहीं
दिल अभी पूरी तरह से गला नहीं ज़ख्म पूरा दीखता ही नहीं

3.

माशूक़ का जिस्म जलेगा तो तुम्हारा दिल रौशन होगा
तुम्हारे दिल-ए-रौशन का राज़ ज़माने को बता दी जाये  

4.

तुम मुझे अपने पिन्दार-ए-संग की दुहाई न दे "धरम"
मेरा हिज़्र ही बेहतर है डेरे दर्द-ए-दिल की दवा के लिए

5.

हम कब दो जिस्म एक जान थे हमारे सारे रिश्ते "धरम" बेजान थे
वो बस एक झूठी मोहब्बत थी औ" ज़माने में हम मुफ्त बदनाम थे 

Wednesday 20 May 2015

ज़माने को सुना दी जाए

क्यों न मेरे ज़िंदा जिस्म में आग लगा दी जाए
ग़र इससे बुझे तेरी प्यास तो प्यास बुझा दी जाए

माशूक़ का जिस्म जलेगा तो तुम्हारा दिल रौशन होगा
तुम्हारे दिल-ए-रौशन की खबर ज़माने को बता दी जाए

माशूक़ की मुफलिसी पर उसे बस दरकिनार कर देना
तुम्हारे दरियादिली की कहानी ज़माने को सुना दी जाए

गैरों को ज़लील करना तेरे ज़िंदगी का मकशद हो गया है  
तुम्हारी मोहब्बत के हरेक किस्से ज़माने को सुना दी जाए 

Saturday 16 May 2015

मैं बैठा हूँ

मैं खुद अपने आप में सिमट कर बैठा हूँ
खुद अपने ही दामन से लिपटकर बैठा हूँ

ज़िक्र-ए-इश्क़ का अल्फ़ाज़ भी भारी लगता है
अपने साँसों को गले में अटकाए बैठा हूँ

मेरी मोहब्बत मेरा इश्क़ औ" इतना हुस्न
एक तस्वीर बस दीवार पर लगाये बैठा हूँ  

Friday 15 May 2015

चंद शेर

1.

हक़ीकत के कन्धों पर मेरे ख्वाइशों का जनाज़ा है
और वो कब्रगाह महज चंद कदमों के फासले पर है

2.

मुझे ऐतवार का सिला सिर्फ ज़ख्म से मिला
औ" सुकूँ भी नहीं किसी के बज़्म में मिला

3.

इस कस्ती को अब यहाँ न कोई किनारा नसीब है
भीड़ में तो सब दोस्त हैं मगर कहाँ कोई करीब है

4.

उन टुकड़ों में मिले ज़ख्मों का अंदाज़ बड़ा नायब था
मानो एक ख्वाब के बाद जैसा कोई दूसरा ख्वाब था

5.

अपने सीने में खुद ही आग लगाये बैठे हैं
कैसे लोग हैं खुद को अंदर से जलाये बैठे हैं

Saturday 9 May 2015

तो क्या होता

ग़र ये दर्द न मिला होता तो मेरा क्या होता
यकीं मानिए मेरा हाल कुछ और बुरा होता

ग़र मुझको इश्क़ हो गया होता तो मेरा क्या
यक़ीनन मुझसे वहां का हर सख़्श ख़फ़ा होता

वफ़ा का रोग ग़र उसको हो जाता तो क्या होता
यक़ीनन तब वहां न फिर कोई दूसरा ख़ुदा होता

ग़र बज़्म में उस बेवफा का ज़िक्र होता तो क्या होता
पुराने मय का नशा "धरम " सबको कुछ और चढ़ा होता 

Monday 4 May 2015

ये कहाँ हम पड़ गए

चंद सिक्के जो ख्वाब के थे वो अब कम पड़ गए
सोच के क्या रखा था और ये कहाँ अब हम पड़ गए

मैं जब चला था मेरे साथ एक सैलाब उमड़ आया था
अब कारवाँ बहुत दूर निकल गया है पीछे हम पड़ गए

इन्सां और बुत में मुझे अब फर्क महसूस नहीं होता
मेरे दामन में न जाने ये किस किस के ग़म पड़ गए

मैं इस बात से बेखबर था कि दिल मेरा धड़कता भी है
अब जो टूट गया है तो क्यूँ इसे जोड़ने हम पड़ गए

सिलसिला जब से ख़त्म हुआ दीदार-ए-नज़र का "धरम"
अब तो मुझे मिलने वाले उसके ज़ख्म भी कम पड़ गए


Saturday 2 May 2015

मैंने तुमको थाम लिया

हरेक बार गिरने से पहले मैंने तुमको थाम लिया
खुद अपने सर तेरे सारे गुनाहों का इल्ज़ाम लिया

अकीदत भरे अल्फ़ाज़ से सिर्फ मैंने तेरा नाम लिया
उस बज़्म में तो हरेक ने बस तुमको बदनाम किया

भूली-बिसरी यादों को लिखकर मैंने तुमको पैगाम दिया
एक-एक हर्फ़ को झुठलाकर तुमने मुझपर इल्ज़ाम दिया

तोड़कर मुझसे अपना वादा तुमने यह कैसा काम किया
मेरे ही बज़्म में मोहब्बत को रुस्वा तुमने सरेआम किया

कि झटककर साक़ी के हाथों से जो तुमने मेरा ज़ाम लिया
मुद्दतों बाद जो मिली थी मुझको तुमने वो भी शाम लिया

हैरत है मुझको कि तुमने तन्हाई से डरने का न नाम लिया
हर मोहब्बत को ठुकराकर "धरम" उल्टा बस बदनाम किया