Sunday 25 March 2018

बुझते दिये को मैंने फिर से जलाया है

कि मुरझाया फूल भी यदि मेरे दामन में आया है
मैंने उसे भी इज़्ज़त से अपने माथें पर सजाया है

निकालकर दिल से मुझे जब तुमने ठोकर मार दी
न जाने कितने हाथों ने मेरे ज़ख्मों के सहलाया है

मेरे नाम से जुड़ने का अब तो कोई शौक नहीं तुझे
तुमने उस गुज़रे ज़माने के हर याद को भुलाया है

वो मेरे वफ़ा का क़त्ल भी था औ" थी तेरी मेहरबानी
तेरे उस सितम ने तो मुझे बिना दरिया के डुबाया है

मेरे उम्मीद को फेरने के लिए तेरे पास तो समंदर था
जब भी प्यास लगी उससे एक बूँद भी पानी न पाया है

मैंने बढ़ाया है हाथ फिर से चाहो तो गले लगा लो मुझे
कि एक बुझते दिये को "धरम" मैंने फिर से जलाया है 

चंद शेर

1.
हमने ढ़ेर सारे ज़ख्मों को 'धरम' नासूर बनते देखा है
एक तरफ़ा प्यार में बिना बात के हुज़ूर बनते देखा है

2.
ये मेरे तस्सबुर के चाँद के टुकड़े हैं कि तू आ तुझे इसमें लपेट दूँ
तेरे इस बेपनाह हुस्न को 'धरम' मैं अपने हाथों से चाँद में समेट दूँ

3.
मुझे चाहने वाले भी कुछ लोग हैं "धरम" जिसके लिए ज़िंदा हूँ मैं
मगर तेरी नज़र में तो बस क्या कहूँ भटकता हुआ एक रिंदा हूँ मैं 

4.
कि मेरी उड़ान तेरी ज़िंदगी की उड़ान से कुछ कम तो न थी 
मगर फिर भी तेरे लिए तो महज बिना पंख का परिंदा हूँ मैं

Thursday 15 March 2018

अब फिर से मेरी मौत नहीं होगी

कि आपके शान में मेरी तरफ से अब कोई और गुस्ताख़ी नहीं होगी
मुझे पता है कि बाद इस माफ़ी के अब कोई और माफ़ी नहीं होगी 

कि ये एहसास मुझे तब हुआ जब अरसा बाद हम दोनों रु-ब-रु हुए
जो तुम में वो किरदार ही न रहा तो अब फिर वो महफ़िल नहीं होगी

कि किस इरादे से बात रखे थे और किस मुक़ाम पर तुम मुझे ले आए
बाद इस मंज़िल के तेरे बताए किसी और मंज़िल की ज़ुस्तज़ू नहीं होगी

कि ग़र मेरे क़त्ल की ही तमन्ना थी तो मुझे कह दिए होते मैं जां दे देता
मगर हाँ! तेरे बख्शे इस मौत के बाद अब फिर से मेरी मौत नहीं होगी 

कि ग़र वक़्त ने यदि ये दौर बख्शा है तो हालात ने मुझे सिखाया भी है
हाँ! रिश्ता ज़िस्म जां और रूह हर किसी की मौत एक जैसी नहीं होगी

कि इस क़रीबी के दरम्यां पसरे सन्नाटे को मर जाने तक छोड़ देना है 
हाँ! रूह के ज़िंदा रहने तलक "धरम" अब कोई और बात नहीं होगी 

Tuesday 6 March 2018

चंद शेर

1.
हर हवा के सामने "धरम" मेरा ही चिराग़ है
हाँ मगर इसमें मेरे जलते लहू की आग है

2.
हमारे दरम्या बात वफ़ा की कब थी जो था परस्पर का सहारा था
कि न कभी तुम ही हमारे थे 'धरम' और न ही मैं कभी तुम्हारा था

3.
कि हो पंख उड़ो तब गरुड़ सदृश औ" बोलो तो निकले दहाड़
हर हीन भावना पर "धरम" तुम खुलकर करो प्रचंड प्रहार

4.
कि अब बताओ तेरे लिए कौन सी गली बाकी है कौन सा द्वार बाकी है
ये भी बताओ "धरम" की तेरे बुलंद हौशले का कितना पारावार बाकी है

5.
वसीयत के नाम पर स्थाई ज़ख्म मिला औ" मिली कई तस्वीर
जब भी ज़माने से किया नेकी "धरम" अपने हिस्से आया जंज़ीर

6.
सब ताज़ उछाले जाएँ सब तख्त गिराए जाएँ
सारे चेहरों से "धरम" अब नक़ाब हटाए जाएँ

7.
इस सुकूँ के बाद "धरम" अब बाकी कोई सुकूँ नहीं
तुम जब मिल ही गए तो अब बाकी कोई जुनूँ नहीं

8.
एक ही रास्ता एक ही मंज़िल औ" दरम्याँ हमारे कोई फ़ासला भी नहीं "धरम"
फिर न जाने क्यूँ तुम चलते चलते रुक गए थे मैं बोलते बोलते चुप हो गया था