Monday 25 December 2017

खुद को भटकते दर-बदर देखना है

मुझे अब तो अगले वक़्त का आलम औ" सफर देखना है 
गुजरे वक़्त में जो पाया इल्म अब उसका असर देखना है

खड़ा रहूँगा चट्टान के मानिंद या उड़ जाऊँगा ग़ुबार बनकर
अपने कद-औ-कामत औ" गैरों के फूँक का असर देखना है

उठना चलना गिर जाना फिर उठना ऐसी ही मेरी फितरत है
वक़्त तू फिर बरस कि मुझे तो और खून-ए-जिग़र देखना है

पैरों तले ज़मीं खिसकना सर के ऊपर से आसमाँ निकलना
कि कितने और ज़हाँ में खुद को भटकते दर-बदर देखना है

सिर्फ चंद मौतें थोड़ी ज़मीं निगल लेना थोड़ा ज़हर उगल देना 
ऐ! समंदर मुझे तेरी उफ़ान का कुछ और भी क़हर देखना है

घूंट ज़हर का पीना औ" पचा लेना जिस ज़हाँ में मयस्सर नहीं
मुझे तो ऐसे ही किसी ज़हाँ में "धरम" अपना गुज़र देखना है

Saturday 16 December 2017

चंद शेर

1.
महज़ एक ही ज़िंदगी में कितने और ज़िंदगी निकल जाते हैं
आँखें बंद ही रह जाती हैं "धरम" ख़्वाब सारे निकल जाते हैं 

2.
जब कभी "धरम" ख़्वाब में क़ातिल के शक्ल में मसीहा आए
मेरी बाहों में तेरी बाहें आए तस्सबुर में सिर्फ तेरा चेहरा आए

3.
कि जहाँ कुछ भी नहीं होता वहां मेरा ज़माना होता है
वहां के हरेक सन्नाटे से "धरम" मेरा फ़साना होता है 

4.
ऐ! मौत तुझे मुक़म्मल होने के लिए अभी कई और बुलंदी छूनी है
कि ऐसी मौत मरने की चाहत "धरम" ज़माने को तुझसे दुगुनी है 

Saturday 9 December 2017

सारे अरमाँ हलाक़ हो गए

कि जिनसे उम्मीद-ए-लुत्फ़ थी अब वही ख़ाक हो गए
बस एक उसके जाने से मेरे सारे अरमाँ हलाक़ हो गए

कि ख़ुद बिखर के टूटे भी औ" टूट के फिर बिखर भी गए
खुद को क्या सिलें क्या छोड़ें जब खुद ही से चाक हो गए

कि फिर से जल उठने रौशन होने की उम्मीद ही बुझ गई
जब से हम हवा के महज़ एक ही झोकें के ख़ुराक़ हो गए

कि ये आप को मुबारक़ हो ये आप ही के दामन-ए-पाक़ हैं   
आपके पहलू में आकर हाय! मेरे सारे इरादे नापाक़ हो गए

कि न तो कोई ग़म ठहरता है न कोई ख़ुशी ही ठहरती है
क्यूँ कर मेरे दामन में "धरम" इतने सारे सुराख़ हो गए 

Saturday 2 December 2017

चंद शेर

1.
ऐसा कर के मैंने "धरम" पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी
जब भी हिस्से में ख़ुशी आई मैंने ठोकर मार दी

2.
यहाँ अब न तो पैरों तले ज़मीं है न ही सर के ऊपर आसमाँ
कि "धरम" अब तुम निकलो यहाँ से ढूंढो कोई दूसरा जहाँ

3.
कि तुम्हारे दर्द-ए-दिल पर "धरम" सिर्फ तुम्हारा ही हक़ नहीं था
वो मेरी भी किताब-ए-ज़िंदगी का जलता हुआ आखिरी वरक़ था

4.
बिना ज़ुर्म के सजा न हो औ" न ही हो कोई सजा-ए-माफ़
सब को मिलनी चाहिए "धरम" अब यहाँ एक सा इन्साफ

5.
हर रोज सुबह से शाम तलक "धरम" अँधेरे की ही चाहत है
हम ख़ुद को क्या बताएँ कि क्यूँ दिल इस तरह से आहत है

6.
कि मैं ग़ुबार था "धरम" मुझे बस फूंक के उड़ा दिया गया 
औ" छिड़क के पानी बचा-खुचा वज़ूद भी मिटा दिया गया