Friday 24 April 2015

अब हम तुम्हारे यार निकले

अब ढल गई जवानी तो हम तुम्हारे यार निकले
पहले तो हम बस खूबान-ए-दिल आज़ार निकले

अब मेरे ही चेहरे में तेरा वो रू-ए-निगार निकले
पहले तो हम बस बेजां पत्थर के दीवार निकले

पड़ा है वक़्त तो अब हम तुम्हारे ग़मख्वार निकले
पहले तो हम बस तेरे रास्ते का एक ख़ार निकले

अब क्यूँ तुम "धरम" मेरे इश्क़ के बीमार निकले
पहले निकले तो कुटिल मुस्कान की कटार निकले

खूबान-ए-दिल आज़ार : दिल दुखने वाला हासीन
रू-ए-निगार : माशूक़ का चेहरा
ग़मख्वार : हमदर्द
ख़ार : काँटा 

Tuesday 21 April 2015

अब भी बाकी है

उसके जिस्म में थोड़ा ज़हर अब भी बाकी है
हम मुफलिसों पर थोड़ा क़हर अब भी बाकी है

यूँ तो गर्दिश-ए-अय्याम सब कुछ उड़ा ले गया
हमपर उसके ज़ुल्म का सफर अब भी बाकी है

उसके ज़ख्मों से पूरा बदन छलनी हो गया है
उसकी खाक करने वाली नज़र अब भी बाकी है

उसके लगाये आग से मेरी झोपडी तो जल चुकी है
मेरा ज़िंदा जिस्म जलने का मंज़र अब भी बाकी है

यूँ तो उसकी नज़र ने बस्ती हलाल कर दी थी
मगर मुर्दों के जलने का खबर अब भी बाकी है

Thursday 16 April 2015

कभी इठलाया भी करो

मेरे ज़ख्मों को तुम कभी सहलाया भी करो
औ" दुखते मन को कभी बहलाया भी करो

यहाँ हज़ारों बीमार हैं एक तेरे ही इश्क़ में
खुद अपने आप को कभी बतलाया भी करो

ज़माना कहता है कि तुमको मुझसे नफरत है
इस बात को तुम बस कभी झुठलाया भी करो

मैं तन्हा हूँ ज़माना मुझे हिकारत से देखता है
तुम मेरे बाहों में आकर कभी इठलाया भी करो 

Sunday 12 April 2015

चंद शेर

1.

एक बार फिर नए ज़ख्म से वही पुराना रिश्ता निकला
मेरे दोस्त से मेरा फिर वही रक़ीब का वास्ता निकला


2.

मुद्दतों उदास था की एक शाम ख़ुशी मिली
वक़्त की पावंद थी सुबह ही निकल गई

3.

तेरे आरज़ू का क़ाफ़िला तेरे ज़ख्मों का वो सिलसिला
तेरी ज़ुस्तजू ने मुझको फ़क़त दिया है कुछ ऐसा सिला 

Friday 10 April 2015

पुराना ज़ख्म

गुजरे वक़्त का ये कैसा तकाजा है
वो पुराना ज़ख्म अब भी ताजा है

हरेक याद रिश रहा है इस ज़ख्म से
उसकी यादों का ये कैसा खामियाज़ा है

कहाँ किसी महफ़िल में है वो रौनक-ए-हस्ती
बिना उसके तो हरेक अंजुमन अब बेमज़ा है

"धरम" मेरी नज़रों को ये कैसा धोखा हो रहा है
कि जिधर भी देखूं दिखता मेरा ही जनाज़ा है


Saturday 4 April 2015

चंद शेर


1.
अपना ज़ख्म सहलाता हूँ खुद से रुबरू हो जाता हूँ
गर मिले ख़ुशी तो खुद से फ़ासले पर हो जाता हूँ

2.
ये मेरे अपने ज़ख्म हैं ये मुझे ख़ुशी देते हैं
हसीं चेहरे तो अब बस मुझे बेरुखी देते हैं

3.
सितमगर अगर तुझ सा हो तो कोई परहेज नहीं
दिल काट के गिर जाये फिर भी कोई गुरेज नहीं

4.
इस शहर की ये आवो-हवा मेरे तबियत का नहीं है
तो किसी और का प्यार है मेरे किस्मत का नहीं है

5.
यहाँ अंधेर अब भी कायम है मगर चिराग जल रहा है
मुफलिसी पेवस्त है ज़िंदगी में मगर ख्वाब पल रहा है

6.
मेरे हरेक शिकस्त पर उसका अंदाज़-ए-लुत्फ़ गज़ब था
महज़ एक ही जीत उसके सैलाब-ए-गिरिया का सबब था


Wednesday 1 April 2015

ऐसा क्यूँ है

यहाँ हवा में आज इतनी घुटन क्यूँ है
हरेक चेहरे पर एक अजीब शिकन क्यूँ है

किसके मुट्ठी में क़ैद है हम सब की ज़िंदगी
यहाँ आज सब के बदन पर क़फन क्यूँ हैं

किस डर से झुकी है नज़र औ" सिले हैं होंठ  
सीने में खुद अपनी ही आवाज़ दफ़न क्यूँ है

सांस ठंढी पड़ चुकी है लहू भी पानी हो चला है
मगर फिर भी बदन में ये अजीब तपन क्यूँ है

इस बस्ती को तो कितनों ने उजाड़ा है "धरम"
मगर हरेक दाग बस हमारे ही दामन क्यूँ है