Friday 30 December 2016

बुझ न सकेगी

ऐसे रु-ब-रु न हो मेरी नज़र तुझपर टिक न सकेगी
तू फ़ासले से मिल नहीं तो तेरी याद मिट न सकेगी

मुझे आखों से ऐसे न पिला की प्यास बढ़ती ही जाए
सिर्फ ज़ाम दे मुझे नहीं तो तश्ना-लब बुझ न सकेगी

कतरा सी ज़िन्दगी औ" उसमे दरिया भरने की चाहत
की मौत के बाद भी ये ख्वाईश कभी पूरी हो न सकेगी

ज़माने भर की उदासी अपने चेहरे पर लिए फिरते हो
ऐसे में कोई भी ख़ुशी तेरे पहलू में कभी आ न सकेगी

ग़र तमन्ना है उससे मिलने की तो आज मिलो "धरम"
वो कभी भी अपने वादा-ए-फ़र्दा पर मिलने आ न सकेगी 

Saturday 10 December 2016

सबकुछ ढल जाएगा

अब जो बहार आई तो साथ में ग़ुबार भी आएगा
चमक कुछ देर ठहरेगी बाकी अँधेरा छा जाएगा

एक तो तन्हाई औ" उसपर मुफ़लिसी का आलम
ये ऐसा ग़म-ए-हयात है जो अब साथ ही जाएगा

तेरा इश्क़ मोहब्बत आशियाँ औ" यह पूरा ज़माना
वक़्त के एक ही धमाके में सब कुछ बिखर जाएगा  

नेकी बंदगी बेवफ़ाई मक्कारी हर चीज़ में मिलावट है
मालूम ही नहीं पड़ता कि कौन रास्ता किधर जाएगा

नज़रें मिलाना नज़रें चुराना औ" फिर थोड़ा मुस्कुरा देना
उसको मालूम न था की अब ये वार भी बेअसर जाएगा

रात का आलम महताब की रौशनी सितारों की महफ़िल
एक खुर्शीद के निकलते ही "धरम" सबकुछ ढल जाएगा 

Thursday 8 December 2016

दफ़न हो जाएँ एक दूसरे के लिए

अभी दीवार पूरी तरह से उठी नहीं है
थोड़ा मैं भी झांक सकता हूँ तुझमें
और थोड़ा तुम भी मुझमें
हाँ मगर दीवार की नीब बहुत मजबूत है
एक बार बन गई तो फिर
उसको गिराना मुश्किल होगा

तुम्हारे उसूल पर बनी ईमारत
अब ढह गई है
उसी ईमारत की ईटें
इस दीवार में लगा रही हो तुम
छूता हूँ तो ईटें बोलने लगते हैं
कहतें है
अभी तो ईमारत से मुक्त हुआ हूँ
फिर से मत बांधो मुझे

तुम्हारा मौन
मेरे हरेक अभिव्यक्ति पर भारी है
उसे भी एक दिन गिरना पड़ेगा
तुम्हारे उसूल के ईमारत की तरह
उसके बाद सिर्फ चीख सुनाई देगी
जो काटने दौड़ेंगे

मेरी साँसें अब चुभती हैं तुझे
अपूर्ण दीवार आँखों को खटक रही हैं
तुम इसे पूरा कर दो
ताकि ताउम्र हम दोनों
दफ़न हो जाएँ एक दूसरे के लिए 

सीने से दिल निकालो अपना

सीने से दिल निकालो अपना
झाड़ो साफ़ करो उसको
की बहुत धूल जम गई है
इसमें मुझे मेरी सूरत नज़र नहीं आती

सिर्फ ग़ुबार है यहाँ
न जाने किस आँधी से पैदा हुआ
तुम्हारे अंदर
फल-फूल भी रहा है
हैरत हो रही है मुझे

दिल में कालिख़ बैठा है या नहीं
यह तो धूल झड़ने के बाद ही पता चलेगा
और कितने चेहरे छुपे हैं इसमें
इसका शायद तुमको भी अंदाज़ा नहीं

सिर्फ मुस्कुरा देना तेरी आदत न थी
कहाँ से सीखा ये
लगता है शायद वक़्त की देन हो
या किसी और की
मगर क्यूँ
यह प्रश्न मैं तुम्हारे लिए छोड़ देता हूँ


Monday 5 December 2016

अकड़कर खड़ा रहने में कोई भला नहीं

जो मील का पत्थर था वो अपने ज़गह से हिला नहीं
की पूरा कारवां गुज़र गया मगर उससे कोई मिला नहीं

उसकी ख्वाईश की सीढ़ी आसमाँ से भी ऊँची निकल गई
हाँ मगर हक़ीक़त यह हुआ की वहां कोई महल बना नहीं

की हिम्मत हर बार मुफ़लिसी के सामने घुटने टेक देती है
आज फिर से उसके सितम पर इसका कोई ज़ोर चला नहीं

हुक़्म की ग़ुलामी औ" एहसान तले झुका हुआ उसका सर
की आज कट भी जाये तो उसको खुद पर कोई गिला नहीं

तारों-सितारों की बातें आसमानी हैं कुछ हक़ीक़त नहीं होता
अब समझ आया की ऐतवार करके मिलता कोई सिला नहीं

इस बार के गर्दिश-ए-ऐय्याम को झुककर सलाम करना है
उसके सामने अकड़कर खड़ा रहने में 'धरम' कोई भला नहीं

Monday 28 November 2016

चंद शेर

1.
तुम्हारे हाथों ही क़त्ल होना था ये पता न था मुझे
ऐ! वक़्त अपनी वफाई "धरम" बता न सका तुझे

2.
ग़म-ए-आशिक़ी "धरम" ज़माने भर के ग़म से कम नहीं
ज़िन्दगी तेरी मोहब्बत भी अब किसी ख़म से कम नहीं

3.
अफवाहों का दौर था मैंने भी एक पत्थर उछाल दिया
वरना इतनी हिम्मत कहाँ "धरम" की कुछ बोल पाऊँ

4.
ऐ! ज़िन्दगी मैं भी रफ़्तार में था मगर न जाने क्यूँ
जान बूझकर बैठ गया और मंज़िल गँवा दिया मैंने

5.
जो भी याद आया वो सबकुछ भुला दिया मैंने
एक-एक कागज़ चुनकर "धरम" जला दिया मैंने

6.
कहाँ है वो घूंट मय का जो प्यासे का गला तर कर दे
उतरकर सीने में "धरम" सारे ज़ख्मों को सर कर दे

7.
वो सारे जो कभी मुन्तज़िर थे तेरे "धरम" अब चले गए
वो सारे रहगुज़र चले गए औ" वो सारे रास्ते भी चले गए

8.
चलो इस बात पर ही "धरम" तुमको याद कर लिया जाए
बुझे दिल पर जमे राख को फिर से साफ़ कर लिया जाए


Friday 25 November 2016

मुर्दे गुनगुनाने लगे हैं

जो सारे मुर्दे थे अचानक गुनगुनाने लगे हैं
औ" जो सारे ज़िंदा थे वो बड़बड़ाने लगे हैं

यूँ देखो तो ये आग सब के घर में बराबर लगी है
मगर कुछ लोग इसे जलाने तो कुछ बुझाने लगे हैं

यहाँ राग तो महज़ एक ही छेड़ी गई थी
मगर कुछ नाचने तो कुछ चिल्लाने लगे हैं

वो गुज़रा वक़्त भी क्या खूब कमाल कर गया
दौलत आज खुद मुफ़लिसों को बुलाने लगे हैं

सामने एक मंज़र औ कितने सारे पश-मंज़र
ये क्या की लोग अपना ही चेहरा छुपाने लगे हैं

अपनी मक्कारी पर मुफ़लिसों का राग चढ़ाये "धरम"
क्या खूब मुफ़लिसों के हिमायती सामने आने लगे हैं

Sunday 6 November 2016

मुर्दे को सँवारा है

जो सपना कल दुश्मन का था आज हक़ीक़त तुम्हारा है
ज़िंदा इंसान को पहले मारा और फिर मुर्दे को सँवारा है

अच्छे बुरे की सोच नहीं तुझे बस हर बात काटनी ही है
आज तुझको ये खुद पता नहीं की तुमको क्या गँवारा है

तुमने बात मुफ़लिस से शुरू की आज मुर्दे तक पहुच गए
तुझमें जो इंसां था वो मर गया जो ज़िंदा है बस आवारा है

जो तुमने झोली फैलाई तो सब ने अपना दाम उढेल दिया
अब जो तेरे साथ हैं उनका तो बस किस्मत का ही सहारा है

हर किसी ने तेरी ऊँगली थामकर आँख बंद कर ली "धरम"
सब को तुम वहां लेकर गए जहाँ बस मौत पर ही गुज़ारा है

Wednesday 19 October 2016

बादशाहत ढूंढते ही रह गए

सारे मुर्दे उठकर एक साथ मंज़िल को निकल गए
हमें कोई हैरत न हुई औ" हम भी साथ चल दिए

मुर्दों में क्या बात थी कि फिसलकर भी संभल गए
औ" जो हम फिसले तो बस फिसलते ही रह गए

हवा के एक तेज झोंके में वो सारे मुर्दे साथ बह गए
वहां भी पिछले जैसा ही हुआ औ" हम अकेले रह गए

वफ़ा के बात पर सारे मुर्दों ने क्या खूब वफाई निभाई
औ" हम तो अपनों से बस बेवफाई ही करते रह गए

मुर्दे वहां गए जहाँ न कोई बादशाह था न ही कोई ग़ुलाम
हम अपनी मंज़िल में "धरम" बादशाहत ढूंढते ही रह गए

Monday 19 September 2016

किसने किसको लूटा है

अपने उस अतीत को वहीँ से बनाना है जहाँ से वो टूटा है
आ कि मिल के खोजें रिश्ते का कौन सा हिस्सा ठूठा है

जब से बिछड़े थे तब से अब तक हम दोनों अकेले ही रहे
तन्हा रहने का हम दोनों का ये इल्म भी खूब अनूठा है

मैं जब भी उदास रहा यहीं इसी कमरे में बैठा बाहर न गया
ज़माने से पूछ लो यह कोई न कहेगा की वो तुमसे रूठा है

आरोपों की चादर मैंने समेट ली है अब तुम भी समेट लो
आ दोनों मिलकर ये भूल जाएँ कि कौन कितना झूठा है

ये घर पूरा मेरा है औ" पूरा का पूरा तुम्हारा भी है "धरम"
अब यहाँ क्या हिसाब करना कि किसने किसको लूटा है

Sunday 18 September 2016

चंद शेर

1.
कुछ तो मिला होगा उस दोनों में तब तो बात बनी होगी
वरना बहुत वजह हैं "धरम" इस ज़माने में बात टूटने की

2.
कहीं कोई सितारा टूटा होगा जो मेरी झोली भर गई
आज मेरी बहुत आरज़ू है "धरम" खुद को लूटने की

3.
उसका किसी पे दिल आया औ" किसी और पे वफ़ा
नतीजा यह है "धरम" की तीनो के साथ हुआ ज़फ़ा

4.
उसके जनाज़े को किसी का कन्धा भी नसीब नहीं हुआ
कि मरने के बाद भी "धरम" कोई उसके क़रीब न हुआ

Thursday 8 September 2016

नज़र आता है

एक दीवार के पीछे कई और दीवार नज़र आता है
हद-ए-निगाह तक यहाँ सब बीमार नज़र आता है

इस शहर के लोगों को क्या समझूँ कुछ समझ नहीं आता
यहाँ तो हर चौराहे पर मंदिर-औ-मीनार नज़र आता है

कि मंदिर की एक ईंट गिरी मीनार का एक शीशा टूटा
इस बात पर पूरा का पूरा शहर ख़बरदार नज़र आता है

जहाँ भी उठती है एक छोटी सी चिंगारी औ" थोड़ी सी हवा
उस मंज़र को देखने इंसानों का एक बाज़ार नज़र आता है

कि हर कोई दूसरों की मुफलिसी-औ-खुद्दारी पर हँसता है
यहाँ के लोगों में "धरम" ये कैसा आज़ार नज़र आता है

Friday 19 August 2016

अब तेरा यहाँ बसर नहीं

ऐ वक़्त तेरी मार भी अब मुझे मयस्सर नहीं
ऐसा लगता है मेरे कांधे पर अब मेरा सर नहीं

मुफ़लिसी का आलम औ" भूख से टूटा बदन
कि खुद की रुक गई सांस मुझे यह ख़बर नहीं

मेरी किस्मत तू चिंगारी से जलकर राख़ हो गई
कि अब यहाँ किसी की दुआ में कोई असर नहीं

जो दिन ढला तो वक़्त भी क्या कमाल कर गया
कि जो मुझको पहचाने यहाँ ऐसी कोई नज़र नहीं

अब तो यहाँ तेरा कोई दुश्मन भी न रहा "धरम"
तू चल कोई और जहाँ अब तेरा यहाँ बसर नहीं

Sunday 14 August 2016

चंद शेर

1.

जब कज़ा ही मंजिल है "धरम" तो ये मिल ही जाएगी
यकीं मानो ये मंज़िल एक दिन खुद ही चल के आएगी 

Friday 29 July 2016

चंद शेर

1.
फासले घट गए दूरियां भी कम हुई "धरम"
ये क्या कम है की मजबूरियां भी कम हुई

2.
कि मेरा मुक़ाबला अपने ही दर-ओ-दीवार से था
औ" वो दर्द भी "धरम" मेरे पुराने आज़ार से था

3.
हर मुक़ाम पर मेरी हस्ती महज़ ख़ाक की हो जाती है
हर बार मेरी ही गर्दन "धरम" हलाक़ की हो जाती है

4.
आ की क़ुबूल कर "धरम" तू इलज़ाम मेरे क़त्ल का
औ" की उतार फेंक शराफत की चादर पाने शक्ल से

5.
मेरे यार के शक्ल में अब तो बस सियार नज़र आता है
यहाँ तो हर कोई "धरम" मुझसे होशियार नज़र आता है

6.
अब क्यों कर दिल में आरज़ू हो की वफ़ा करे कोई गैर
खुद अपनी जमात से ही "धरम" जब अपनी न हो खैर

7.
आ के लब पे मर गई तिश्नगी उस बीमार की
देखा जब उसने डूबकर आखों में अपने यार की

8.
ग़म से जब वास्ता न रहा मेरा मुझसे कोई रिश्ता न रहा
खुद अपने ही घर से "धरम" निकलने का कोई रास्ता न रहा

9.
ख़िज़्र सी तन्हाई है हयात एक पैर पर चलकर आई है
जहाँ मैं रहता हूँ "धरम" वहां हर गली में मेरी रुस्वाई है

10.
"धरम" तेरा नाम ज़ुबाँ पे आया तो तरन्नुम आया
की बाद उसके फैसला-ए-हयात पर जहन्नुम आया




Saturday 23 July 2016

प्रथम प्रहर होना है

तुम तो तिमिर थे अब तुम्हें सहर होना है
हाँ इक छोटे से बीज को पूरा सज़र होना है

ज़माना तो हर रोज बरपाएगा क़हर तुझपर
मगर इस सब के साथ तुमको प्रखर होना है

ये मुमकिन है कि तेरी बात कोई भी न सुने
मगर तुमको तो ज़माने के सामने मुखर होना है

ग़ुर्बत में यहाँ हर मुफलिस की आँखें फूट गई हैं
तुमको तो मुफलिस-औ-मज़लूम की नज़र होनी है

यहाँ तो हर किसी का खुर्शीद डूबा हुआ है "धरम"
तुमको तो सबके दिवस का प्रथम प्रहर होना है

Tuesday 19 July 2016

भूल जाओ ख्वाइशें हज़ार रखना

इधर जो लग गई आग इसे तुम अब याद रखना
कि जला के अपना दिल तुम भी अब तैयार रखना

अपने इश्क़ के दरम्याँ का चिलमन मैंने हटा दिया
तुझे तो अब भी ठीक लगता है इसमें दीवार रखना

हम खूब वाकिब हैं तेरे अंदाज़-ए-ज़ुल्म-औ-सितम से
ये तेरी ही फितरत है यहाँ हर किसी को बीमार रखना

तेरा ज़िक्र सुनकर यहाँ आ गए हैं कई और दिलफ़रेब
ये इल्तिज़ा है तुम भी अपने आप को होशियार रखना

अब तो तेरे महफ़िल में न रौनक है औ" न ही क़द्रदान
अब तुम भूल ही जाओ "धरम" ख्वाइशें हज़ार रखना 

Sunday 3 July 2016

नज़र आता है

रूठना तो भूल गया हूँ मैं मगर मनाने का हुनर आता है
तुझमे तो मुझे अब भी कोई पुराना यार नज़र आता है

वो और होंगे जिनके ज़िंदगी के रास्ते वीरां हो गए होंगें
मैं जब भी निकलता हूँ मेरे हर रास्ते में सजर आता है

वो और होंगे जो इन्सां के मक़तल पर जश्न मनाते होंगे
मुझे तो यूँ हीं हर किसी के दर्द पर दर्द-ए-जिगर आता है

वो और होंगे जो क़त्ल-औ-फ़रेब करके भी भूल गए होंगे
मेरे चेहरे पर तो किसी झूठे इल्ज़ाम का भी असर आता है

छोटा सा मसला था मगर बात गिरेबां तक पहुंच गई "धरम"
यहाँ तो हर किसी को अपने आप में पैग़म्बर नज़र आता है

Saturday 25 June 2016

बहुत ज़्यादा है

न जाने क्यों उसे अपने क़द का गुमान बहुत ज़्यादा है
उसे दिखता नहीं उससे भी ऊँचा मकान बहुत ज़्यादा है

उसके दरवाजे से जाकर लौटा तो कंगाल हो गया था मैं
औ" लोग कहते थे कि उसके पास ईमान बहुत ज़्यादा है

ये पसंद उसकी थी कि उस कमरे में कुछ भी न पसंद आई
हाँ! उस कमरे में अब भी बुजुर्गों का सामान बहुत ज़्यादा है

जो शराफत की चादर ओढ़कर नफ़रत करते हैं हम रिन्दों से
इस शहर में उसकी मय-ओ-हुस्न की दुकान बहुत ज़्यादा है

तुम्हें तो बोलने की बीमारी है तुम उसके यहाँ कभी मत जाना
काट दी जाती है "धरम" जिसकी चलती जुवान बहुत ज़्यादा है

Tuesday 7 June 2016

समझ बैठे थे

हम तो तेरे ज़ुल्फ़ को ही दामन-ए-यार समझ बैठे थे
औ" तेरे आरिज़ को ही बोसा-ए-रुख़सार समझ बैठे थे

हमें तो धोखा हुआ था कि हम तुझे दिलदार समझ बैठे थे
औ" महज उन चंद मुलाकातों को ही प्यार समझ बैठे थे

जो नज़र का चिराग जला तो हम तुम्हें यार समझ बैठे थे
औ" वो बस तेरी एक नज़र को ही हम दीदार समझ बैठे थे

वो तेरी दिल बहलाने वाली बातों को हम क़रार समझ बैठे थे
हाय! तुम सा कुलूख को "धरम" हम माहपार: समझ बैठे थे

शब्दार्थ
आरिज़ - गाल
बोसा-ए-रुख़सार - चूमने वाला गाल
कुलूख - ढेला, मिट्टी का टुकड़ा
माहपार: - चाँद का टुकड़ा



Sunday 29 May 2016

चंद शेर

1.
हम वो हैं जो कलम से अपने हाथ की लकीर लिखते हैं
बड़े अदब से "धरम" हम अपने नाम में फ़क़ीर लिखते हैं

2.
आज बरक्कत मिली तो हर किसी से कद तुम्हारा ऊँचा हो गया
वक़्त का खेल देखो "धरम" हर कोई तेरी नज़र से नीचे हो गया

3.
तेरे आने से ग़र कहर ही न बरपा "धरम" तो तेरा क्या आना हुआ
हुस्न की तपिश से ग़र खुर्शीद न जले तो हुस्न का मर जाना हुआ

4.
ग़र यही तेरा फैसला हो तो ज़माने को इसकी खबर हो जाए
ख़ुदा करे मुझपर "धरम" तेरे हरेक बद-दुआ का असर हो जाए  

अब आ गया हूँ मैं

क्या जाने किस मुकाम तक अब आ गया हूँ मैं
कि जिस्म में उतरकर जान तक अब आ गया हूँ मैं

वफ़ा की बात है तुम्हारी तुम खुद अपना जानो
कि अपनी तरफ से ईमान तक अब आ गया हूँ मैं

अब ये तुझ पर है कि मुझे पी लो या फिर छोड़ दो
कि बनकर शराब तेरे ज़ाम तक अब आ गया हूँ मैं

बातें बेरुखी कि थी तुम याद रखो या फिर भूल जाओ
कि सब छोड़कर दुआ-सलाम तक अब आ गया हूँ मैं

तुम चाहो तो पनाह दो मुझे या फिर कर दो दरकिनार
कि तेरे हुस्न के इस मकान तक अब आ गया हूँ मैं

तुम चाहो तो पलकों पे रखो या मुझसे फेर ही लो नज़र
कि तेरी मोहब्बत में इस अंजाम तक अब आ गया हूँ मैं

मेरी रुस्वाई हर जुबाँ पर है औ" हिकारत हर नज़र में है
कि ज़माने में "धरम" इस अंजाम तक अब आ गया हूँ मैं

Monday 23 May 2016

ये दिन भी कट ही गया

आधा जीवन तो भसड़ में ही कट गया सिर्फ एक ही पोटली ढोते-ढोते. घर से जब निकला था तब पास में सिर्फ दसवीं कक्षा का अंक पत्र था. पोटली बहुत हल्की थी इसलिए मन भी हल्का रहता था. साल-दर-साल पोटली में कागज़ के अंक पत्र, चरित्र प्रमाण पत्र और न जाने कैसे-कैसे पत्र जुड़ते गए. हक़ीक़त अब यह है की पोटली के साथ-साथ मन भी भारी हो गया है. शरीर स्थूल हो चला है. तोंद हर वक़्त अपने होने का एहसास कराते रहता है. हड्डी वक़्त-बे-वक़्त कट-कट की आवाज़ करते रहता है. पता नहीं क्या कहना चाहता है: तुम्हारा कट चुका है या कट रहा है या फिर तुम चूतिये हो और ज़िंदगी भर तुम्हारा ऐसे ही कटने वाला है? कभी-कभी मन दार्शनिक भाव से ओत-प्रोत होता है तो यह आत्मबोध होता है कि आदमी अपना खुद जितना काटता है दुनियाँ में उसका उतना कोई भी दूसरा नहीं काट सकता है. तो फिर इतना भसड़ क्यूँ? इतना ग़दर क्यूँ? इतनी बेचैनी क्यूँ? इतनी बेवाकी क्यूँ? ऐसे-ऐसे अनगिनत ढेर सारे प्रश्न उठने लगते हैं. बाद इसके पता चलता है कि दार्शनिक मन इतना खिन्न क्यूँ होता है. घोर खिन्नता में भी यदि करवट बदलता हूँ तब भी हड्डी कट-कट करने से बाज नहीं आता है. लेकिन इसबार हड्डी का कटकटाना ठीक लगता है क्यूंकि वह अकिंचन दार्शनिक हुए मन को काटता है और फिर मनःस्थिति सामान्य हो जाती है. रात में सोने के वक़्त एहसास होता है कि ये दिन भी कट ही गया.

Sunday 22 May 2016

चंद शेर


1.
जिसे चिलमन के पीछे रहना था उसकी खूब नुमाईश हो रही है
अब तो ज़माने को "धरम" न जाने कैसी-कैसी ख्वाइश हो रही है

2.
अब की जो लगी प्यास तो बदन के शराब से ही बुझेगी
जिस्म की आग है "धरम" जिस्म की आग से ही बुझेगी

3.
अब जाकर पता चला तेरे इश्क़ का रंग है स्याह
तुझे तो "धरम" जहन्नुम में भी न मिले पनाह

4.
कभी मुझपे तो कभी ज़माने पे "धरम" तुको हँसी आई
मुझे ये बात अच्छी लगी की तुमको कभी तो ख़ुशी आई

5.
कोई भी दावत-ए-सुखन कम है तेरे नज़र उठाने के बाद
महफ़िल में अब कौन रुकता है "धरम" तेरे जाने के बाद

6.
लब उदास है "धरम" औ" हैं चेहरे पर झुर्रियां
इस नेकी की सजा मुझे कुछ इस तरह मिली

7.
सिवा तेरे इस नफरत की आग को हवा कौन दे सकता है
कि बाद मरने के भी "धरम" मुझे सजा कौन दे सकता है

8.
उदासी इस क़दर उसके चेहरे पर घर कर गई "धरम"
कि कोई भी फूल उसके दामन में अब महकता नहीं

9.
उसके बज़्म में "धरम" अब कोई पैमाना छलकता नहीं
कि ज़िक्र-ए-यार पर भी अब उसका दिल बहकता नहीं

10.
तेरे नामुराद इश्क़ के खातिर हम ता-उम्र बस जलते रहे
बेवाक यूँ हुए "धरम" कि दुश्मनों से ही गले मिलते रहे

11.
ग़र हम तेरे न हुए "धरम" तो ज़माने में किसी के न हुए
फासलों को अब मुद्दत हो गया मगर किस्से पुराने न हुए

Tuesday 17 May 2016

प्यास बुझाती नहीं

रात भर अब तेरी कोई भी बात याद आती नहीं
औ" मेरी पहली मोहब्बत अब मुझे सताती नहीं

सीने के ऊपर रखा है पत्थर औ" नीचे पड़ा है ईंट
कि अब तेरी कोई भी बात मेरा दिल दुखाती नहीं

बात उल्फत की थी हर जुबाँ पर तेरा ही नाम था
अब तेरा कोई भी ज़िक्र मेरी नज़र झुकाती नहीं

पशेमा हुए गिर पड़े मगर उठने की चाहत भी थी
वो तेरी मदभरी आवाज़ अब मुझे बुलाती नहीं

हज़ारों हसीनाएँ हैं औ" दिल में रहम भी है "धरम"
मगर यहाँ कोई भी लब अब मेरी प्यास बुझाती नहीं 

Thursday 12 May 2016

चंद शेर


1.
उसे पाकर भी न चैन मिला औ" खोकर भी न क़रार आया
कि हर हाल में "धरम" मेरे ज़ख्म-ए-दिल पर निखार आया

2.
दिल कि खनक के आगे अब यहाँ फींका है हर साज़
जब से जज़्बातों ने "धरम" पलकों को दे दी आवाज़

3.
आज़ादी कि चाह ने इसको बना दिया कैसा कपूत
अब तो ये लगता है "धरम" जैसे हो कोई ज़िंदा भूत

4.
फ़ाक़ा मस्ती है औ" हैं हम अपने सल्तनत के सरताज
कि जूता रखते हैं सर पर "धरम" पैरों तले रखते हैं ताज

5.
जब भी मुस्कुराने का दिल किया गैरों के ताने याद कर लिए
हमने अपने मुफलिसी के "धरम" सारे ज़माने याद कर लिए

6.
मोहब्बत कि आखिरी रश्म वो अता कर गया
ज़िंदा लाश को "धरम" कफन ओढ़ा कर गया

7.
ऐ! ज़िंदगी तू मुझे मिली "धरम" ज़िंदगी के बाद
अब क्या तेरी बंदगी करूँ ता-उम्र रिंदगी के बाद

8.
ऐ! आसमाँ अब तू ही बरसा गुलफ़ाम की गला तर जाए
फिर तबियत में छाये कुछ खुमारी औ" चेहरा निखर जाए

9.
हुस्न को इश्क़ ने "धरम" कुछ यूँ नज़राना दे दिया
कि क़लम कर खुद अपना सर सारा ज़माना दे दिया

Saturday 7 May 2016

हिम्मत कौन करेगा

मुझे अब यहाँ तेरी तरह मोहब्बत कौन करेगा
दिल के साथ रूह भी देने की हिम्मत कौन करेगा

तेरी क़ातिल सी निगाह है मगर तुम खुद क़त्ल हुए
मेरे खातिर अब यहाँ ऐसे मरने की हिम्मत कौन करेगा

हर दिन हर लम्हा यहाँ तुमने मुझे अपने पलकों पे बिठाया
इस बोझ को अब सर-आँखों पर बिठाने की हिम्मत कौन करेगा

मेरे लफ्ज़ में बारूद है जब भी बोलूं तो आग बरसता है
इस आग को हँसकर अब बुझाने की हिम्मत कौन करेगा

मैं अपने दिल पर हाथ रखकर "धरम" खुद ही से पूछता हूँ
बाद उसके तेरे हर जुर्म को माफ़ करने की हिम्मत कौन करेगा 

Monday 2 May 2016

चंद शेर

1.

मैं खुद को तुझमे फ़ना होकर जीना चाहता हूँ
ज़िंदगी का हर दर्द तेरे होठों से पीना चाहता हूँ

2.
मेरी भटकती रूह को अपने बदन में पनाह दे दो
खुद को देखने के लिए तुम अपनी निगाह दे दो

3.
लपेटो कफ़न मेरे जिस्म में अपने आँगन में गाड़ दो
कि मैं तेरी नज़र में रहूँ औ" तुम मुझे भरपूर प्यार दो

4.
हज़ारों मर्ज़ झुक गया है बस एक तेरी चाहत के आगे
औ" मुझे अपना हश्र पता है वो तेरी मोहब्बत के आगे 

Sunday 24 April 2016

!! उठो विप्रवर उठो !!

तप करो ऐसा कठिन कि हरा न सके कोई बुद्धि बल में
झुके चरण में नृप तेरे और हाहाकार उठे दानव दल में

अब हो संगठित ऐसे कि हर मुख गहे तेरी महिमा
अंक का यह खेल उलट दो प्राप्त करो अपनी गरिमा

लिखो खड्ग पर वेद और उपनिषद से उसे तुम तेज करो
जो भी हो विरुद्ध मानवता के तुम तुरत उसे नि:तेज करो

अर्पित अपना रक्त कर तू कर रण-चंडी का श्रृंगार
कर प्रसन्न उस देवी को तू प्राप्त कर शक्ति अपार

......अभी और लिखना बाकी है ...

Tuesday 19 April 2016

ख़्वाब अब भी पल रहा है

तेरे गिरेबां से अब भी क्यूँ धुआं उठ रहा है
वो कौन है जिसकी याद में तू अब भी जल रहा है

मुक़द्दस चाँद था औ" वो छटकती निराली चाँदनी
क्या तेरे दिल में अब भी वो ख्याल पल रहा है

अनकहे जज़्बात जिसे हया के चादर में लपेटा था
अब उस चिलमन का एक-एक धागा निकल रहा है

खता तो उसकी थी मगर बेआबरू तुम हो गए थे
क्यूँ उसके बेशर्मी से तेरा बदन अब भी पिघल रहा है

उसे मिल गए कितने हमसफ़र अब मैं गिन नहीं सकता
उसकी उल्फ़त में "धरम" तेरा ख़्वाब अब भी पल रहा है 

Tuesday 23 February 2016

चंद शेर

1.

हुक़्म की ग़ुलामी की मैंने कहाँ कभी मनमानी की
ख़्वाब में भी "धरम" मैंने सिर्फ तुम्हारी ग़ुलामी की

2.

आ की क़त्ल करके मेरा तू आज़ाद हो जाए
औ" की क़त्ल करके तेरा मैं बर्बाद हो जाऊँ

3.

हर बार अपने कद-औ-कामत को मैंने कुछ यूँ बढ़ा लिया
देश की मिट्टी को उठाया "धरम" और माथे से लगा लिया

4.

तुम चाहो तो दिल में रखो न चाहो तो निकाल दो मुझे
इसपर भी दिल न भरे तेरा "धरम" तो हलाल दो मुझे

5.

बिछड़ी तो मुर्दा जिस्म थी औ" मिली तो ज़िंदा लाश
मुझे तो कभी न थी "धरम" ऐसी ज़िंदगी की तलाश 

Monday 8 February 2016

अभी और बाकी हैं

इस वक़्त के कोड़े अभी और बाकी हैं
कि ज़िंदगी में रोड़े अभी और बाकी हैं

इन राहों पर बिखरे हैं बेसुमार अड़चन
कि इन पाँव में फोड़े अभी और बाकी हैं

जो मुझमें अकड़ है औ" थोड़ी खुद्दारी भी
कि इस गर्दन की मरोड़ें अभी और बाकी हैं

पूरी तरह से अभी तक मैं टूटा नहीं हूँ "धरम"
कि इस बदन की निचोड़ें अभी और बाकी हैं 

Tuesday 2 February 2016

दिल का मामला यहाँ मंदा है

मेरे ख्यालों में अब भी वो सख़्श ज़िंदा है
हँसता मुस्कुराता खड़ा देखो वो परिंदा है

मुझे तो वो सख़्श बड़ा सलीकेवाला लगा
जिसे ज़माना थूकता औ" कहता वो रिंदा है

जब से भागा हूँ मैं ज़िंदगी से नज़रें चुराकर
अब हर जगह दिख रहा बस एक ही फंदा है

रात मिलन की थी सितारों ने गुस्ताख़ी कर दी
चौदवीं के रात में सर झुकाये खड़ा अब चंदा है

मोहब्बत अब जिस्मफरोशी पर उतर आई है
दिल का मामला तो "धरम" अब यहाँ मंदा है

Thursday 21 January 2016

ज़ख्म

इस ज़ख्म से धुआं उठता है
लहू रिसता है
नर-पिशाच मार कुंडली
बैठा रहता है
बार-बार इसे कुरेदता है 

Saturday 16 January 2016

चंद शेर

1.
जो मज़बूरी ने इश्क़ के दरिया में पॉव रखा दिया
गज़ब हुआ हवा ने फिर चराग़े कुश्त: जला दिया

2.
ज़माना जिसे कल देखता था ब-नज़र-ए-हिक़ारत  
आज उसने सबको मोहब्बत से जीना सिखा दिया