Friday 30 December 2016

बुझ न सकेगी

ऐसे रु-ब-रु न हो मेरी नज़र तुझपर टिक न सकेगी
तू फ़ासले से मिल नहीं तो तेरी याद मिट न सकेगी

मुझे आखों से ऐसे न पिला की प्यास बढ़ती ही जाए
सिर्फ ज़ाम दे मुझे नहीं तो तश्ना-लब बुझ न सकेगी

कतरा सी ज़िन्दगी औ" उसमे दरिया भरने की चाहत
की मौत के बाद भी ये ख्वाईश कभी पूरी हो न सकेगी

ज़माने भर की उदासी अपने चेहरे पर लिए फिरते हो
ऐसे में कोई भी ख़ुशी तेरे पहलू में कभी आ न सकेगी

ग़र तमन्ना है उससे मिलने की तो आज मिलो "धरम"
वो कभी भी अपने वादा-ए-फ़र्दा पर मिलने आ न सकेगी 

Saturday 10 December 2016

सबकुछ ढल जाएगा

अब जो बहार आई तो साथ में ग़ुबार भी आएगा
चमक कुछ देर ठहरेगी बाकी अँधेरा छा जाएगा

एक तो तन्हाई औ" उसपर मुफ़लिसी का आलम
ये ऐसा ग़म-ए-हयात है जो अब साथ ही जाएगा

तेरा इश्क़ मोहब्बत आशियाँ औ" यह पूरा ज़माना
वक़्त के एक ही धमाके में सब कुछ बिखर जाएगा  

नेकी बंदगी बेवफ़ाई मक्कारी हर चीज़ में मिलावट है
मालूम ही नहीं पड़ता कि कौन रास्ता किधर जाएगा

नज़रें मिलाना नज़रें चुराना औ" फिर थोड़ा मुस्कुरा देना
उसको मालूम न था की अब ये वार भी बेअसर जाएगा

रात का आलम महताब की रौशनी सितारों की महफ़िल
एक खुर्शीद के निकलते ही "धरम" सबकुछ ढल जाएगा 

Thursday 8 December 2016

दफ़न हो जाएँ एक दूसरे के लिए

अभी दीवार पूरी तरह से उठी नहीं है
थोड़ा मैं भी झांक सकता हूँ तुझमें
और थोड़ा तुम भी मुझमें
हाँ मगर दीवार की नीब बहुत मजबूत है
एक बार बन गई तो फिर
उसको गिराना मुश्किल होगा

तुम्हारे उसूल पर बनी ईमारत
अब ढह गई है
उसी ईमारत की ईटें
इस दीवार में लगा रही हो तुम
छूता हूँ तो ईटें बोलने लगते हैं
कहतें है
अभी तो ईमारत से मुक्त हुआ हूँ
फिर से मत बांधो मुझे

तुम्हारा मौन
मेरे हरेक अभिव्यक्ति पर भारी है
उसे भी एक दिन गिरना पड़ेगा
तुम्हारे उसूल के ईमारत की तरह
उसके बाद सिर्फ चीख सुनाई देगी
जो काटने दौड़ेंगे

मेरी साँसें अब चुभती हैं तुझे
अपूर्ण दीवार आँखों को खटक रही हैं
तुम इसे पूरा कर दो
ताकि ताउम्र हम दोनों
दफ़न हो जाएँ एक दूसरे के लिए 

सीने से दिल निकालो अपना

सीने से दिल निकालो अपना
झाड़ो साफ़ करो उसको
की बहुत धूल जम गई है
इसमें मुझे मेरी सूरत नज़र नहीं आती

सिर्फ ग़ुबार है यहाँ
न जाने किस आँधी से पैदा हुआ
तुम्हारे अंदर
फल-फूल भी रहा है
हैरत हो रही है मुझे

दिल में कालिख़ बैठा है या नहीं
यह तो धूल झड़ने के बाद ही पता चलेगा
और कितने चेहरे छुपे हैं इसमें
इसका शायद तुमको भी अंदाज़ा नहीं

सिर्फ मुस्कुरा देना तेरी आदत न थी
कहाँ से सीखा ये
लगता है शायद वक़्त की देन हो
या किसी और की
मगर क्यूँ
यह प्रश्न मैं तुम्हारे लिए छोड़ देता हूँ


Monday 5 December 2016

अकड़कर खड़ा रहने में कोई भला नहीं

जो मील का पत्थर था वो अपने ज़गह से हिला नहीं
की पूरा कारवां गुज़र गया मगर उससे कोई मिला नहीं

उसकी ख्वाईश की सीढ़ी आसमाँ से भी ऊँची निकल गई
हाँ मगर हक़ीक़त यह हुआ की वहां कोई महल बना नहीं

की हिम्मत हर बार मुफ़लिसी के सामने घुटने टेक देती है
आज फिर से उसके सितम पर इसका कोई ज़ोर चला नहीं

हुक़्म की ग़ुलामी औ" एहसान तले झुका हुआ उसका सर
की आज कट भी जाये तो उसको खुद पर कोई गिला नहीं

तारों-सितारों की बातें आसमानी हैं कुछ हक़ीक़त नहीं होता
अब समझ आया की ऐतवार करके मिलता कोई सिला नहीं

इस बार के गर्दिश-ए-ऐय्याम को झुककर सलाम करना है
उसके सामने अकड़कर खड़ा रहने में 'धरम' कोई भला नहीं