Thursday 27 April 2023

राह में शजर आया है

दरिया के बीच में किनारा उभर आया है 
थोड़ा सा पानी भी बहकर  इधर आया है 

चेहरा बेरंग था साँसें भी तेज चल रही थी  
सीने का ज़ख्म आईने को नज़र आया है
 
साँसों से निकलकर सीने में दफ़्न था जो 
क्यूँ वह चेहरा चौखट पर दीगर आया है 

रास्ते ज़िंदगी के यूँ  आसाँ तो न थे मगर 
जिधर भी निकला राह में शजर आया है

कैसा दिल-ए-बाग़ है वो बाग़बाँ कैसा है     
फूल खिलते ही  ज़ेहन में शरर आया है 

कि रिश्ता मुकम्मल  हो भी  तो कैसे हो  
हाथ थामते ही  दामन में  ज़रर आया है

बात उसके आने की चली ही थी 'धरम'
सब खोजने लगे की वो किधर आया है
 
 

दीगर : पुनः
ज़ेहन : मन
शरर : अग्निकण
ज़रर : तकलीफ़

Wednesday 19 April 2023

एडिओं तले कुचलता रहा

आँखों में लहू उतरा ही नहीं सिर्फ़ रगों में उबलता रहा  
ज़िंदगी तिरे तपन से  यह जिस्म मुसलसल जलता रहा

नज़र जिधर भी पहुंची सिर्फ़ दो ही नज़ारा मिलता रहा
कहीं तो पानी जमने लगा कहीं तो पत्थर पिघलता रहा 

पहले साँस ने सीने को आग़ोश में लेकर सुकूँ पहनाया
फिर वो साँस औ" सीने का रिश्ता उम्र भर छलता रहा

जब तलवे भर ज़मीं भी न थी सिर्फ़ एडिओं चलता रहा 
तब भी मगर हर चुनौती को एडिओं तले कुचलता रहा

गर्दिश को हासिल-ए-बुलंदी थी वक़्त भी ढ़लान पर था
तब रूह से एक जिस्म निकलकर ग़ुर्बत निगलता रहा 

बात कम सुनने लगा फिर थोड़ी और कम कहने लगा    
फिर हर बात पर ही जाने क्यूँ 'धरम' मन बहलता रहा 


गर्दिश : संकट
ग़ुर्बत : ग़रीबी

Saturday 8 April 2023

ख़ुद को सुलाना पड़ा मुझे

आँखें सिर्फ़ एक बार मिली फिर नज़र झुकाना पड़ा मुझे 
फिर ख़ुद को अपनी रूह में ख़ुद ही में समाना पड़ा मुझे
 
कैसी इश्क़ की बीमारी थी जाने कहाँ तुझ में खो गया था  
ख़ुद अपनी ही महफ़िल में  ख़ुद ही को बुलाना पड़ा मुझे 

उसको यक़ीं-ए-इश्क़ दिलाना  कुछ यूँ आसाँ तो नहीं था 
दिल दिमाग़ तसव्वुर ख़्वाब  सब कुछ दिखाना पड़ा मुझे

कभी रास्ते का भरम रहा  कभी रहबर की मक्कारी रही 
ऐ! मंज़िल-ए-मक़्सूद तुझे हर सफ़र में भुलाना पड़ा मुझे

आँखों में कभी ख़ून न उतरा बदन में कभी आग न लगी 
ता-उम्र कुछ इस तरह से उसका क़र्ज़ चुकाना पड़ा मुझे   
  
जब भी ख़ुद से गुफ़्तगू हुई तो वक़्त ने कभी दस्तक न दी 
फिर बिना नींद के ही "धरम" ख़ुद को सुलाना पड़ा मुझे 


 
मक़्सूद : ख्वाहिश
मक्कारी : फ़रेब
दस्तक : खटखटाना

Tuesday 4 April 2023

दिल कितना दुखाया रहा

आँखों में हमेशा वो कुछ इस तरह समाया रहा  
वो नहीं रहा तो कभी अक्स तो कभी साया रहा

मुड़कर देखना आसान न था बिछड़ने के बाद  
रुख़्सत के बाद भी वो हाथ अपना बढ़ाया रहा
  
ख़्वाब में मिलने का एक अहद किया था कभी 
वो आँखें बंद करके नज़र अपनी बिछाया रहा
 
वा'दा-ख़िलाफ़ी के बाद एक घाव उभर आता   
वो सीने पर हाथ रखकर ज़ख़्म दफ़नाया रहा

वो क़ातिल भी था मसीहा भी था  ख़ुदा भी था 
जब गले लगाया तो दिल कितना दुखाया रहा
  
साथ चला तो एक भीड़ थी कोई कारवाँ न था  
हाथ थाम कर भी 'धरम' हर कोई पराया रहा