Friday 26 October 2018

फ़ासले को बढ़ने का एक इशारा मिला

कि कब दरिया में डूबा  किसकी कश्ती से लगकर  कैसा किनारा मिला
कुछ भी पता न चला  किसके हाथों डूबते रिश्ते  को कैसा सहारा मिला

कि ख़ुद की किताब-ए-हिज़्र पर जब अपनी ही तन्हाई की रौशनी डाली
हर वरक़ में मुझे  सिर्फ़ चाँद की परछाहीं  मिली सूरज का अँधेरा मिला

कि ज़माने के महफ़िल में लौ के बुझने तलक हर दिये को निहारा गया
बाद उसके किसी के हिस्से में न कभी रौशनी आई न कोई बसेरा मिला

कि जब कभी किसी एक ख़्वाब  को तोड़कर दूसरे  ख़्वाब से जोड़ा गया
तो दरम्याँ दोनों  ख़्वाब के ग़ुबार भर आया सिर्फ  धुंधला नज़ारा मिला

कि जब हर सन्नाटा  सिर्फ़ सिसकी से टूटे तो कौन  किससे सवाल करे
दो ज़िस्म के  दरम्याँ उग आए फ़ासले को  बढ़ने का  एक इशारा मिला

कि जब भी ख़ुद  को पलट  कर देखा वीरान  दश्त का एक  पत्थर पाया
अपना नक्श-ए-पाँ तो न पाया मगर हाँ! हर ज़ख्म "धरम" ठहरा मिला 

Friday 5 October 2018

चंद शेर

1.
यदि मैं ज़मीं भी देखूँ "धरम" तो खुला आसमान दिखता है
मुझे तो हर ओर सिर्फ अपने ही मौत का सामान दिखता है 

2.
कि यह तय कर दिया कि वो मौत नहीं तमाशा था
क्यूंकि मरने वाले का भार "धरम" महज माशा था

3.
हमारे कोष के जो भी बचे-खुचे सितारे गर्दिश में थे अब वो भी डूब गए
अब तो किस्मत के अलावा 'धरम' हम ख़ुद अपने आप से भी ऊब गए

4.
ख़ुर्शीद कल भी निकलेगा दोनों ज़िस्म कल भी जलेंगे मगर वो तपिश न होगी
हम साथ भी रहेंगे बातें भी होंगी "धरम" दरम्यां हमारे मगर वो कशिश न होगी

5.
हर हद से ऊँची उड़ान उड़ना ज़मीं तो ज़मीं तुम पूरा आसमान उड़ना
एक ही ज़िंदगी में 'धरम' तुम मौत के बाद का भी सारा ज़हान उड़ना

6.
यहाँ किसको ख़्याल था कि हर बात पर मेरा दिल बैठता है
अब तो यहाँ किसी से भी मिलना 'धरम' मुश्किल बैठता है