Wednesday 18 June 2014

रस्म जांनिसारी का

जुड़ने से पहले ही टूट गया वो रिश्ता यारी का
अब कहाँ किसके पास है इलाज़ इस बीमारी का

ज़माने से अब रश्म उठ चुका है ऐतबारी का
हर ओर व्याप्त है प्रभाव इस महामारी का

होठों पे रखते हैं ख़ुशी औ" दिल में ज़रर
अब तो हर ओर चलन है इसी अदाकारी का

मोहब्बत तो हो गया एक जरिया जांआज़ारी का
अब कहीं नहीं मिलता "धरम" रस्म जांनिसारी का

Friday 13 June 2014

कोई आशियाँ न मिला

रात भर जुगनू रौशनी लुटाता रहा
मेरे दर्द-ए-दिल को यूँ हीं बढ़ता रहा

मैं ढूंढता रहा सुकूँ देने वाली अँधेरी रात
कहीं चिराग तो कहीं जलता दिल मिलता रहा

ज़ख्म पर नमक तो मिला मरहम न मिला
जो समझ सके दर्द-ए-दिल वो हमदम न मिला

चेहरे की मायूसी भी भला कहाँ छुपती है
मुझे तो किसी मकाँ में कोई घर न मिला

दिल टूटा हुआ था अब तो जिस्म भी तड़पने लगा
ढूंढने पर भी किसी शहर में कोई इन्सां न मिला

थककर जब मैं खुद अपने शहर को लौटा "धरम"
वहां भी मुझे अपना वो पुराना आशियाँ न मिला  

Wednesday 11 June 2014

काल

मुहं फाड़े काल
सुनामी के मानिंद
बढ़ता चला आ रहा
तोड़ता चबाता निगलता हरे भरे वृक्ष

मानव खुद अर्पण कर रहा
अपना जीवनदायनी रक्षा कवच
काल का पेट समंदर से भी गहरा
निगलकर वृक्ष करता चोट मानव पर

न करता कभी उल्टी
न होता कभी कब्ज़ काल को
हर वक़्त भूखा प्यासा
कहर बरपाने की आशा

उजाड़ कर जंगल बस्ती
हँसता खिलखिलाता झूमता
और करता तांडव नृत्य
शेष मानव थरथराता देखकर यह कृत्य

प्रकृति का यह रौद्र रूप
कितना भयानक कितना कुरूप
मानो फन काढ़े विषैले असंख्य सर्प
उगल रहा हलाहल

प्रकृति से खिलवाड़ कितना भयंकर
मानो तीसरा नेत्र खोले साक्षात शंकर
उगल रहा अपने गले का विष नीलकंठ
मचा रहा कोहराम औरों का सूखता कंठ

सबल मानव
कितना दुर्बल दीखता अपने कुकृत्य पर
पछताता अहा! न खेलता प्रकृति से
और एक बार फिर काटता जंगल

बनाता कारखाना बहाता मल
गंगा का जल अब कहाँ स्वच्छ कहाँ निर्मल
पीकर प्रदूषित जल
करता रोग की खेती स्वयं अपने अन्दर

राक्षश कब अपने कु-कृत्य पर पछताता है
कर औरों पर ज़ुल्म वह खूब खिलखिलाता है
सब से सबल धरा पर वह अपने को बतलाता है
मगर आह! यह काल उसको भी खा जाता है

गिद्धों का हर ओर हो रहा महाभोज
अँधा मानव निकालना चाहता कारण इसका खोज
जो कारण है स्पष्ट वह उसको दीखता नहीं
बिगड़ता देख प्रकृति का संतुलन वह कुछ सीखता नहीं



Thursday 5 June 2014

रिश्ता

मेरे रिश्ते को धागों से मत बांधो
खुला रहने दो सैर करने दो आसमाँ में
झुक कर चूम लेने दो ज़मीं को
घुलकर बहने दो नदी में कहीं संगम हो जाए

बहने दो इसे हवा के साथ स्वछन्द
कस कर खींचो स्वांस कहीं क्षणिक मिलन हो जाए
और कर पाये महसूस तुम्हारी धड़कन को
स्वांस का आना-जाना तो यूँ हीं लगा रहता है

ग़र तुम पलटो वरक मेरे दिल का
मिलेंगे आड़ी-तिरछी रेखाएं तेरे हथेली की
और उसके साथ मिलेगा कुछ महफ़ूज़ यादें
जिसे वक़्त ने धुंधला कर दिया है