Friday 18 April 2014

ज़माने की मिशाल

मैं झुका भी और हर जोड़ से टूटा भी
मगर ज़माने को कभी खुश न कर सका 

Saturday 12 April 2014

देते हो

करवाके क़त्ल ख़ुदकुशी का नाम देते हो
तुम तो जुर्म को भी नया आयाम देते हो

हर रोज नए गिरह बांधते हो खोलते भी हो
घोलकर ज़हर इंसानियत का नाम देते हो

हम तो ज़माने से जमीं पर रहने के शौक़ीन हैं
कुछ वक़्त के लिए क्यों आसमाँ की ऊडॉं देते हो

हमने सोचा तेरे आने से मुकद्दर जाग जायेगा
तुमतो आकर सोये मुकद्दर को भी मार देते हो

हवा देकर आपसी रंजिश को तुम "धरम"
हमें भीड़ में भी डर तन्हाई का दिखा देते हो

Monday 7 April 2014

बना रखा है

अनगिनत ज़ख्म सीने में छुपा रखा है
हरेक दर्द को मैंने धड़कन से लगा रखा है

हरेक रिश्ता यहाँ पोसीदः होकर टूट गया है
फिर भी उससे भरम इख़लास का बना रखा है

अश्क़ का दरिया था अब सूखकर क़तरा हो गया है
आखों में उसके आने का ख्वाब अब भी छुपा रखा है

मुझसे बिछड़कर वो कुछ इसकदर रूठा है "धरम'
कि रुठने का वो अपना नया अन्दाज़ बना रखा है 

Friday 4 April 2014

अच्छा नहीं लगता

हर रोज टूटना बिखरना अच्छा नहीं लगता
किसी को बार-बार मनाना अच्छा नहीं लगता

माना कि उससे रंजिश नई है मगर प्यार तो पुराना है
यकायक मिलें तो नज़र झुकाके निकलना अच्छा नहीं लगता

सुना है कि ऊपर वाला तंग दिल नहीं होता "धरम"
करम ख़ुदा का ग़र मुवाज़ी न बरसे तो अच्छा नहीं लगता


मुवाज़ी : बराबर-बराबर


Tuesday 1 April 2014

चंद शेर

1.
तुम मुझे दर्द दो तो ज़िंदगी का एहसास हो जाए
हर वक़्त हर लम्हा अब मेरे लिए खास हो जाए

2.
यहाँ कोई नहीं जो मेरे दर्द-ए-दिल कि दवा करे
मैं जब भी गर्दिश में रहूँ वो मेरे लिए दुआ करे

3.
ये दर्द तो अपना है मगर ख्याल किसका है
जवाब तो मैं खुद हूँ मगर सवाल किसका है

4.
ग़र दिल न मचले तो धड़कने का सबब क्या है
मेरा साथ है तो फिर रूठने का मतलब क्या है