Monday 29 July 2019

हर चेहरा उभर कर चला

महफ़िल में दौर जब ज़हर कर चला
हर सैलाब उस महफ़िल में ठहर कर चला

रुख़सत के वक़्त के लम्हों का क्या कहना 
एक-एक लम्हा मानो कहर कर चला

कई ज़िंदगी के बाद एक मौत नसीब हुई थी
अब तो मौत पर भी ज़िंदगी का लम्हा असर कर चला

जब उसे माँगने पर मौत भी उधार में न मिली
तो अपनी ज़िंदगी वो यूँ हीं किसी को नज़र कर चला

बुलंदी और ज़िंदगी पाने को एक हुजूम चल रहा था
वो देकर अपनी मौत हर सोहरत को सिफर कर चला

जब उसे किसी भी रास्ते का कोई अंदाजा ही नहीं रहा
तब वो अपने ही खून के दरिया में निखर कर चला

उसके अंजुमन में कद्रदान जब गैर को निहारने लगे
तो ख़ुद अपने ही अंजुमन से वो बिफर कर चला

याद किसी और की आई चेहरा कोई और सामने आया
जो भूलना चाहा "धरम" तो हर चेहरा उभर कर चला

Sunday 28 July 2019

सबका जनाज़ा किया गया

कि हर दीवार ऊँची करके मेरे कद को छोटा किया गया
खरा सोना था  मुझे पत्थर पर रगड़कर  खोटा किया गया

रुस्वा तो सिर्फ नाम हुआ था सज़ा पूरे ज़िस्म को यूँ मिली
पहले क़त्ल किया फिर उस क़त्ल का तमाशा किया गया 

अपने हुदूद-ए-ग़म  का मुझे कभी ख़ुद  ही अंदाज़ा न था
पहले तो  ज़माने ने हिसाब किया  फिर धोखा किया गया

मेरे लिए हर किसी का लिखा कलाम नश्तर बन गया था
करके क़त्ल ज़िस्म पर ज़ख्म न देने का वादा किया गया

रिश्ते में जब से ज़ुल्म शुरू हुआ  तब से ज़िंदगी शुरू हुई
हर ज़ुल्म के बाद  उससे मिले मौत को  आधा किया गया

शक़्ल  उसकी थी  नग़मा मेरा था  आवाज़  रक़ीब की थी
एक ही ख़्वाब के बाद "धरम" सबका जनाज़ा किया गया 

Friday 26 July 2019

जहाँ तो सितारों के आगे था

कि हर वक़्त फूलों  को पैरों तले रौंदा औ" काँटों पर सोया
ज़ीस्त तू मुझे ये मत  बता मुझे कितना खोया कितना पाया

आँखों से जब भी  अश्क छलकते हैं  उसे छलक जाने दो
ज़िंदगी से तुम कभी  हिसाब मत करना  कि कितना रोया

मौसम हिज़्र का है  बारिश लहू की है  हर अश्क प्यासा है
आओ कहीं दूर चलें  यहाँ न  जाने फैला है किसका साया

कल तुझको  पलट के देखा था  अब फिर कभी न देखूंगा
कल मेरी साँस फूली थी  पूरा का पूरा मन भी था भरमाया

तेरा ज़मीं पे  कुछ न था तेरा जहाँ तो सितारों के आगे था
भटकाकर ज़मीं पर खुद को "धरम" तुम कितना भुलाया

Tuesday 23 July 2019

यूँ ही मालिक का सर नहीं झुकता

ख़्वाब कैसा भी हो उसे भर नज़र देखना जरुरी होता है
ये हम कैसे कह दें कि इश्क़ का हर रंग सिंदूरी होता है

ये सारे सामईन को कद्रदान समझूँ या फिर ग़ुलाम तेरा
तेरी महफ़िल में हर किसी का जवाब जी हुज़ूरी होता है

कैसे कह दें कि ये बोझ अब तो कभी न उठाया जाएगा
यहाँ अपनी लाश अपने कंधे पर ढ़ोना रोजगारी होता है

एक ज़िस्म दो रूहों को अपने अंदर कब उतार लेता है 
जब दोनों रूहों  का दोनों जिस्मों  पर सरदारी  होता है

ग़ुलाम के क़दमों में यूँ ही मालिक का सर नहीं झुकता 
दोनों एक अलग ही  दर्ज़े का "धरम" व्यापारी  होता है

Tuesday 9 July 2019

दर्द

दर्द किसी पेड़ का कोई एक फल नहीं होता
वह तो पूरा का पूरा दरख़्त होता है
जिसकी जड़ें किसी भी सीने की गहराई से
ज़्यादा गहरी होती है
दर्द को सीने में समेटना
इसीलिए मुमकिन नहीं होता

दर्द महज़ एक एहसास नहीं होता 
वह तो कई एहसास से मिलकर बनता है
जो सीने के परत-दर-परत को चीरते हुए
सीने से बाहर निकल जाता है
बाद इसके बाक़ी सारे एहसास
बिना किसी रुकावट के
सीने के आर-पार होते रहते हैं

दर्द कभी भी सीने के किनारे से नहीं गुजरता
वह समान रूप से सीने में फैलता 
हर एहसास को
छूता-टटोलता जिलाता-मारता निकल जाता है 
अपने पीछे प्रश्न छोड़कर
कि दर्द पैदा होता है बढ़ता है
मगर बूढ़ा क्यूँ नहीं होता मरता क्यूँ नहीं ?

Wednesday 3 July 2019

चंद शेर

1.
क्यूँ किनारा नहीं लगती ज़िंदगी  क्यूँ कोई ख़्वाब उभरकर नहीं आता
बहार के मौसम में भी "धरम" क्यूँ कोई हिज़्र भी उभरकर नहीं आता

2.
अपने पाँव तले अपनी ज़मीं कब थी "धरम" अपने सर के ऊपर अपना आसमाँ कब था
अपनी ज़िंदगी कितने ही कब्र से होकर गुजरी मगर उसमें कोई भी अपना जहाँ कब था

3.
ज़िंदगी इस शक्ल से गुज़री "धरम" कि हर हद तक नासाज़ रही
लिखने के लिए न हाथ रहा बोलने के लिए न मुँह में आवाज़ रही