Sunday 29 September 2013

मुर्दा और मैं

मेरे घर से मुर्दाघर की करीबी बहुत है
मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ गरीबी बहुत है

हम हँस के जिए खूब जिए फ़ाकामस्ती किए
फिर भी जिंदगी में मजाज़ी बहुत है

कभी खुद से मिले कभी मुर्दे से मिले
हम तो हर गर्दिश-ए-दौराँ से मिले

महफ़िल में गए तो सदर-ए-मजलिस रहे
और जो तन्हाई में रहे तो घुट-घुट के रहे

गैरों के ज़ख्म भी देखे मरहम भी किये
हम जहाँ भी रहे "धरम" मुज़ाहकः से रहे

Wednesday 18 September 2013

झूठा वादा

उसके इश्क का हरेक वादा यूँ हीं झूठा हो गया
वो जो एक सजर था अब बिल्कुल ठूठा हो गया

सूखे पत्तों की तरह इश्क का हरेक वादा झड़ गया
जो मैं सामने पड़ गया तो वो यूँ ही कट के मर गया

ताउम्र वफ़ा की बात कुछ यूँ तूफाँ के साथ उड़ गया
जो मैं कभी सामने हुआ तो मुझे देखकर मुड़ गया

घर के पुराने कागज़ में एक तस्वीर फेंकी हुई मिली
जो कभी लिपट के खड़ी थी अब यूँ बिखरी हुई मिली

ग़म-ए-हबीब का ग़म अब तो नहीं रहा "धरम"
रुसवा-ए-रकीब का मुझपर अब हो रहा सितम

Monday 9 September 2013

मोहब्बत

मोहब्बत यूँ ही कोई इत्तेफाक नहीं होता
इसमें दिल तो जलता है मगर खाक नहीं होता

मोहब्बत के अपने कई सारे उसूल होते हैं
एक जिस्म दूसरे जिस्म का सिर्फ खुराक नहीं होता

तन्हाई देखी  इश्क किया  रुसवा भी हुए
दुनिया के नज़र में ये रिश्ता-ए-पाक नहीं होता

मैंने कभी मोहब्बत में इबादत नहीं किया "धरम"
इबादत के दो-चार लफ्ज़ मोहब्बत का फलसफा नहीं होता