Sunday 28 July 2013

धुंधला दीखता है

नींद मुझे अपने आगोश में लेकर
एक वीरां जंगल में छोड़ आया है
जहाँ से सब कुछ धुंधला दीखता है
ठीक उसी दिवा स्वप्न की तरह
जहाँ एक बेशक्ल की बाहों में मैं झूलता
जिंदगी की थोड़ी बहुत खुशियाँ महशूस करता हूँ

जब भी कभी कागज़ और पेन्सिल लेकर
उस बेशक्ल की स्केच बनाता हूँ
पता नहीं क्यूँ  स्केच पूरा नहीं हो पाता
स्केच को अधूरा छोड़कर
मैं गहन चिंतन में डूब जाता हूँ
कई तरह के विचारों का उफान
अंतर्मन झेलता रहता है

मैं भला स्केच क्यूँ बनाता हूँ
क्या हमेशा ख़ुशी को शक्ल देना जरुरी होता है ?
यह प्रश्न निरुत्तर ही रह जाता है
वीरां जंगल में सब कुछ धुंधला दीखता है

Thursday 25 July 2013

छोड़ गए

ये कैसे लोग हैं क्या शमां छोड़ गए
जिस्म तो लेते गए मगर जां छोड़ गए

Saturday 20 July 2013

क्यों सो रहे हो...

मेरा मन न जाने कहाँ खो रहा था
ऐसा लगा कि मै अचानक सो रहा था
फिर संचार हुआ एक शक्ति का
मन में भाव आया एक भक्ति का

ऐसा लगा जैसे कि कोई कह रहा हो
और मेरे ही साथ जैसे रह रहा वो
कहता है, तुम मानव हो
तुम ही हो मेरे विशिष्ट कृति
तुम्हारी अनुपम है प्रकृति

फिर क्यों ये खेल खेला जा रहा है
मानव से मानव को तौला जा रहा है
मैंने तो सबको बनाया था समान
फिर क्यों होता है किसी का अपमान
मानवता सब जगह हो रहा है खंडित
निर्दोष क्यों हो रहे हैं दण्डित

अपनी मर्यादा का कुछ तो भान करो
मेरे इस कृति का कुछ तो सम्मान करो
बंद करो यह लूट-पाट
बंद करो यह जात-पात
बंद करो यह रंग-भेद
बंद करो यह लिंग-बिभेद
इतना कह कर वो हुए गंभीर
और मैं फिर हो गया अधीर
अगले ही पल वे विलीन
मेरा ही तेज कुछ हुआ मलीन

ऐसा लगा कि कोई झकझोर गया है
लगा अपनी भुजा का मुझ पर जोर गया है
मैं हो गया पुनः कुछ अशांत
और मन भी हो गया कुछ अधिक क्लांत...

परिवर्तन... सही या गलत

जग बदला , मन बदला , बदला जमाना कुछ ऐसा
नकली सोने को भी कहे, लगता है यह असली जैसा
लोग कहे पुरानी सभ्यता को , है यह कैसा पिछड़े जैसा
पुरानी संस्कृति के संस्कृत को , कहता है यह पिछड़े जैसा

सभ्यता गोरों का है इनके लिए आदर्श
नहीं चाहिये इनको किसी सभ्य बुजुर्ग का परामर्श
कहते हैं बदलते समय में हो रहा इनका उत्कर्ष
व्यवशायिक जिंदगी में ये तो हैं बहुत दुर्घर्ष

जिंदगी के ख्याल में है इनका अपना स्वछन्द विचार
पुरानी सभ्यताओं का बोझ इनको लगता है अत्याचार
धार्मिक स्वतंत्रता का जग में करना है इनको प्रचार
जात-पात और धर्म से उपर उठकर इनका है अपना विचार

संतुष्टि हो तन की या संतुष्टि हो मन की
संतुष्टि हो अपनेपन की या संतुष्टि हो धन की
नहीं चाहिये कोई बंदिश अपने उपर इनको
अन्यथा हो जाएगी रंजिश आपके उपर इनको

कहते हैं मिलाना है इनको एक-दुसरे का रसायन
तभी हो सकता है इनका जाकर कहीं पाणी-ग्रहण
मिलाना है इनको एक-दुसरे के सोच की आवृति
नहीं चाहिये इनको किसी पुराने प्रथा की पुनरावृति...

Friday 19 July 2013

गिद्ध और चमगादड़

गरुड़ की खाल ओढ़े गिद्ध
सभा में नाचता
मद में फूलता
घोर गर्जन कर
छुपाता अपने पैने नुकीले चोंच
लगा है रक्त मानव का

अनेक चमगादड़ हैं उसके जासूस
रात के अँधेरे में
चुपके से घर में घुसकर देखता
कहीं कोई भर पेट खाया तो नहीं

बिलखता भूख से बच्चा
माँ की गोद में सिसकियाँ लेता
बस खाकर स्नेह की थपकी
रात्रि के अँधेरे में खो जाता
पछताता
भला यह जन्म ही क्यूँ हुआ
देखकर ऐसी बात
तृप्त होता चमगादड़

चमगादड़ ढूंढता है
कहीं कोई हो ऐसा मानव
कि जिसने पाया भूख पर विजय
पाकर ऐसी विलक्षण बात
भला चमगादड़ तब क्यूँ  छुपा रहता
सटकर कान से मानव के गुजरता
फुसफुसाता धमकियों भरा शब्द
और कराता अपने होने का एहसास

मगर वह मानव भी अकड़कर बोलता
कि मैंने पा लिया अब भूख पर विजय
लपेटकर अपने पंख में चमगादड़
मानव को डराता
पहचानो इस घुटन को
हवा मुफ्त में नहीं मिलती यहाँ
चीरकर चमगादड़ के पंख
मुक्त होता मानव
लेता जीवन दायिनी स्वांस

करता आश्चर्य चमगादड़
कि इस मरघट में यह है कौन
वह चमगादड़, मानव के
उस नस्ल को नहीं पहचानता
उड़कर चला वह गिद्ध को बतलाने
कि मुर्दा बोलता है

Monday 15 July 2013

गुजरा वक़्त

गुजरे वक़्त का एक भी पल हँसीं नहीं देता
मैं ग़म में डूब चुका हूँ कोई ख़ुशी नहीं देता

जलते चराग को हवा का एक झोंका बुझा गया
बुझा हुआ चराग कहीं कोई रौशनी नहीं देता

उसका स्पर्श अन्तः मन को शांति देता था
अब कोई भी स्पर्श वैसी अनुभूति नहीं देता

ज़माने ने मुझपे इतनी मेहरबानियाँ की है
की अब तो कोई ख़ुशी भी ख़ुशी नहीं देता