Friday 22 June 2018

चंद शेर

1.
जब "धरम" पानी से पानी को जलाया आग से आग बुझाई
कि तब जाकर ग़म खा के ज़िंदगी खुद मेरे क़दमों में आई

2.
पिरोया था अपनी जां को "धरम" तेरी जां में इस कदर
कि ख़ुद को पा लेता था बस देखकर तुझको एक नज़र

3.
दोनों को "धरम"अब तो इस रिश्ते के मरने का इंतज़ार करना है
क्यूँकि दोनों को अब तो अलग-अलग सख़्श पर ऐतवार करना है

4.
कि सर मेरा जब भी झुका 'धरम' क़लम कर दिया गया
उस रिश्ते में पनपे गहराई को भी भरम कर दिया गया  

Saturday 16 June 2018

अकेला मैं ही गुनाहग़ार था

मेरे आगोश में तुम कब थे जो था वो सिर्फ तुम्हारा एक किरदार था
वो घर भी तो एक भ्रम ही था मैं जहाँ रहता था वो तो एक बाज़ार था 

तू किसी और के ज़िस्म की तपन थी क्यूँ कर मेरे ज़िस्म में उतर गई
कि बाद इसके जो मुझमें तुम्हारा वज़ूद था वो सिर्फ एक आज़ार था 

आखँ से आँखें बोलती दिल से दिल बोलता साँसों से साँसें बात करती
मगर क्यूँ जब भी ज़ुबाँ खुलती हर प्रश्न का उत्तर सिर्फ़ ख़बरदार था

कि जहाँ तूफां था ग़ुबार भी था औ" थे मेरे चंद जाने पहचाने चेहरे भी
वहां भी उस चिराग़ के बुझाने के ज़ुर्म का अकेला मैं ही गुनाहग़ार था

कि अपनी दास्ताँ-ए-ज़िंदगी "धरम" तुझको अब मैं क्या बयां करूँ
हम तो वहाँ लुटे हैं जहाँ लोग भी अपने थे औ" साथ में पहरेदार था

Wednesday 13 June 2018

चंद शेर

1.
कि हर आलम मुझे नज़र आता तो है मगर लम्हा गुज़र जाने के बाद
मेरी आखों में लहू उतरता तो है "धरम" मगर ज़ख्म भर जाने के बाद

2.
कि मेरी याद 'धरम' उनके ज़हन में कब जा के उतरी
जब वो हर शख़्स से टूटे तन्हा हुए तब जा के उतरी

3.
इस बार की ये बेरुख़ी नाराज़गी क्या कहें जान लेकर जाएगी
औ" ग़र बच गए ज़िंदा "धरम" तो फिर ईमान लेकर जाएगी

Sunday 3 June 2018

चंद शेर

1.
हमने जिस-जिस को पनाह दिया "धरम" वह हर शख़्स नकाबपोश निकला
जब हटा नक़ाब तो हर शख़्स चेहरे का काला औ" ज़ुबाँ का ख़ामोश निकला 

2.
अब जो हम दोनों के दरम्याँ है "धरम" वो सिर्फ पर्दादारी है
जो बचा-खुचा रिश्ता का अवशेष है वो सिर्फ एक बीमारी है

3.
जब भी खुलती है आँख 'धरम' तो अंधेरे पर रौशनी का धोखा होता है
औ" ग़र खुल गई ज़ुबाँ तो बाद उसके जो होता है वो अनोखा होता है

4.
कि जब भी तुमने ज़ुबाँ खोली "धरम" मेरी इज़्ज़त को किया तार-तार 
जब मिलाया हाथ तो महज़ एक ज़ख्म के पीछे दिए ज़ख्म कई हज़ार

5.
कि बाद इस मुलाक़ात के जो भी बचा-खुचा भ्रम था वह टूट गया 
ज़ुल्म इतना हुआ 'धरम' की मेरे सब्र का अंतिम घड़ा भी फूट गया

Saturday 2 June 2018

वो रिश्ता जो बे-आबरू होकर हलाक़ हुआ

तेरे साथ का वक़्त-ए-मुलाक़ात भी तो तन्हा ही गुजरता है 
आँखें बंद करूँ तो भी तस्सबुर में तेरा चेहरा नहीं उभरता है

तेरे हर रंग-ए-मिजाज़ को मैंने देखा औ" सीने से लगाया भी
वो रंग-ए-उल्फ़त तेरे चेहरे पर देर तलक़ क्यूँ नहीं ठहरता है

ख़ुद को ज़मीं पर रखकर ज़माने से नहीं अपने आप से पूछो
क्यूँ तेरा हर शाग़िर्द तेरे परछाहीं से भी मिलने से मुकरता है

न ही मेरे आखों को सुकूँ मिला न तश्ना-लब की प्यास बुझी
हर वक़्त-ए-मुलाक़ात में तेरा चेहरा ये किस तरह निखरता है

वो रिश्ता जो तेरे ही पहलू में बे-आबरू होकर हलाक़ हुआ था
मैं सोचता हूँ तो दिल मेरा टूटकर कई टुकड़ों में बिखरता है

कि मैं अब तो तुझसे फ़ासले पर ही क़याम करता हूँ "धरम"
तुझसे करीबी के बात पर तो जिस्म औ" रूह दोनों सिहरता है