Monday 22 December 2014

दरिया-ए-हुस्न को मैं सलाम करता हूँ

आपके नुमाइश-ए-हुस्न का मैं एहतराम करता हूँ
चूमकर इस दरिया-ए-हुस्न को मैं सलाम करता हूँ

खुद अपने ज़िस्म को मैं आपके ज़िस्म में उतारकर  
मुहब्बत में हवस भी जरुरी है अब ये एलान करता हूँ 

Thursday 18 December 2014

ज़ख्म-ए-दिल का जायका

कलेजे पर पत्थर रखकर अब तो मैं हर रोज सोता हूँ
मिलाकर लहू शराब में अब तो मैं हर रोज पीता हूँ

ज़ख्म-ए-दिल का जायका बहुत खूब भाया है मुझको
मिलाकर तेरी यादों में अपना कलेजा हर रोज खाता हूँ

जब तुम न थे मेरा दिल न धड़कता था न सुलगता था
दिल के टुकड़े को सीने में डालकर अब हर रोज सीता हूँ

जिस्म अकड़कर पत्थर के मानिंद पड़ा है अब चौराहे पर
ज़हर का घूँट "धरम" इसको अब तो हर रोज पिलाता हूँ

Sunday 14 December 2014

अपना अंदाज़ बनाये रखा

अपने दिल को मैंने कुछ इस तरह जलाये रखा
उसकी तस्वीर को अपने सीने से लगाये रखा

वो हरेक मुलाक़ात में मुखड़ा बदल के मिलते थे
औ" मैं अपना वो पुराना अंदाज़ बनाये रखा

उसमे ज़माने को लूटने का बहुत खूब इल्म था
औ" मैं खुद को लुटाने की ख्वाईश बनाये रखा

वो ज़ीस्त के हरेक कदम को संभाल कर रखते थे
औ" मैं ठोकर खाकर लज़्ज़त-ए-संग बनाये रखा

पाकर ज़माने की खुशियां भी वो कभी खुश न हुए
औ" मैं हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार बनाये रखा

उसकी ज़िंदगी में हमेशा ग़ुमनामी ही रही "धरम"
औ" मैं ज़माने को अपना मुशदा-ए-क़त्ल सुनाये रखा


लज़्ज़त-ए-संग : पत्थर की चोट खाने का आनंद
हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार : दुखों से आनंद प्राप्त करने की लालसा
मुशदा-ए-क़त्ल : क़त्ल की खुशखबरी 

Saturday 13 December 2014

ज़ीस्त के अंतिम प्रहर के लिए

दुखता नहीं है दिल किसी राहगर के लिए
आग लग के बुझ चुका है हमसफ़र के लिए

समंदर के मौज़ों पर बहुत अठखेलियां हुई
ज़ीस्त अब ढूंढता है किनारा बसर के लिए

दुनियाँ देख ली ज़माने को समझ भी लिया
कदम खुद-ब-खुद चल पड़ता है घर के लिए

दुनियाँ की रौशनी में अब तो आँख जलता है
जाँ बस रुकी है ज़ीस्त के अंतिम प्रहर के लिए

हर कब्रिस्तान की ज़मीं अब तो छोटी पड़ रही है
"धरम" शहर में खुल चुका है दुकाँ ज़हर के लिए

Friday 12 December 2014

चंद शेर

1.

एहसास-ए-सुखन हर किसी को मुमकिन नहीं होता
हरेक मोहब्बत आबाद रहे ऐसा यक़ीनन नहीं होता

2.

मुझसे बिछड़ने के बाद ख़ुदा करे तुम रहो आबाद
हर ओर तुम्हारी ही चर्चा हो और तू रहे ज़िंदाबाद

3.

कट-कट के जिस्म गिर रहा है तेरे इंतज़ार में
लोग मुझपर अब तो थूक रहें हैं भरे बाज़ार में

4.

तमाम उम्र गुज़ार दी मैंने औरों के ग़मगुसार में
ख्वाईश अब रह ही गई उतरने का जाँ-ए-यार में