Thursday 31 August 2017

अतीत का रिश्ता

अतीत एक भोगा हुआ सत्य होता है जिसे भुला पाना मुझ जिसे लोगों के लिए बहुत कठिन है| मुझे तो अतीत का भोगा हुआ दुःख भी भविष्य में आने वाले किसी भी सुख के कल्पना से ज्यादा आनंद देता है| तुमको अभी मैं अपना वर्तमान तो नहीं कह सकता हाँ मेरा एक अतीत जरूर हो तुम| एक ऐसा अतीत जिसमें मुझे सुख और दुःख दोनों की अनुभूति हुई| तुम्हारे साथ बिताये हुए सुख के पल यदि रोमांचित करते हैं तो दुःख के पल भी आनंद ही देते हैं| इस पर मैं एक शेर कुछ इस तरह कहना चाहता हूँ:

                                        तेरे पहलू में जो बीते मेरे पल हैं मेरे लिए अनमोल
                                       ये लो तेरे सामने राज दिया मैं अपने दिल का खोल

तुम भविष्य के तरफ जिस अंदाज़ से देखती हो मैं ठीक उसी अंदाज़ में अतीत की तरफ देखता हूँ| मेरी नज़र में मेरे अतीत की शुरुवात और तुम्हारे भविष्य का अंतविंदु एक ही है| तो फिर हमारे जिस्म के दरम्याँ वर्तमान में इतनी दूरी क्यूँ है? हमारे रूह के दरम्याँ इतना सन्नाटा क्यूँ है? हमारे साँसों के दरम्याँ इतनी ठंढी क्यूँ है? तुम से रुख़्सत के वक़्त मैंने अतीत से जुड़े रिश्ते का एक धागा बुना था| उस धागे के एक सिरे को मैं अब भी पकड़ा हूँ और दूसरा सिरा तेरे इंतज़ार में अब भी सज़दे में झुका है| ग़र तुम भूल गई वो वाक़्या तो लो मैं तुम्हें याद दिला देता हूँ

                       मैंने तो तुझसे रुख़्सत के वक़्त अतीत को वर्तमान से जोड़ना चाहा था
                        मगर पता नहीं क्यूँ तुम्हारे दिल में मेरे लिए सिर्फ फैला सन्नाटा था

तुम्हारे लिए अतीत से वर्तमान में आकर भविष्य में झांकना, खो जाना बहुत आसान प्रतीत होता है| क्या अतीत का प्रेम ऐसे मर सकता है? यदि हाँ तो वो प्रेम नहीं महज एक छलावा है| और यदि नहीं तो क्यूँ तुम्हारे आखों के अश्क़ सूख गए? लब ख़ामोश हो गए? जिस्म रूह विहीन हो गए? संवेदनाओं में कोई कराह नहीं? आवाज़ में कोई आह नहीं? इशारों में कोई आहट नहीं? मौन में कोई चीत्कार नहीं? सन्नाटे में कोई शोर नहीं? तुम्हें यकीं न हो तो न हो मगर मैं तुम्हारे रूह को हर वक़्त ढूंढता हूँ:

                                       तेरे रूह की खोज में मैं खुद ही कहीं खो रहा हूँ            
                                     ये लो तुम्हारे ही बनाये कब्र में अब मैं सो रहा हूँ    

तुम्हारे सुनहरे भविष्य की सबसे छोटी कूद भी अतीत के सबसे ऊँची दीवार से भी ऊँची होती है| इसलिए कोई भी अतीत तुम्हारे भविष्य का रोड़ा नहीं बन सकता| तुमने अतीत की कई ऐसी दीवारें लाँघी हैं| खूब इल्म है तुमको ऐसे कूदने का|

                               लाँघो हर प्रेम की दीवार कि तेरे लिए तो हैं आसमाँ हज़ार
                              तुम क्यूँ कर याद करो उस अतीत को जो रिश्ता था बीमार
                               बाहों की वो कैची होती थी और होती थीं अपनी आँखें चार
                               जब प्रेम ही था झूठा तो अब क्यूँकर इसपर करना विचार

मुझे अब भी मेरा हर अतीत प्यारा है| तुम भी याद करो, अपने सीने में अपना दिल रखो, रूह को स्पर्श करो, शायद कुछ याद आ जाए| हाँ जब भी तुम ऐसा करना, अपनी आखें बंद रखना| खुली आखों से तुम्हें अतीत में तो सिर्फ ग़ुबार ही दिखता है| उस अतीत को याद कर तुम्हारी स्मृति में ये शेर:

                            क्यूँ मैं अब भी अतीत के झूले में झूल रहा हूँ इसका मुझे पता नहीं
                           किसी अतीत का इतना व्यसन भी किसी के लिए होता अच्छा नहीं

Tuesday 29 August 2017

उसका रूह और ज़िस्म

धीरे-धीरे मुझे ये यकीं हो चला था की उसका रूह अब उसके ज़िस्म से अलग हो चुका है| रूह के बगैर ज़िस्म महज़ एक पत्थर है सिर्फ पत्थर| ये बात ज़्यादा पुरानी नहीं है| मैंने ख़ुद उसके भटकते रूह को उसके ज़िस्म में पूरी सिद्दत से पिरोया था| एक स्नेह भरा स्पर्श उसके पूरे ज़िस्म में सिहरन पैदा कर देता था| वह मूक सिहरन संवेदनाओं के सारे रंग समेटे इशारे में मुझे यह कहती थी कि ये लो मैं तुझे अब आईना दिखा रही हूँ, मेरे ज़िस्म में पिरोए इस रूह में तुम ख़ुद अपनी शक़्ल देखो| मैं भी मुस्कुरा देता था और बात इशारों में ही पूरी हो जाती थी| हम दोनों के बीच रूह से सिंचित संवेदना एक-दूसरे के लिए एक प्रश्न भी था एक उत्तर भी|

उसके रूह से मेरे रूह ने अनगिनत संवाद किए जो मेरे मानसपटल में अब भी क़ैद हैं| तब मुझे पूरा यकीं था की ये दो रूह सिर्फ इसलिए अलग हैं की ये दो अलग-अलग ज़िस्म से ताल्लुक़ रखते हैं| जब दोनों ज़िस्म का एकाकार हुआ तो यह निर्णय कर पाना मुश्किल हो गया कि किस रूह का ताल्लुक़ किस ज़िस्म से है| उसके बाद मेरा यकीं उस विश्वास को प्राप्त हुआ जहाँ यह निर्णय कर पाना बिल्कुल ही कठिन हो गया कि ख़ुद मैं किस ज़िस्म से ताल्लुक़ रखता हूँ| मैं ख़ुद को दोनों ज़िस्म में एक ही सा पाता था| मैंने तब ख़ुद पढ़ा था उसके रूह में उपजे ढेर सारे यक्ष प्रश्न : की अब बताओ कि ये रिश्ता क्या है? यदि ये शुरुवात है तो इसका अंत क्या है? और यदि यही अंत है तो शुरू कहाँ से हुआ था, क्यूँ हुआ था, किसने किया था, किसलिए किया था, कब किया था? इस रिश्ते रूपी डोर को मैं जिस नाम से पकड़ी हूँ क्या तुम भी इसे वही समझते हो या कुछ और? मेरा मौन रुपी अभिव्यक्ति ऐसे जटिल प्रश्नों का उत्तर बिल्कुल नहीं था| मगर मैंने इशारे की अभिव्यक्ति से उसके सारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया था| उसको यह उत्तर पसंद नहीं था क्यूंकि उसको उत्तर में मुझसे कुछ शब्द चाहिए थे जो मैं कह नहीं सकता था| क्यूंकि मेरे लब कभी भी आज़ाद न थे| मेरे मौन को उसकी चीख़ जिसमे इतने सारे प्रश्न छुपे थे तोड़ नहीं पाता था| उसके बाद धीरे-धीरे उसके रूह ने मुझसे प्रश्न करना बंद कर दिया था| इशारे की अभिव्यक्ति और बोली की अविव्यक्ति में क्या इतना फ़र्क होता है? क्या मेरा इशारा उत्तरहीन था? नहीं, बिल्कुल नहीं|

फिर क्या था रूह अलग हुए| उसके जिस भटकते रूह को मैंने उसके ज़िस्म में पिरोया था उसमें फिर कभी मुझे अपनी शक़्ल दिखाई नहीं देता था| जब भी झांकता पता नहीं क्यूँ कुछ धुंध सा नज़र आता था जहाँ रूह और ज़िस्म दोनों अलग-अलग जगह तैर रहे होते थे| मैं उसके बाद भी झांकता रहा, झांकता रहा बस धुंध ही था हाँ मगर उसके भटकते रूह को कोई और ज़िस्म मिल गया था जिस ज़िस्म के सहारे ये ख़ुद अपना ज़िस्म तौल लेती थी| मेरे लिए अब भी वहां धुंध है सिर्फ धुंध| मगर हाँ! अब यक़ीनन उसका रूह उसके ज़िस्म से अलग हो गया है|

Sunday 27 August 2017

चंद शेर

1.
किस ख़्याल से दिल खुश होगा चेहरे पर निखार आएगा
अब पता नहीं 'धरम' कि कैसे मुझे खुद पर प्यार आएगा

2.
खुद से खुद ही रूठे "धरम" फिर खुद मना भी लिए
कि खुद ही अपना दिल बुझाये औ" जला भी लिए

3.
ऐ! ज़िंदगी अब जो हम इस दौर से निकलेंगे तो कहाँ जाएंगे
अब तू ही बता "धरम" कि ग़म के अलावा और क्या खाएंगे

4.
मेरी फ़ितरत में "धरम" कभी दूसरों का दिल दुखाना नहीं है
आपको तालीम हासिल है आप जाएंगे दिल दुखाकर जाएंगे

5.
'धरम' क्यूँ ये चीख सुनाई नहीं देती क्यूँ ये ज़ख्म दिखाई नहीं देता
क्यूँ कोई ख़्वाब सुनाया नहीं जाता क्यूँ कोई गीत गाया नहीं जाता

6.
संवेदनाओं को घूंट के सहारे हलक़ से नीचे उतारना पड़ता है
क्यूँकर हरेक एहसास के बाद 'धरम' मेरा गला सूख जाता है

Friday 18 August 2017

चंद शेर

1.
कि उम्मीद से ऊँची मेरे ख़्वाब की मंज़िल न थी हाँ! मगर रास्ता लम्बा जरूर था
मैं भी क्या करता "धरम" खुद ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने के लिए मज़बूर था

2.
कि तेरे लिए 'धरम' महज़ एक ही ज़ाम के लायक था मैं
और क्या कहें कि सिर्क एक ही सलाम के लायक था मैं

3.
कैसे कह दूँ "धरम" कि चिराग हर शख़्स के दिल में जलता होगा
ग़र जलता भी होगा तो जरूरी नहीं कि हर पत्थर पिघलता होगा

4.
ऐ! ज़िंदगी ग़र तुझे कब्र भी कहूं तो दो गज़ ज़मीं देनी होगी
कि इतनी ज़मीं भी "धरम" मुझे किसी और से ही लेनी होगी

5.
कि वो कैसा ख़्वाब था 'धरम' ऊपर ज़मीँ थी नीचे आसमाँ था
गुज़रा ज़माना था झूठी मोहब्बत थी औ" उजड़ा आशियाँ था

6.
हर बार प्रमाणित करने का दाईत्व 'धरम' मेरा रहता है
कि मैं ऐसा दीपक हूँ जिसके तले हमेशा अँधेरा रहता है

7.
कि नुमाइंदे हुस्न के कितने आए "धरम" कितने चले भी गए
तू बता हुस्न कहाँ किसी के पहलू में देर तलक ज़िंदा रहता है

8.
बाद तेरे न कभी मेरी ज़ुबाँ खुली न किसी पर प्यार आया
दिल में उदासी छाई "धरम" हर गुलसन पर ग़ुबार आया

9.
महज़ एक ही सैलाब आया औ" हम दरिया-ए-दर्द में डूब गए
और बहुत सितम होना है 'धरम' क्यूँकर पहले में ही ऊब गए

Thursday 10 August 2017

असर ढूँढ़ता है

क्यूँ यहाँ परिंदा खुद अपना पर ढूँढ़ता है
जो मेरे साथ है वो भी हमसफ़र ढूँढ़ता है

कल तो मेरे लुटने की ख़बर मिल गई थी
अब ये बता की तू कौन सी ख़बर ढूँढ़ता है

कि यही है तेरे बुलंदी औ" मेरे ग़र्क की मंज़िल
अब तू ये बता कि यहाँ कौन सा डगर ढूँढ़ता है

तेरे बाहों की ठंढक में हर दिल पत्थर हो जाता है
हर कोई तेरे पहलू में आकर दूसरा बसर ढूँढ़ता है

जो मिली है तुझको "धरम" तेरे कर्मों का फल ही है
इसमें तू क्यूँ किसी बद-दुवा का कोई असर ढूँढ़ता है

Monday 7 August 2017

चंद शेर

1.
तुम तो मुफ़लिस हो तुम्हारे हौसले को बुलंदी नसीब नहीं
उसे जाने दे ज़िद न कर 'धरम' कि वो अब तेरे क़रीब नहीं

2.
ख्वाईश की सीढ़ी चाहत की मंज़िल औ" बाद उसके खुला आसमाँ
"धरम" बुलंदी वालों को क्यूँ कर वहां से दिखता है दोज़ख ये ज़हाँ

3.
मेरे घऱ के दर-ओ-दीवार भी "धरम" अब मुझसे उकताने लगे हैं
कि जिनके कल हम अज़ीज़ थे आज वो भी चेहरा छुपाने लगे हैं

4.
क्यूँ ये गुनाह-ए-अज़ीम "धरम" मेरे ही हाथों होना था
कि जिससे खुदा ने मिलाया था उसे खुद ही खोना था

5.
जो ठहर के गुज़री है "धरम" वो तेरी याद नहीं हो सकती
कि जो बात मुझको ख़ुशी दे वो तेरी बात नहीं हो सकती

6.
वहां हम क्यूँ उम्मीद रखते हैं दिल से दिल मिलाने का
जहाँ से कोई भी रास्ता "धरम" नहीं जाता मयख़ाने का

7.
हम उल्फ़त के सौदागर हैं हमें तुझ जैसे हुस्न-ए-बेपर्दा से क्या
तू तो एक बीमारी है "धरम" तुझे इस ज़हाँ के दीनदारी से क्या

8.
थोड़े आँवलें दिल में भी हैं "धरम" थोड़ी जलने की बू पाँव तले भी है
कि थोड़ी ज़मीं आसमाँ से ऊपर भी है थोड़ा आसमाँ ज़मीं तले भी है

9.
कि कुछ ज़ख्म दिखाई नहीं देते तो कुछ दर्द सुनाया नहीं जाता
मैं तो अब वो गीत हूँ "धरम" जिसे कभी गुनगुनाया नहीं जाता



Thursday 3 August 2017

चंद शेर

1.
वो कौन सी दीवार थी "धरम" न जाने कब गिरा दी गई
कि मारे शर्म से अपने काँधे से अपनी गर्दन हटा दी गई

2.
मैं तुमसे जितना मिला उससे ज़्यादा और किसी से क्या मिलता
कि ख़ुशी तेरे दामन में आती थी "धरम" और चेहरा मेरा खिलता

3.
वो था मेरा ज़ुर्म-ए-उल्फ़त मुझको मिली है ये सज़ा-ए-मोहब्बत
जो लिखा था वो कुछ और था "धरम" अब यही है तेरी किस्मत

4.
तेर हर अगला ज़ख्म "धरम" पिछले सारे ज़ख्मों पर भारी होता है
कि ऐ! ढलता हुस्न अब ये बता तुझपर कौन सा नशा तारी होता है

5.
गुज़रे वक़्त की मिशाल है कि जो तुझसे मिला वो बेहाल है
मैं तुझसे बच कैसे गया "धरम" ये तेरे लिए एक सवाल है