हिज़्र का एक दश्त औ" बाद उसके मुसलसल हिज़्र का सैलाब
ऐ! ज़िंदगी मुझे ख़ुद भी तो पता नहीं कि तुमसे क्या माँगे जवाब
वो एक ख़ुशी का दरिया था जो पहले उतरा औ" फिर सूख गया
उस दरिया को याद करके क्यूँ ही करना ढ़लते वक़्त का हिसाब
वो एक रौशनी दिखी थी जो बस थोड़े से वक़्त में ही कहीं खो गई
क्या था यूँ कह लो की हो किसी उतरते दिन का कोई आफ़ताब
ज़माने के दौर-ए-महफ़िल में हर ज़िंदगी के बस दो ही हैं पहचान
या तो पूरा ज़िंदा रखता है या फिर दे देता है मुर्दा होने का ख़िताब
वक़्त ज़िंदगी का जब उतरता है 'धरम' तो वो किस तरह देखता है
जैसे की कई रँगों के हिजाब के ऊपर हो कोई एक काला हिजाब
ऐ! ज़िंदगी मुझे ख़ुद भी तो पता नहीं कि तुमसे क्या माँगे जवाब
वो एक ख़ुशी का दरिया था जो पहले उतरा औ" फिर सूख गया
उस दरिया को याद करके क्यूँ ही करना ढ़लते वक़्त का हिसाब
वो एक रौशनी दिखी थी जो बस थोड़े से वक़्त में ही कहीं खो गई
क्या था यूँ कह लो की हो किसी उतरते दिन का कोई आफ़ताब
ज़माने के दौर-ए-महफ़िल में हर ज़िंदगी के बस दो ही हैं पहचान
या तो पूरा ज़िंदा रखता है या फिर दे देता है मुर्दा होने का ख़िताब
वक़्त ज़िंदगी का जब उतरता है 'धरम' तो वो किस तरह देखता है
जैसे की कई रँगों के हिजाब के ऊपर हो कोई एक काला हिजाब