Tuesday 7 January 2020

मुर्दा होने का ख़िताब

हिज़्र का एक दश्त  औ" बाद उसके  मुसलसल  हिज़्र का सैलाब
ऐ! ज़िंदगी  मुझे ख़ुद भी तो पता नहीं  कि तुमसे क्या माँगे जवाब

वो एक ख़ुशी का दरिया था  जो पहले उतरा  औ" फिर सूख गया
उस दरिया  को याद करके  क्यूँ ही करना ढ़लते वक़्त का हिसाब

वो एक रौशनी दिखी थी  जो बस थोड़े से वक़्त में ही कहीं खो गई
क्या था  यूँ कह लो  की हो किसी उतरते दिन का कोई आफ़ताब

ज़माने के दौर-ए-महफ़िल में हर ज़िंदगी के बस दो ही हैं पहचान 
या तो पूरा ज़िंदा रखता है या फिर दे देता है मुर्दा होने का ख़िताब

वक़्त ज़िंदगी का जब उतरता है 'धरम' तो वो किस तरह देखता है
जैसे की कई रँगों के हिजाब के ऊपर हो कोई एक काला हिजाब  

Friday 3 January 2020

रह-रहकर भुलाना है

बिन तेरे वो  कारवाँ पहले  भी सूना था  अब भी सूना है
मगर क्या कहें कि  दिल-ए-दर्द  अब पहले से दुगुना है

जब साँसों से  साँसें मिलती थी तो  नज़्म उभर आता था
उस नज़्म को  अपने होठों से  अब क्यूँ ही गुनगुनाना है

फिर क्यूँ चेहरे पर उपजी  मायूसी क्यूँ दर्द छलक आया
ऐ दिल-ए-ज़ख्म तुझे फिर से क्यूँ वही किस्सा सुनाना है

वक़्त-ए-रुख़सत कहाँ ख़त्म  हुआ कुछ भी तो याद नहीं
ज़ख्म-ए-रुख़सत अब भी है जिसे रह-रहकर भुलाना है

ये कैसी बज़्म है  जिसमे एक मेरा अक्स है  और एक मैं
ऐसे बज़्म में  अपने ही दिल से दिल को  क्या मिलाना है

मौसम इश्क़ का बदलने से पहले ही ईंसाँ बदल जाता है
बाद इसके भी "धरम" कैसे हर  कोई तुम्हारा दीवाना है