Friday 27 December 2013

चंद शेर

1.
ये कैसी मुसीबत है कि दुआ-ए-हर्फ़-ए-आशिक़ भी बे-असर निकला
मेरे घर से मेरे इश्क़ का जनाज़ा निकला और मैं ही बे-खबर निकला

2.
जो जलाया था चराग-ए-इश्क़ मैंने कभी अपने जिगर-ए-लहू से
उसके दामन में तो बहार आई  मेरे ही हिस्से में तीरगी निकला

3.
वो वफ़ा की बात थी और करार-ए-मिलन-ए-चौदवीं की रात थी
मैं ता-उम्र उसकी याद मैं बैठा रहा और वो इससे बे-खबर निकला

4.
हम न तो खुद के हुए न ही ज़माने के हुए
न साक़ी के हुए और न ही पैमाने के हुए

5.
हर्फ़-ए-दुआ-ए-कातिल था अच्छा हुआ बे-असर निकला
वो मेरे घर से होकर निकला और मैं उससे बे-खबर निकला 

Saturday 7 December 2013

ज़िंदगी

ज़िंदगी की डोर भी बड़ी अजीब होती है
जितनी सुलझाओ उतनी उलझती चली जाती है

जब भी कभी ज़ख्म पर मरहम लगाता हूँ
तो और भी गहरा ज़ख्म उभर कर आता है

जब भी दिल में अपने लहू का चिराग जलाता हूँ
न जाने क्यूँ आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है

चांदनी रात भी अब अमावस सा क़हर बरपा जाती है
ज़ख्म-ए-दिल अब तो हर मौसम में तेरी याद भुला जाती है

अब न तो दर्द की दवा करता हूँ और न ही दर्द-ए-बेदवा पाता हूँ
ज़िंदगी कैसी हो गई हो तुम हर कदम पर तुमको बेवफा पाता हूँ

हर चेहरा एक पहाड़ सा दीखता है और आँख समंदर सा दीखता है
दिल में एक तूफाँ सा दीखता है और ज़िस्म खंड़हर सा दीखता है

मैं तो "धरम" अब रिश्तों में यूँ ही उलझना छोड़ दिया हूँ
ज़िंदगी को थाम कर तो रखा हूँ मगर जीना छोड़ दिया हूँ