Saturday 23 July 2022

ख़ुद से एक भी चराग़ बुझा न सका

क्यूँ कभी एक भी दर्द  इंतिहा तक  आ न सका 
ऐसा क्यूँ की एक भी साँस सीने में समा न सका
 
यूँ  ख़ून-ओ-पसीना  साथ-साथ कई बार निकला 
कभी अपना ख़ून अपने पसीने से मिला न सका
 
चेहरे के एक-एक हर्फ़ को पढ़ा भी  भुलाया भी  
मगर एक भी हर्फ़-ए-ख़ुफ़्ता कभी भुला न सका 

किसी का कद बढ़ा दिया किसी का छोटा किया 
मगर एक कद को वो दूसरे कद से मिला न सका 
 
यूँ तो अनगिनत लम्हें दिल की पनाह में थे मगर  
किसी एक भी लम्हा को  सुकूँ से  सुला न सका 

यूँ तो वो सारा चराग़ हवा की ज़द में न था मगर 
कभी ख़ुद से 'धरम' एक भी चराग़ बुझा न सका 

Wednesday 20 July 2022

एक ऐसा भी सहारा कर लिया

उस एक बिखरी याद से जब किनारा कर लिया 
बज़्म में गया भी नहीं मगर हाँ नज़ारा कर लिया
 
कि शिकस्त-ओ-फ़त्ह का ख़याल आया ही नहीं  
जब उस शख़्स से  मोहब्बत  क़ज़ारा कर लिया

दुश्मन के कंधे पर सर रखा फिर न ख़बर रखा 
ज़िंदगी में कभी  एक ऐसा भी सहारा कर लिया 
 
दरमियान दो दिलों के जब फ़ासला बढ़ता गया  
वो नज़र झुकाने से पहले एक इशारा कर लिया 

जहाँ बैठे थे मुंतज़िर सारे  क़यामत के दीदार में 
जब वहाँ शरीक हुए दिल को आवारा कर लिया 
 
जब दश्त-ब-दश्त बीतता गया तन्हाई बढ़ती गई  
तब सफ़र में "धरम"  ख़ुद को पुकारा कर लिया


Sunday 17 July 2022

वो कैसा मआ'ल था

न मैंने कभी  बुलाया था  न ही  तुम ख़ुद  आये थे 
वो एक  लम्हें की बेबसी थी  वो कैसा विसाल था 
 
राख हो चुकी  सारी यादों  को हवा  उड़ा रही थी 
दिल में  तिरे कैसी  अगन थी वो कैसा ख़याल था 
 
अश्क़ औ" लहू   एक दूसरे के  क़र्ज़दार बन गए 
 ख़ुद से  वो कैसी गुफ़्तगू थी   वो कैसा सवाल था 

ख़ामोशी की उम्र दराज़ हुई चीख सुकूँ से सो गया 
दरमियाँ ज़िंदगी और मौत के वो कैसा मआ'ल था 

तन्हाई की  क़ब्र पर  उपजी और  फैलती  ज़िंदगी 
सुकूँ को  बेचैनी पर  "धरम" वो  कैसा  'अयाल था  

Thursday 14 July 2022

काग़ज़ ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जायेगा

समंदर की  ख़ामोशी  अपनी गहराई को  बयाँ करती है 
औ" उसके बवंडर की दास्ताँ  दूसरे की  ज़बाँ करती है 

जब इश्क़ होता है तो प्याला-ए-हुस्न बे-वजूद हो जाता है 
ख़ुलूस-ए-दिल से जलाई गई आग अँधेरा कहाँ करती है 

क़लम की दौलत है तो काग़ज़ ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जायेगा 
दास्ताँ इसकी हर संग पर लिखी बातें यहाँ-वहाँ करती है 
 
उलफ़त के लफ़्ज़  बंद क़िताबों में  क़ैद  नहीं रह सकते 
दास्ताँ इसकी  धरती आसमाँ  औ" सारा जहाँ  करती है 
 
इंसाफ़ का सिर्फ़ एक तराजू  औ"  हर तन से  जुदा सर   
बड़ी शिद्दत से  इंतिज़ार "धरम" नज़र-ओ-जाँ करती है   

Saturday 9 July 2022

कोई और इनाम नहीं देंगे

क़त्ल को इलाही ये  क़त्ल का नाम नहीं देंगे 
ये हुक्मरान अब तो कोई भी पैग़ाम नहीं देंगे 
 
सज्दे में गर्दनें  झुकी रहेंगी  क़त्ल भी  होंगी 
अलावा ज़ब्र के  कोई और  इनाम  नहीं देंगे 
 
करम की  बातें होंगी  होंठ भी  सिले जाएँगे  
ख़ुद आपको  आपका ही   कलाम नहीं देंगे 

आपके लहू की क़ीमत किसी मोल का नहीं        
आपकी शहादत पर भी वो सलाम नहीं देंगे 

न शिकस्त न फ़त्ह न ही दरमियाँ  की बुलंदी
हाथ थामकर भी 'धरम' कोई मक़ाम नहीं देंगे